100 साल की उम्र, आंखों पर चश्मा नहीं… हाथों में किताब,बगहा के हरिहर चौधरी बने ज्ञान की मिसाल

हरिहर चौधरी अपनी सौ साल की उम्र में भी अध्ययन, आत्मअनुशासन और समाजसेवा के जरिये युवा पीढ़ी को दिशा दे रहे हैं. उनके जीवन ने साबित किया कि ज्ञान और जज़्बा कभी बूढ़ा नहीं होता.

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  • हरिहर चौधरी सौ वर्ष की उम्र में भी हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू भाषा अभी भी पढ़ते हैं
  • उनका मानना है कि भाषा किसी और समुदाय की नहीं होती है उसका अध्ययन कोई भी कर सकता है
  • हरिहर चौधरी के घर में एक पुराना लोहे का बक्सा है, जिसमें विभिन्न विषयों की पुस्तकें हैं
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अगर हौसलों का दीया भीतर जलता रहे, तो उम्र केवल कैलेंडर पर दर्ज एक अंक बनकर रह जाती है. नेपाल और उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे पश्चिम चंपारण के बगहा अनुमंडल में रहने वाले हरिहर चौधरी इसकी जीवंत मिसाल हैं. सौ वर्ष की आयु में भी उनका दैनिक जीवन बताता है कि सीखना न उम्र जानता है, न समय. बगहा-2 प्रखंड के बरवल नरवल पंचायत स्थित गोईती गांव में रहने वाले हरिहर चौधरी आज अपने इलाके में प्रेरणा का स्रोत बन चुके हैं. शरीर उम्र के बोझ से थोड़ा झुक गया है, लेकिन उनके इरादे आज भी आसमान छूते हैं. उनकी स्मरण शक्ति, विचारों की तेज़ी और सीखने की आग ऐसे चमकती है कि युवा भी हैरान रह जाएं. बिना चश्मा लगाए वे रोज़ हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू भाषा के पाठ पढ़ते हैं.

हरिहर चौधरी ने भाषा और समुदायों के बीच खींची गई अदृश्य दीवारों को तोड़ दिया है. उनका मानना है कि “शब्द किसी मजहब के नहीं होते, भाषा सबकी होती है.” इसी सोच के कारण पंचायत की मुखिया सकीना खातून से लेकर गांव का हर व्यक्ति उन्हें सम्मान की निगाह से देखता है. लोग उन्हें प्यार से ‘चलता-फिरता विश्वविद्यालय' कहते हैं.

उनके घर के बाहर रखा एक पुराना लोहे का बक्शा हर आगंतुक का ध्यान खींच लेता है. यही उनकी निजी लाइब्रेरी है, जहां अलग-अलग विषयों की किताबें और कई भाषाओं की डिक्शनरी करीने से सजी हैं. मैट्रिक तक औपचारिक शिक्षा पाने के बावजूद उन्होंने आत्मअध्ययन, निरंतर अभ्यास और अनुशासन से खुद को ज्ञान के ऊंचे पायदान पर पहुंचाया है.

हरिहर चौधरी केवल खुद नहीं पढ़ते वे गांव के युवाओं और बच्चों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं. स्कूल छोड़ चुके बच्चों और नशे की ओर भटक रहे युवाओं को वे समझाते हैं कि शिक्षा ही वह ताकत है, जो जीवन को संभालती है और भविष्य गढ़ती है.

दुनिया के प्रति उनकी सोच सिर्फ पढ़ाई तक सीमित नहीं. वे आजादी के बाद से हर चुनाव में वोट डालते आए हैं. उम्र के कारण दिव्यांगता नजदीक होने के बावजूद उन्होंने वृद्धा पेंशन के लिए आवेदन नहीं किया. वजह यह कि उन्हें सरकारी दफ्तरों के चक्कर मंजूर नहीं. इसके बजाय उन्होंने अपनी छोटी किराना दुकान को ही जीवन की गाड़ी बनाने का रास्ता चुना. इसी दुकान ने आज चार पीढ़ियों को एक साथ जोड़ रखा है. मेहनत, आत्मसम्मान और परिवार की एकता के साथ.

 हरिहर चौधरी न सिर्फ गोईती गांव, बल्कि पूरे बगहा और पश्चिम चंपारण के लिए उम्मीद का प्रतीक हैं. वे बताते हैं कि सीखने की लौ बुझने न दी जाए, तो जीवन हर उम्र में नया अध्याय लिख देता है.

पश्चिम चंपारण से - बिंदेश्वर कुमार की रिपोर्ट

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