1982. मेरी पत्रकारिता का पहला साल. तब की सबसे लोकप्रिय पत्रिका 'धर्मयुग' में काम करने का मौक़ा मिला था. यशस्वी सम्पादक धर्मवीर भारती ने एक बड़ा मौक़ा दिया. मुझे महिला सुरक्षा पर कवर स्टोरी लिखने को कहा. यह लेख दिवाली के विशेषांक में छपा. भारती जी ने ही इसे शीर्षक दिया: सीताएं आज भी अरक्षित हैं.
42 साल बाद भी कुछ नहीं बदला
2024. यानी बयालीस साल का अंतराल. ये एहसास बेचैनी पैदा करने वाला है कि आज भी इस लेख का शीर्षक यही रखा जा सकता है कि “सीताएं आज भी अरक्षित हैं.” बयालीस साल के बाद भी कुछ नहीं बदला है. हर घंटे 80-90 बलात्कार की घटनाएं. हिंसा और वो भी महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का ख़तरनाक ढंग से नॉर्मलाइजेशन हो गया है.
अगर यह पहल अभी के हालात के संभालने के लिए, लोगों के ग़ुस्से के जवाब में कुछ करते हुए दिखने की गरज से है, तो इससे निराशा और बढ़ेगी. 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूछा था कि जब किसी को सजा होती है, तो क्या उसकी चर्चा मूल घटना की तरह होती है? इस सवाल में ये बात अंतर्निहित है कि अदालतों में ऐसे मामले दशकों तक चलते रहते हैं और किसी अंजाम तक नहीं पहुंचते. इस बेबसी को तोड़ना होगा.
अपराधियों के मन में डर का भाव कैसे होगा बहाल
आज सुप्रीम कोर्ट पर सबकी नज़र इसी लिए होगी कि क्या सुप्रीम कोर्ट सामान्य ऑप्टिक्स से आगे जाकर कुछ असरदार और निर्णायक हस्तक्षेप करता है? क्या वो ऐसी मिसाल खड़ी करने की तरफ़ जाता है, जिससे अपराधियों के मन में डर का जो भाव ख़त्म हो गया है वो फिर से बहाल हो.
NCRB के आंकड़े बताते हैं कि 2021 के मुकाबले 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध करीब 4 फीसदी ज्यादा हुए. 2020 से तुलना करेंगे, तो क्राइम रेट में बढ़ोतरी डरावनी है. करीब 20%. आरोपियों को सजा के आंकड़े देखें, तो संकेत मिलेगा कि अपराध घट क्यों नहीं रहे. 2022 में देश में 44,785 रेप केस की जांच हुई, इनमें से सिर्फ 26,508 केस में चार्जशीट फाइल हुई हैं, जबकि सिर्फ 5,067 को अदालत ने दोषी माना. हर तरह के अपराध का NCRB डेटा देखें, तो 2021 से 2022 के बीच सिर्फ एक साल में क्राइम रेट में करीब 10% की वृद्धि हुई.
2022 में 2021 से करीब 6% ज्यादा लोगों का अपहरण हुआ. बच्चों के खिलाफ अपराध में भी इतने की ही बढ़ोतरी हो गई. बुजुर्गों के प्रति ये समाज और बेरहम होता जा रहा है. 2021 की तुलना में 2022 में बुजुर्गों के खिलाफ 9% ज्यादा अपराध हुए. 2021 के मुकाबले 2022 में 4% ज्यादा लोगों की मौत आत्महत्या के कारण हुई. साइबर क्राइम में तो 24% का इजाफा हुआ.
हमारी सामूहिक चेतना जिस तरह कुंद हुई, उसे ठीक करने की जरूरत
सोशल मीडिया में जो विमर्श चलता है वह हिंसा, असहिष्णुता और एकाकीपन को बढ़ावा दे रहा है. वह क्राइम ऑफ़ पैशन को भड़का रहा है. यह निजी स्पेस की हिंसा नहीं है. ये हमारी सामूहिक ग़ैरज़िम्मेदारी की अभिव्यक्ति है. जब हम कल्पनातीत अपराधों की घटनाओं के बारे सुनते-पढ़ते हैं, तो वो अब हमें झकझोरती नहीं. हमारा नया विमर्श सोशल मीडिया से संचालित है और उसने हमें सामान्य मानवीय व्यवहार से, करुणा से और अहिंसा के अभ्यास से भटका दिया है, जिसका हमें एहसास भी नहीं. हमारी सामूहिक चेतना जिस तरह से कुंद हुई है, उसको ठीक करने के लिए सामाजिक, राजनीतिक और क़ानूनी तौर पर एक नई सोच की ज़रूरत है. एक समाधान हो सकता है कि अब हमारा समाज स्त्रियों की समानता नहीं स्त्रियों की प्रधानता को एक अच्छा समाज बनाने की पहली शर्त माने. इसके बिना जो भी इलाज होगा, वो अधूरा होगा और पैच वर्क जैसा होगा. वरना क़ानून का वास्तविक राज होते हुए अगर नहीं दिखा, तो आज से बयालीस साल बाद भी ये शीर्षक फिर से इस्तेमाल होगा: सीताएं आज भी अरक्षित हैं!