बिहार में हार कांग्रेस या राहुल गांधी के लिए सबक या मौका?

लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने सहयोगियों को खूब तवज्जो दी और इसका फायदा भी उसे मिला. दिल्ली को छोड़कर हर जगह गठबंधन का लाभ कांग्रेस को मिला. आखिर उसके बाद क्या हुआ...

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  • बिहार चुनाव के बाद कांग्रेस और उसके सहयोगियों के बीच गठबंधन की रणनीति और सीट वितरण को लेकर गंभीर मतभेद उभरे
  • JMM ने बिहार में गठबंधन से किनारा कर लिया और क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ अनुचित व्यवहार का आरोप लगाया
  • सपा ने गठबंधन में सुधार की जरूरत जताई है और चुनावी प्रक्रियाओं में प्रशासनिक हस्तक्षेप की आलोचना की है
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बिहार में हार कांग्रेस या राहुल गांधी के लिए क्या कहती है? कांग्रेस क्या सब जानते-समझते हुए प्लानिंग के साथ कर रही है या वो गलतियां किए जा रही है? क्या वो राष्ट्रीय स्तर पर अपने को बचाए रखने की कोशिशों को त्यागकर राज्यवार खुद को मजबूत करने की कोशिश कर रही है या इस चक्कर में अपनी रही-सही जमीन भी छोड़ रही है? इन सभी सवालों को तलाशने से पहले मौजूदा स्थिति को जान लेते हैं कि बिहार चुनाव के रिजल्ट के बाद कांग्रेस और उसके सहयोगियों के बीच क्या-क्या हुआ...   

झामुमो ने पहली बार दिया झटका

कांग्रेस और उसके सहयोगियों में पहली बड़ी दरार बिहार में मतदान से पहले ही उभर आई, जब झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) ने बिहार में गठबंधन के सीट-बंटवारे से किनारा कर लिया. पार्टी ने वरिष्ठ सहयोगियों पर बातचीत में उन्हें दरकिनार करने और पिछली बातचीत के दौरान किए गए वादों को पूरा न करने का आरोप लगाया. झामुमो नेताओं ने तब कहा कि बिहार प्रकरण एक बड़ी समस्या को दर्शाता है कि क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ समान हितधारकों की बजाय "कनिष्ठ सहयोगी" जैसा व्यवहार किया जा रहा है. पार्टी अब अपने राज्य झारखंड सहित संयुक्त मंचों पर अपनी भागीदारी का पुनर्मूल्यांकन कर रही है.

शिवसेना (UBT) ने निशाना साधा

शिवसेना (यूबीटी) ने बिहार के नतीजों पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे विपक्ष के लिए एक चेतावनी बताया. वरिष्ठ नेताओं ने न केवल चुनावी मशीनरी पर, बल्कि इंडिया अलायंस के आंतरिक समन्वय पर भी सवाल उठाए. पार्टी के कुछ नेताओं ने इस ओर इशारा किया है कि राज्य स्तरीय कांग्रेस इकाइयों द्वारा लिए गए एकतरफ़ा फ़ैसलों - जिनमें कई सीटों पर अकेले चुनाव लड़ना भी शामिल है - ने सामूहिक रणनीति को कमज़ोर किया है. यूबीटी नेतृत्व का मानना ​​है कि अगर बड़ी पार्टियां उच्च-दांव वाले राज्यों में महत्वपूर्ण फ़ैसलों पर सहयोगियों से परामर्श नहीं करतीं, तो इंडिया अलायंस काम नहीं कर सकता.

इसके अलावा शिवसेना (UBT) प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने चचेरे भाई और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) के नेता राज ठाकरे के साथ गठबंधन करके बीएमसी चुनाव लड़ने के पक्ष में हैं, लेकिन कांग्रेस ने साफ तौर पर इनकार कर दिया है. 

कांग्रेस का कहना है कि राज ठाकरे के साथ गठजोड़ उनकी पारंपरिक वोट बैंक यानी उत्तर भारतीयों और अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाएगा. उद्धव ठाकरे कांग्रेस को मनाने के लिए दिल्ली में हाईकमान के संपर्क में हैं और तर्क दे रहे हैं कि विपक्ष का बंटवारा बीजेपी को फायदा पहुंचाएगा, लेकिन फिलहाल MVA का भविष्य अनिश्चित नजर आ रहा है.

सपा ने दिखाए तेवर

समाजवादी पार्टी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि गठबंधन में गंभीर सुधार की ज़रूरत है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने बिहार में प्रक्रियागत अनियमितताओं की ओर इशारा किया है और चेतावनी दी है कि इसी तरह के प्रशासनिक हस्तक्षेपों को भविष्य के चुनावों को पटरी से उतारने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.

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Photo Credit: NDTV Reporter

विपक्ष के व्यापक दायरे में, कुछ लोगों ने एक अधिक डीसेंट्रलाइज्ड नेतृत्व मॉडल की वकालत शुरू कर दी है, जहां क्षेत्रीय दलों खासकर जिनकी राज्यों में मज़बूत पकड़ है, वहां राष्ट्रीय रणनीति में ज़्यादा भागीदारी हो. सपा इस चर्चा में एक प्रमुख प्रेरक के रूप में उभर रही है.

'आप' की स्वतंत्र नीति 

आम आदमी पार्टी के बिहार में अलग से चुनाव लड़ने का निर्णय इंडिया अलायंस की समस्या बढ़ा रहा है. आप नेताओं का तर्क है कि राज्य-स्तरीय विस्तार को एक ढीले-ढाले राष्ट्रीय मंच के लिए त्यागा नहीं जा सकता. पार्टी की स्वायत्तता पर ज़ोर को एक ऐसे ढांचे के रूप में देखा जा रहा है, जिसका अनुसरण अन्य क्षेत्रीय सहयोगी भी कर सकते हैं, यदि इंडिया अलायंस समन्वय और सीटों के बंटवारे को लेकर लंबे समय से चली आ रही चिंताओं का समाधान नहीं करता है.

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ममता को आगे कर रही टीएमसी

टीएमसी और कांग्रेस का पश्चिम बंगाल में तो टकराव जगजाहिर है, लेकिन अब राष्ट्रीय स्तर पर भी टीएमसी कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाने लगी है. उसका कहना है कि अगर ममता बनर्जी इंडिया अलायंस की कमान संभालें तो रिजल्ट ज्यादा बेहतर देखने को मिलेगा. सपा और आरजेडी टीएमसी का अक्सर समर्थन करते रहते हैं, जो कांग्रेस की टेंशन को और बढ़ा देता है.

कांग्रेस क्या सोच रही

लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने सहयोगियों को खूब तवज्जो दी और इसका फायदा भी उसे मिला. दिल्ली को छोड़कर हर जगह गठबंधन का लाभ कांग्रेस को मिला. मगर ऐसा लगता है कि कांग्रेस को ये एहसास हो गया कि बगैर राज्यों में मजबूत हुए वो केंद्र में सहयोगियों के बल पर सरकार नहीं बना सकती. महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और फिर बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के अगर चुनाव लड़ने के तरीके पर गौर करें तो देखेंगे कि वो सहयोगी या तो चाह नहीं रही या मजबूरी में ले भी रही है तो उनको उतना सहयोग नहीं कर रही है. हरियाणा और दिल्ली में आप से आखिरी समय तक गठबंधन नहीं हो पाया. कांग्रेस हरियाणा में ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थी तो आप दिल्ली में.

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नतीजा एक के बाद एक वो चुनाव हारती गई. बिहार में भी यही दिखा. इस हार का सीधा नुकसान तो कांग्रेस को हुआ है, लेकिन एक फायदा भी हुआ है. वो बीजेपी को टक्कर देने वाली मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर अपना रुतबा वापस पा रही है. कम से कम चर्चाओं में तो ऐसा है ही. एजेंडा अब कांग्रेस सेट करती दिख रही है. क्षेत्रीय दलों को छोड़कर मतदाता उसकी तरफ देख भी रहा है. मगर कमजोर संगठन के कारण ये वोटों में तब्दील नहीं हो पा रहा. अगर कांग्रेस राज्यों में अपने संगठन को बूथ लेवल तक मजबूत और अनुशासित कर लेती है तो निश्चित तरीके से उसे अगले लोकसभा चुनाव में फायदा होगा, मगर अगर वो ऐसा नहीं कर पाती तो फिर 2014 के बाद से चल रहा हार का सिलसिला और लंबा चलने वाला है.  जाहिर है भारत पर सबसे लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी ये सब अच्छे से समझते हुए ही निर्णय ले रही होगी. 

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