अमीरों की जेब में कानून? Pune Porsche से MLA के बेटे तक... देखें वीडियो

सवाल ये नहीं कि कानून बराबर है या नहीं. सवाल ये है कि इसे बराबर कैसे बनाया जाए? सख्ती और पारदर्शिता: पुलिस और अदालतों को हर मामले में एक जैसी सख्ती दिखानी होगी, चाहे सामने कोई नेता हो या आम आदमी.

विज्ञापन
Read Time: 7 mins
फटाफट पढ़ें
Summary is AI-generated, newsroom-reviewed
  • मध्य प्रदेश के विधायक के बेटे ने बिना नंबर प्लेट वाली गाड़ी से पुलिसकर्मियों को घायल किया, फिर भी उसे गिरफ्तार नहीं किया गया, जिससे कानून की असमानता उजागर हुई
  • पुणे में एक अमीर युवक ने शराब पीकर दुर्घटना कर दो लोगों की जान ली, लेकिन नाबालिग होने के कारण उसे मामूली सजा दी गई और जमानत मिली
  • महाराष्ट्र के विधायक संजय गायकवाड़ ने एक कर्मचारी को पीटा, बावजूद इसके कोई कार्रवाई नहीं हुई, जिससे रसूखदारों के प्रति कानून की कमजोरी सामने आई
क्या हमारी AI समरी आपके लिए उपयोगी रही? हमें बताएं।
नई दिल्ली:

शुभांकर मिश्रा स्टोरी -2- कचहरी

कानून अमीर-गरीब सबके लिए बराबर नहीं?

रसूखवाले जुर्म भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती!

MP में विधायक के बेटे ने पुलिसवालों को रौंदा

बिना नम्बर प्लेट की गाड़ी लेकिन गिरफ्तारी नहीं!

पुणे पोर्शे केस में आरोपी को नाबालिग़ माना गया

महाराष्ट्र के मुक्केबाज़ विधायक पर कार्रवाई कब?

क्या हमारे देश में सच में कानून सबके लिए बराबर है? क्या अमीर और गरीब को एक ही नजर से देखा जाता है? क्या नेता और आम आदमी के लिए एक जैसा न्याय होता है? जब कोई आम इंसान छोटी सी गलती करता है, तो उसे तुरंत पकड़ लिया जाता है, लेकिन जब कोई ताकतवर बड़ा गुनाह करता है, तो सिस्टम चुप क्यों हो जाता है? पुलिस और अदालत आम आदमी पर तो खूब सख्ती दिखाती हैं, पर रसूखदार के सामने जैसे कमजोर पड़ जाती हैं. हर थाने, अदालत और दफ्तर के बाहर यही आवाज सुनाई देती है—"हमसे तो जवाब मांगा गया, उसे तो छोड़ दिया गया!" आम लोग घंटों लाइन में लगते हैं, और बड़े लोग बिना रोक-टोक सीधे अंदर चले जाते हैं. किसी गरीब को मामूली जुर्म पर जेल हो जाती है, जबकि ताकतवर आसानी से बेल ले जाता है. नेता के लिए कानून जैसे नरम हो जाता है, लेकिन जनता के लिए वही कानून सख्त रूप ले लेता है. जब कोई बड़ा नाम सामने आता है, तो कानून की धार कुंद क्यों पड़ जाती है? क्या अब इंसाफ आंख पर पट्टी नहीं, बल्कि ऐसा चश्मा लगाए बैठा है जो ताकतवर को देखता है और कमजोर को अनदेखा कर देता है? अगर कानून वाकई सबके लिए बराबर है, तो ये फर्क क्यों दिखता है? क्यों लगता है कि अब कानून सबका नहीं, सिर्फ खास लोगों का हो गया है?

ये सवाल कोई नया नहीं. ये हर उस इंसान की पुकार है, जो सिस्टम की इस नाइंसाफी को देखकर तड़पता है. हमारे देश में कानून की किताब तो सबके लिए एक जैसी है, लेकिन उसे लागू करने का तरीका तय करता है—पैसा, रसूख और रुतबा. जिसके पास ये है, वो कानून को जेब में रखता है, और जिसके पास नहीं, वो बस सजा भुगतता है.

नेता का बेटा और कानून की ढीली रस्सी

पिछले हफ्ते मध्य प्रदेश के आलीराजपुर में एक घटना ने फिर ये सवाल खड़ा किया. कांग्रेस विधायक सेना महेश पटेल के बेटे पुष्पराज पटेल ने दो पुलिसवालों पर अपनी गाड़ी चढ़ा दी. वो गाड़ी, जिसमें नंबर प्लेट तक नहीं थी. पुलिसवाले बुरी तरह घायल हो गए, लेकिन क्या हुआ? क्या उस बेटे को गिरफ्तार किया गया? नहीं! उल्टा, विधायक पिता ने इसे “छोटी-मोटी” घटना कहकर टाल दिया. बोले, “जानबूझकर तो नहीं किया!” अरे, सोचिए! अगर कोई आम आदमी होता, तो क्या उसे ये कहकर छोड़ दिया जाता? उसे तो उसी वक्त हथकड़ी लगाकर थाने ले जाया जाता. लेकिन यहां तो “नेताजी का बेटा” है, फिर कानून को क्या पड़ी? और ये कोई पहली बार नहीं हुआ. इसी लड़के पर कुछ दिन पहले एक लड़की को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगा था. तब भी वो बच निकला और अब पुलिसवालों को कुचलने के बाद भी खुला घूम रहा है. ये है हमारे कानून की हकीकत—जो जितना बड़ा, कानून उतना छोटा.

Advertisement

पुणे का पोर्शे कांड 

पैसे की ताकत याद कीजिए पुणे का वो सड़क हादसा. 19 मई 2024 को एक अमीरज़ादे ने अपनी पोर्शे कार से दो बाइक सवारों की जान ले ली. आरोप है कि वो शराब के नशे में धुत था लेकिन क्या हुआ? अदालत ने उसे नाबालिग मानकर सिर्फ़ एक निबंध लिखने की सजा दी और जमानत दे दी. जब हंगामा मचा, तो पता चला कि पैसे की ताकत ने सबूतों के साथ छेड़छाड़ करवाई. पुलिस अफसरों और डॉक्टरों की जेबें गर्म हुईं. बाद में जमानत रद्द हुई, पिता को भी गिरफ्तार किया गया, लेकिन अब फिर खबर है कि अदालत उसे नाबालिग मानकर केस चलाएगी. यानी, शायद कोई सख्त सजा नहीं. सोचिए, एक लड़का, जो शराब पीकर गाड़ी चलाता है, दो लोगों की जान लेता है, उसे “नाबालिग” कहकर छोड़ दिया जाता है. ये कैसा कानून है? अगर ये नाइंसाफी नहीं, तो क्या है? हम सुनते हैं कि कानून के हाथ लंबे हैं, लेकिन ये लंबे हाथ ताकतवरों की गर्दन तक क्यों नहीं पहुंचते?

Advertisement

शिंदे का विधायक और खुली गुंडागर्दी

महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की पार्टी के विधायक संजय गायकवाड़ का मामला भी कम नहीं. इन्होंने एक कैंटीन कर्मचारी को बासी खाना देने की बात पर पीट दिया. लेकिन क्या हुआ? कोई गिरफ्तारी नहीं. उल्टा, ये विधायक खुलेआम कहता है कि वो फिर ऐसी मारपीट कर सकता है. विधानसभा में इनके खिलाफ प्रदर्शन हुआ, लेकिन सवाल वही—कानून इनके सामने इतना लाचार क्यों? और सिर्फ़ ये ही नहीं. राज ठाकरे की पार्टी के नेता राहित शेख का वीडियो याद है? एक महिला को हिंदी बोलने पर धमकाया, बदसलूकी की. लेकिन वो भी खुला घूम रहा है. ऐसे सैकड़ों मामले हैं, जहां रसूखदार कानून का मज़ाक उड़ाते हैं, और कानून चुपचाप देखता रहता है.

Advertisement

सुप्रीम कोर्ट की सच्चाई

ये हम नहीं कह रहे, हमारे देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी इस सच्चाई को स्वीकार किया है. 2020 में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज दीपक गुप्ता ने कहा था, “हमारा कानून और सिस्टम अमीरों और ताकतवरों के पक्ष में झुका हुआ है.” उन्होंने ये भी बताया कि अमीर लोग मुकदमों को लंबा खींच सकते हैं, बार-बार ऊपरी अदालतों में जा सकते हैं, लेकिन गरीब के पास न पैसे हैं, न पहुंच. नतीजा? गरीब के केस सालों लटके रहते हैं, और अमीर जमानत पर मज़े करता है.

Advertisement

1999 का BMW कांड

इतिहास खुद को दोहराता है. 1999 में दिल्ली में एक तेज़ रफ्तार BMW ने शराब के नशे में पुलिसवालों समेत 6 लोगों को कुचल दिया था. कार में बड़े-बड़े उद्योगपतियों और अधिकारियों के बेटे थे. क्या हुआ? गवाहों को खरीदा गया. सरकारी वकील ने 5 करोड़ की रिश्वत की पेशकश की. एक गवाह ने तो अदालत में कह दिया कि पुलिसवालों पर BMW नहीं, ट्रक चढ़ा था! बाद में मीडिया के दबाव और हंगामे के बाद दोषियों को सजा मिली, लेकिन तब तक कितना वक्त बीत गया?ऐसे न जाने कितने मामले हैं. हर बार वही कहानी—पैसा, रसूख और रुतबा कानून को झुका देता है.

कानून की किताब और हकीकत का फर्ककानून की किताब में तो लिखा है कि सब बराबर हैं. लेकिन हकीकत में? जिसके पास पैसा और पावर है, वो कानून को नचाता है. पुलिस, अदालत, सिस्टम—सब ताकतवरों के सामने झुक जाते हैं. एक गरीब की छोटी-सी चोरी पर तुरंत जेल, लेकिन बड़े-बड़े घोटाले करने वाले खुलेआम घूमते हैं. एक आम आदमी को थाने में बिना वजह पीटा जाता है, लेकिन रसूखदार को सलाम ठोका जाता है. क्या ये बराबरी है? क्या यही वो “न्याय” है, जिसका वादा संविधान करता है? नहीं! ये नाइंसाफी है, और इसे स्वीकार करने का वक्त आ गया है.

क्या है रास्ता?

सवाल ये नहीं कि कानून बराबर है या नहीं. सवाल ये है कि इसे बराबर कैसे बनाया जाए? सख्ती और पारदर्शिता: पुलिस और अदालतों को हर मामले में एक जैसी सख्ती दिखानी होगी, चाहे सामने कोई नेता हो या आम आदमी.

तेज़ न्याय: मुकदमों को सालों तक लटकने से रोकना होगा. गरीब इंसान इंसाफ के लिए भटकता रहता है, क्योंकि उसके पास वकीलों की फीस और कोर्ट की चक्कर काटने का वक्त नहीं.  

सिस्टम में सुधार: पुलिस, जज, और सरकारी अफसरों की जवाबदेही तय होनी चाहिए. रिश्वत और रसूख का खेल बंद होना चाहिए.

जागरूकता: आम लोगों को अपने हक़ और कानून के बारे में जागरूक करना होगा, ताकि वो सिस्टम के सामने दबे नहीं.

आखिरी बात

कानून की किताब में लिखा है कि सबके लिए इंसाफ बराबर है लेकिन हकीकत में, कानून की ताकत उसकी जेब और रसूख से तय होती है. जब तक ये नाइंसाफी चलेगी, तब तक हर चौराहे पर यही सवाल गूंजेगा—“मेरे साथ तो सख्ती हुई, लेकिन उसे क्यों छोड़ दिया गया?”  वक्त आ गया है कि हम इस सवाल का जवाब मांगें. वक्त आ गया है कि कानून सिर्फ़ किताबों में नहीं, हकीकत में भी अंधा हो. ताकतवर हो या कमज़ोर, अमीर हो या गरीब—कानून की लाठी सबके लिए एक जैसी चले क्योंकि अगर कानून बराबर नहीं, तो फिर इंसाफ़ का मतलब क्या?  क्या आप भी इस नाइंसाफी को देखकर गुस्सा महसूस करते हैं? तो आवाज़ उठाइए, क्योंकि सच्चाई यही है- जब तक हम चुप रहेंगे, कानून ताकतवरों की जेब में ही रहेगा.

Topics mentioned in this article