"यूपी में दमनकारी कार्रवाई और मूल अधिकारों के हनन पर संज्ञान लें": पूर्व जजों-वकीलों ने SC को लिखा पत्र

चिट्ठी में अदालत से पुलिस व प्रशासन की प्रताड़ना और मौलिक अधिकारों का हनन करने पर स्वत: संज्ञान लेने की गुहार लगाई गई है.

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प्रतीकात्‍मक फोटो
नई दिल्‍ली:

यूपी में पुलिस और प्रशासन पर दमनकारी कार्रवाई का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के पूर्व जजों व वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखी है. चिट्ठी में अदालत से पुलिस व प्रशासन की प्रताड़ना और मौलिक अधिकारों का हनन करने पर स्वत: संज्ञान लेने की गुहार लगाई गई है. पत्र याचिका में सुप्रीम कोर्ट से उत्तर प्रदेश में नागरिकों पर राज्य के अधिकारियों द्वारा हाल ही में हुई हिंसा और दमन की घटनाओं का स्वत: संज्ञान लेने का आग्रह किया गया है. इसमें कहा गया है कि कुछ भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा पैगंबर मोहम्मद पर की गई हालिया टिप्पणी  से  देश के कई हिस्सों में और विशेष रूप से यूपी में विरोध प्रदर्शन हुए हैं. प्रदर्शनकारियों को सुनने और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का मौका देने के बजाय, यूपी राज्य प्रशासन ने ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई करने की मंज़ूरी दे दी है.

प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कथित तौर पर आधिकारिक तौर पर अधिकारियों को दोषियों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई करने के लिए प्रोत्साहित किया है जो एक उदाहरण स्थापित करे ताकि कोई भी ऐसा अपराध न करे या भविष्य में कानून अपने हाथ में न ले. उन्होंने आगे निर्देश दिया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980, और उत्तर प्रदेश गैंगस्टर और असामाजिक गतिविधियों  (रोकथाम) अधिनियम, 1986, को  दोषी पाए जाने वालों के खिलाफ लागू किया जाए. इन्हीं टिप्पणियों ने पुलिस को प्रदर्शनकारियों को बेरहमी से और गैरकानूनी तरीके से प्रताड़ित करने के लिए प्रोत्साहित किया है. इसके तहत यूपी पुलिस ने 300 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया है और विरोध कर रहे नागरिकों के खिलाफ FIR दर्ज की है.

लेटर में कहा गया है कि पुलिस हिरासत में युवक को लाठियों से पीटा जा रहा है, जिसके वीडियो भी सार्वजनिक हुए हैं. प्रदर्शनकारियों के घरों-दुकानोंको बिना किसी नोटिस या कार्रवाई के ध्वस्त किया जा रहा है. अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय का पुलिस द्वारा पीछा किया जा रहा है. सत्ताधारी प्रशासन द्वारा इस तरह की क्रूर कार्रवाई कानून के शासन का अस्वीकार्य टूटना है और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन है. ये संविधान और राज्य द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का मजाक बनाता है. पुलिस और अधिकारियों ने जिस समन्वित तरीके से कार्रवाई की है, वह स्पष्ट निष्कर्ष है कि विध्वंस सामूहिक अतिरिक्त न्यायिक दंड का एक रूप है, जो राज्य की नीति के कारण अवैध है. ऐसे नाजुक समय में न्यायपालिका की क्षमता की परीक्षा होती है. हाल ही में, न्यायपालिका ने ऐसी चुनौतियों का सामना किया है और लोगों के अधिकारों के संरक्षक के रूप में विशिष्ट रूप से उभरी है. हाल के कुछ उदाहरण सुप्रीम कोर्ट  द्वारा की गई स्वत: संज्ञान लेकर प्रवासी श्रमिकों के मामले में कार्यवाही  और पेगासस मामले में आदेश जारी करना है. इसी भावना से, और संविधान के संरक्षक की भूमिका में, हम सुप्रीम कोर्ट से तत्काल कार्रवाई करने का आग्रह करते हैं. उत्तर प्रदेश में बिगड़ती कानून और व्यवस्था की स्थिति को काबू करने के लिए स्वत: संज्ञान कार्रवाई हो. विशेष रूप से पुलिस और राज्य के अधिकारियों की मनमानी और नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर क्रूर दमन को रोका जाए. हम आशा और विश्वास करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट  इस अवसर पर उठ खड़ा होगाऔर नागरिकों और संविधान को इस महत्वपूर्ण मोड़ पर निराश नहीं होने देगा.  

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पत्र लिखने वालों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी, जस्टिस वी गोपाला गौडा, जस्टिस एके गांगुली, दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस एपी शाह, मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस के चंद्रू, कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मोहम्मद अनवर के अलावा सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील शांति भूषण, इंदिरा जयसिंह, चंदर उदय सिंह, आनंद ग्रोवर, मद्रास हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील श्रीराम पंचू और सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण शामिल हैं. 

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