किसके साथ खड़े होंगे प्रियांक खरगे– समतावादी अंबेडकर या अधिनायकवादी इंदिरा के साथ

कर्नाटक सरकार में मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे प्रियांक ने कहा है कि उनकी पार्टी की सरकार बनने पर आरएसएस पर बैन लगाया जाएगा. क्या है इसके पीछे की राजनीति बता रहे हैं राजनीतिशास्त्र पढ़ाने वाले डॉ. स्वदेश सिंह.

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  • कर्नाटक के मंत्री प्रियांक खरगे ने कहा है कि कांग्रेस के सत्ता में आने पर आरएसएस पर पाबंदी लगाई जाएगी.
  • खरगे का यह बयान कांग्रेस के आरएसएस विरोधी रुख को दर्शाता है, जो नेहरू के जमाने से चला आ रहा है.
  • कांग्रेस में नेतृत्व के संकट के बीच खरगे का यह बयान मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद से जुड़ा माना जा रहा है.
  • आरएसएस पर कांग्रेस की सरकार 1948, 1975 और 1992 में पाबंदी लगा चुकी है. लेकिन हर बार वह पहले से अधिक मजबूत होकर फिर खड़ा हुआ है.
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नई दिल्ली:

कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खरगे का कहना है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबंध लगा देंगे. ऐसा कहने के पीछे खरगे की मंशा को समझने की जरूरत है कि वो किस वैचारिक धरातल से बात कह रहे हैं. ऐसा कहने से उनका क्या व्यक्तिगत लाभ हो सकता है. 

कांग्रेस और उसके नेता बीजेपी के साथ-साथ संघ पर भी तमाम तहत के आरोप लगाते रहते हैं. वैसे तो कांग्रेस का संघ-विरोधी रुख पंडित नेहरू के समय से ही जगजाहिर है,लेकिन सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने संघ को लेकर एक अलग ही लाइन पकड़ी हुई है. बीजेपी की सरकार बनने के बाद से ही राहुल गांधी कई बार इसे संघ-बीजेपी की सरकार कहते हुए तमाम तरह के आरोप लगाते नजर आए हैं. मां-बेटे के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी में उनके नीचे के नेताओं में होड़ मची रहती है कि कैसे संघ के खिलाफ विष वमन करके सोनिया-राहुल के दरबार में अपने नंबर बढ़ा लिए जाए. 

कर्नाटक सरकार के मंत्री प्रियांक खरगे ने कहा है कि कांग्रेस की सरकार बनने पर आरएसएस पर पाबंदी लगा दी जाएगी.

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कर्नाटक कांग्रेस के संकट में अवसर

बताते चलें कि इस समय कर्नाटक कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर खलबली मची है. इसका फायदा शायद छोटे खरगे लेना चाह रहे हैं और मुख्यमंत्री बनने की आस में उन्होंने ये बयान दे दिया कि वो संघ पर प्रतिबंध लगा देंगे.कांग्रेस पार्टी ने भी इस बयान से दूरी नहीं बनाई है यानी कि माना जाना चाहिए कि उनके हाईकमान की भी यही मंशा रहेगी. 

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प्रियांक खरगे ने जिस पृष्ठभूमि में ये बयान दिया है वो भी देखा जाना चाहिए. संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसाबले ने एक कार्यक्रम में कहा कि भारत के मूल संविधान में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द नहीं थे. उनका कहना था कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करके ये शब्द जोड़े, इसलिए इन पर बहस होनी चाहिए. यहां ये समझना जरूरी है कि बाबा साहब आंबेडकर, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद जैसे कानून के विद्वानों और राष्ट्र निर्माताओं ने अगर करीब तीन साल के चिंतन के बाद ये शब्द नहीं जोड़े थे तो आपातकाल में आनन-फानन में किसी भी तरह के विपक्ष की अनुपस्थिति में ये शब्द क्यों जोड़े गए. इसके पीछे क्या मंशा थी, इससे हमें क्या हासिल हुआ– क्या इन सभी पक्षों पर बहस नहीं होनी चाहिए. आगे ऐसा ना हो इसे आने वाली पीढ़ी को बताने के लिए चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए. 

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कांग्रेस की सरकार में आरएसएस पर 1948, 1975 पर 1992 में पाबंदी लगाई गई थी.

आरएसएस पर कब कब लगा प्रतिबंध

जब इस मुद्दे पर चर्चा की बात कही जा रही है तो प्रियांक  खरगे जैसे नेता आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दे रहे हैं. अपने क्षणिक लाभ के लिए विपक्ष के नेताओं द्वारा ऐसा किया जाना हमारे लोकतंत्र को कमजोर बनाता है. देखने की बात ये भी है कि बात-बात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन) की दुहाई देने वाले और देश में अघोषित आपातकाल का रोना रोने वाले किसी भी विद्वान या कार्यकर्ता ने अबतक प्रियांक खरगे के इस बयान की आलोचना नहीं की है.

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वैसे प्रियांक खरगे और कांग्रेस के दूसरे नेताओं को शायद याद होगा कि जब-जब संघ पर प्रतिबंध लगा है तब-तब संघ और भी मजबूत संगठन और विचार के रूप में उभरकर सामने आया है. पहले पंडित नेहरू ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में, फिर इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल में और 1992 में नरसिंहराव ने विवादित बाबरी ढांचा गिरने के बाद संघ पर बिना प्रमाण और जांच के प्रतिबंध लगाया था. बाद में जब क्रमशः प्रतिबंध हटे तो हमें संघ परिवार का वृहद रूप ही देखने को मिला. 

अंत में, ऐसे में जब प्रियांक  खरगे- संविधान में आपातकाल में आमानुषिक अत्याचारों के बीच, विपक्ष की अनुपस्थिति में, तुष्टीकरण की राजनीति और विदेश में बैठे अपने आकाओं की खुशी के लिए जोड़े गए दो शब्दों पर बहस की बात पर- संघ पर प्रतिबंध की बात कह रहे हैं तो उन्हें ये भी तय करना चाहिए कि वो समतावादी बाबा साहब आंबेडकर के संविधान और विचारों के साथ खड़े होना पसंद करेंगे या अधिनायकवादी इंदिरा गांधी के विचारों के साथ. वो अपनी भूमिका तय करें और आने वाले समय में जनता उनके बारे में तय करेगी.

अस्वीकरण: लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र पढ़ाते हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. 

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