'मिशन-बिहार' के लिए पूरी तरह नीतीश-चिराग के भरोसे BJP? खुद ने नहीं बदला ढर्रा, फिर भी लालू को घेरा

BJP अपने कोर वोटर्स को भविष्य की राजनीति के लिए अपने साथ मजबूती से रखना चाहती है. साथ ही गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलकर सामाजिक समीकरण को भी साधने की कोशिश में है. जानकार बीजेपी की इस राजनीति को बेहद कैलकुलेटेड स्टेप के तौर पर देख रहे हैं. 

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नई दिल्ली:

लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) की तैयारियों के बीच बीजेपी (BJP) ने देशभर में अब तक 400 से अधिक उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर दिया है. बीजेपी की तरफ से एक-एक सीट पर विशेष तैयारी की जा रही है. हर राज्यों को लेकर अलग-अलग तैयारी की गयी है. जहां गठबंधन की जरूरत महसूस हुई है वहां बीजेपी ने अपनी सीटें छोड़कर भी कई दलों से समझौता किया है. हालांकि स्टार प्रचारक (Star Campaigner) से लेकर उम्मीदवारों के चयन में बिहार में बीजेपी ने अपने पुराने अंदाज को नहीं बदला है. 17 उम्मीदवारों में से 10, लगभग 60 प्रतिशत सीटों पर पार्टी की तरफ से अपने कोर वोटर्स, सवर्ण उम्मीदवारों को जगह दी है. वहीं स्टार प्रचारकों में भी लगभग 50 प्रतिशत सवर्ण नेता हैं. हालांकि अन्य जातियों की जिम्मेदारी अपने सहयोगी दलों को बीजेपी की तरफ से दी गयी है.

बिहार में बीजेपी ने खुद बिना बदले हुए एनडीए के दम पर सोशल इंजीनियरिंग कर दिखाया है. बीजेपी की कोशिश यह है कि एक छाते के अंदर कई दलों और समूह को लाकर, गैर मुस्लिम मतों को एकजुट किया जाए. 

बीजेपी ने अपने कोर वोटर्स का बिहार में क्यों रखा इतना ध्यान?
बिहार की राजनीति बीजेपी के लिए हमेशा से एक उलझी हुई पहेली रही है. अभी बिहार विधानसभा में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है और लोकसभा में भी उसके सबसे अधिक सांसद हैं. लेकिन फिर भी बीजेपी बिहार में लगातार बदलते राजनीतिक पृष्ठभूमि में अपने कोर वोटर को साध कर रखना चाहती है. मंडल राजनीति के उभार के बाद बिहार में कांग्रेस और लालू प्रसाद के गठजोड़ के कारण सवर्ण मतदाता कांग्रेस से टूटकर बीजेपी के साथ आए.  बीजेपी को पिछले लगभग 3 दशक से थोक के भाव सवर्ण मतदाताओं का वोट मिलता रहा है. बीजेपी किसी भी हालत में इसमें कोई टूट नहीं चाहती है.

बीजेपी अपने कोर वोटर्स को भविष्य की राजनीति के लिए अपने साथ मजबूती से रखना चाहती है. साथ ही गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलकर सामाजिक समीकरण को भी साधने की कोशिश में है. जानकार बीजेपी की इस राजनीति को बेहद कैलकुलेटेड स्टेप के तौर पर देख रहे हैं. 

बीजेपी ने जातिगत जनगणना को नकारा, पुराने फॉर्मूले को ही अपनाया
बिहार में महागठबंधन की सरकार के द्वारा जब जातिगत गणना करवाने का फैसला लिया गया था तो बिहार बीजेपी की तरफ से भी इसका समर्थन किया गया था. लेकिन बीजेपी की केंद्रीय नेतृत्व ने कभी भी जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों को अधिक तरजीह नहीं दी. जातिगत गणना की रिपोर्ट सामने आने के बाद इस बात की अटकले लगायी जा रही थी कि आगामी लोकसभा चुनाव पर इसका व्यापक असर दिखेगा. लेकिन बीजेपी ने इससे पूरी तरह से किनारा कर लिया. जानकारों का मानना है कि बीजेपी कभी भी किसी दूसरे दलों के मजबूत फिल्ड में खेलना नहीं चाहती है.

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बीजेपी नेतृत्व का मानना रहा है कि जातिगत गणना जैसे मुद्दे लालू प्रसाद की राजनीति को मजबूती देती है. इस कारण बीजेपी ने पूरी तरह से अपनी पार्टी को इससे अलग रखने का प्रयास किया है. हालांकि गठबंधन के सहयोगियों के साथ मिलकर बीजेपी ने सामाजिक समीकरण को जरूर साधा है. जो पिछले 2 दशक से बिहार में एनडीए की सफलता का आधार भी रहा है. 

राहुल गांधी के सबसे अहम मुद्दे को बीजेपी क्यों नहीं मान रही चुनौती? 
पिछले एक साल में कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने देश में जातिगत जनगणना के मुद्दे को बेहद गंभीरता से उठाया है. कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी को इसका लाभ भी मिला. राहुल गांधी ने अपने हजारों किलोमीटर की यात्रा के दौरान हर मंच पर इसे उठाया. राहुल गांधी का प्रयास कास्ट आइडेंटीटी के बहस को देश की राजनीति में स्थापित करने का रहा है. बीजेपी नेतृत्व भविष्य की राजनीति को ध्यान में रखते हुए इस मुद्दे को तरजीह देती नजर नहीं आ रही है. जहां कांग्रेस मंडल आंदोलन के बाद खोए अपने आधार को इस मार्फत वापस पाना चाहती है वहीं बीजेपी किसी भी हालत में मंडल बनाम कमंडल वाली राजनीति की वापसी नहीं चाहती है. 

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पीएम मोदी ने कई मंचों पर कहा भी है कि उनके लिए नारी, युवा, किसान और गरीब परिवार, ही चार जातियां हैं. इसके अलावा उनके लिए कोई अन्य जातियां नहीं हैं.

मोदी मैजिक, हिंदुत्व वोट बैंक, सोशल इंजीनियरिंग के भरोसे लालू-राहुल को चुनौती
सवाल यह उठ रहे हैं कि जातिगत गणना के बाद उपजे माहौल में भी बीजेपी ने 60 प्रतिशत सवर्ण उम्मीदवारों पर दांव क्यों खेला है? बीजेपी की राजनीति को समझने वालों का मानना है कि बीजेपी ने बिहार में सबसे पहले सहयोगियों के साथ मिलकर एक मजबूत गठबंधन बना लिया है जिसमें उम्मीदवारों के चयन में सहयोगी दलों ने बीजेपी की राजनीति को संबलता दी है.  दूसरी बात बीजेपी को इस बात का भरोसा है कि पीएम मोदी के साथ एक बड़ा वोट बैंक है जो हर हालत में में उनके साथ जुड़ा रहेगा.  अयोध्या में बने राम मंदिर के बाद बीजेपी को अपने परंपरागत हिंदुत्व वोट बैंक की भी आस है जिसके दम पर उसे भरोसा है कि वो इन चुनौतियों को पार कर जाएगी. 

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क्या इस रास्ते बीजेपी को मिलेगी सफलता?
चुनाव से पहले एक्सपर्ट और सामाजिक समीकरण के डेटा के आधार पर कई तरह की बातें सामने आती रही है. हालांकि पिछले 10 या 15 साल की राजनीति को देखने के बाद पता चलता है कि जातिगत समीकरण और जातिगत प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दे चुनाव में उतने अधिक सफल नहीं रहे हैं. यूपी और बिहार जैसे राज्यों में भी बीजेपी ने उन दलों की तुलना में अच्छा प्रदर्शन किया है जिनके साथ मजबूत जातिगत आधार रहे हैं. बदलते आर्थिक परिवेश और इंटरनेट क्रांति के दौर में जाति जैसे मुद्दों पर मतदान को लेकर लोगों की गोलबंदी में कमी आयी है.

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केंद्र सरकार की योजनाओं के लाभार्थी वोटर्स भी एक बड़े फैक्टर बनकर पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में सामने आए थे. बिहार में भी बीजेपी को उन लाभार्थियों से उम्मीद है. हालांकि यह देखना रोचक होगा कि जातिगत गणना की राजनीति के काट में बीजेपी की यह नीति कितनी सफल होती है? 

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