J&K: उमर अब्दुल्ला समेत कई नेताओं ने नजरबंद किए जाने का किया दावा, सोशल मीडिया पर शेयर की पोस्ट

उमर अब्दुल्ला ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, "दिवंगत अरुण जेटली के शब्दों में कहें तो - जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र अनिर्वाचित लोगों का अत्याचार है. इसे आज आप सभी समझ जाएंगे, नई दिल्ली के अनिर्वाचित प्रतिनिधियों ने जम्मू-कश्मीर की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को बंद कर दिया है."

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  • जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने दिल्ली से लौटने के बाद अपने घर में नजरबंदी की स्थिति की जानकारी दी और इसे अनिर्वाचित लोगों का अत्याचार बताया
  • उमर अब्दुल्ला ने अपने घर के बाहर पुलिस बल और बख्तरबंद गाड़ी की तस्वीरें साझा करते हुए प्रशासन की कार्रवाई की आलोचना की
  • 13 जुलाई 1931 को श्रीनगर जेल के बाहर प्रदर्शनकारियों पर महाराजा की सेना ने गोलीबारी की थी, जिसमें 22 लोग मारे गए थे
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जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने आरोप लगाया कि आज शाम दिल्ली से लौटने के तुरंत बाद उन्हें उनके घर में "बंद" कर दिया गया है. मुख्यमंत्री ने अपने घर में "नजरबंदी" को जम्मू-कश्मीर में अनिर्वाचित लोगों का अत्याचार बताया है. उन्होंने एक्स पर अपने घर के बाहर पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी और मुख्य द्वार के बाहर खड़ी एक बख्तरबंद गाड़ी की कई तस्वीरें शेयर की हैं. 

उमर अब्दुल्ला ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, "दिवंगत अरुण जेटली के शब्दों में कहें तो - जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र अनिर्वाचित लोगों का अत्याचार है. इसे आज आप सभी समझ जाएंगे, नई दिल्ली के अनिर्वाचित प्रतिनिधियों ने जम्मू-कश्मीर की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को बंद कर दिया है."

उपराज्यपाल प्रशासन का नाम लिए बिना, उमर अब्दुल्ला ने एक अन्य पोस्ट में कहा कि "अनिर्वाचित सरकार ने निर्वाचित सरकार को बंद कर दिया है." इससे पहले रविवार को उमर अब्दुल्ला सरकार के कई मंत्रियों, विधायकों और सत्तारूढ़ दल व विपक्ष के शीर्ष नेताओं को कश्मीर शहीद दिवस मनाने से रोकने के लिए नजरबंद या हिरासत में रखा गया था. 

रविवार को पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला सहित वरिष्ठ नेताओं को श्रीनगर के कुछ हिस्सों में नज़रबंद और प्रतिबंध लगाए गए थे. इससे पहले, उमर अब्दुल्ला ने प्रतिबंधों और नजरबंदी की कड़ी निंदा की और 1931 में कश्मीर के शहीदों की तुलना "जलियांवाला बाग" के शहीदों से की. 

"13 जुलाई का नरसंहार हमारा जलियांवाला बाग है. जिन लोगों ने अपनी जान कुर्बान की, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कुर्बान की. कश्मीर पर ब्रिटिश हुकूमत का शासन था. यह कितनी शर्म की बात है कि ब्रिटिश शासन के हर रूप के खिलाफ लड़ने वाले सच्चे नायकों को आज सिर्फ इसलिए खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है क्योंकि वे मुसलमान थे. आज हमें उनकी कब्रों पर जाने का मौका भले ही न मिले, लेकिन हम उनके बलिदान को नहीं भूलेंगे," अब्दुल्ला ने X पर एक पोस्ट में कहा.

पीडीपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने X पर एक पोस्ट में कहा, "जिस दिन आप हमारे नायकों को अपना मानेंगे, जैसे कश्मीरियों ने महात्मा गांधी से लेकर भगत सिंह तक, आपके नायकों को अपनाया है, उस दिन, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार कहा था, "दिलों की दूरी" सचमुच खत्म हो जाएगी."

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13 जुलाई, 1931 को क्या हुआ था

13 जुलाई कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन है. 1931 में इसी दिन, कश्मीरियों का एक समूह श्रीनगर जेल के बाहर विरोध प्रदर्शन कर रहा था. वे अब्दुल कादिर के समर्थक थे, जिन्होंने कश्मीरियों से डोगरा शासक हरि सिंह के खिलाफ आवाज उठाने का आह्वान किया था. 13 जुलाई को, प्रदर्शनकारियों का एक बड़ा समूह उस जेल के बाहर इकट्ठा हुआ जहां अब्दुल कादिर को रखा गया था. प्रदर्शनकारियों का सामना करते हुए, महाराजा की सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी, जिसमें 22 लोग मारे गए.

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13 जुलाई की हत्याओं ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया और डोगरा शासक और अंग्रेजों को घाटी में मुस्लिम समुदाय की शिकायतों पर गौर करने के लिए मजबूर होना पड़ा. जम्मू और कश्मीर में पहले विधानसभा चुनाव भी 13 जुलाई की हत्याओं का एक राजनीतिक परिणाम थे. इन चुनावों ने सदियों के निरंकुश शासन के बाद जम्मू और कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत को चिह्नित किया, हालांकि महाराजा के पास प्रमुख मामलों पर व्यापक अधिकार थे.

क्या बदला है

पहले, हर साल 13 जुलाई को शहीदों के कब्रिस्तान में पुलिसकर्मी बंदूकों की सलामी देते थे और पुष्पांजलि अर्पित करते थे. राजनेता 1931 में शहीद हुए लोगों की याद में श्रद्धांजलि अर्पित करते थे और जनसभाएं करते थे. लेकिन 2019 में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त होने और तत्कालीन राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद से, प्रशासन ने शहीदों के कब्रिस्तान में किसी भी समारोह पर रोक लगा दी है.

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2020 से, 13 जुलाई और 5 दिसंबर - जम्मू-कश्मीर के पूर्व 'प्रधानमंत्री' और मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला की जयंती - को आधिकारिक अवकाश के रूप में नहीं रखा गया है. इसके बजाय, अब डोगरा शासक हरि सिंह की जयंती पर जम्मू-कश्मीर में सार्वजनिक अवकाश होता है.

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