सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (Justice DY Chandrachud) ने सामाजिक असमानता और जमीनी हकीकत के बीच अंतर को दूर करने पर टिप्पणी करते हुए शनिवार को कहा कि डाबर (Dabur Ad) को लोगों को असहिष्णुता के कारण करवा चौथ पर समलैंगिक दंपति को दिखाने वाला विज्ञापन वापस लेना पड़ा. महिलाओं के लिए कानूनी जागरूकता पर आधारित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि वास्तविक जीवन की स्थितियां हैं जो दर्शाती हैं कि कानून के आदर्शों और आज समाज की वास्तविक स्थिति के बीच बहुत अंतर है. बस दो दिन पहले, आप सभी को इस विज्ञापन के बारे में पता होगा, जिसे एक कंपनी को वापस लेना पड़ा.
दरअसल, डाबर इंडिया लिमिटेड के उत्पाद फेम क्रीम ब्लीच के विज्ञापन में कंपनी ने एक समलैंगिक महिला जोड़े को करवा चौथ मनाते हुए और एक-दूसरे को छलनी से देखते हुए दिखाया गया था. कई लोगों ने इसकी प्रशंसा भी की, लेकिन एक वर्ग ने इसकी कड़ी निंदा करते हुए ट्रोलिंग की. विज्ञापन आते ही मध्य प्रदेश के गृह मंत्री ने चेतावनी दे दी कि विज्ञापन वापस नहीं लिया गया तो नाराज जनता डाबर के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराएगी और कम्पनी को जनता और कानूनी मुश्किल का सामना करना होगा. इसके बाद कम्पनी ने विज्ञापन वापस लेकर बिना शर्त माफी मांगी कि हमारा मकसद किसी के जज्बात को ठेस पहुंचाने का नहीं था. किसी की भावनाएं आहत हुई हो तो हमें खेद है.
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जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि महिलाओं की सिर्फ महिला के तौर पर एक पहचान नहीं है. अनुसूचित जाति या फिर ट्रांसजेंडर महिला को कई तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है. कोर्ट के कई फैसलों में भी ये बातें साफ साफ उजागर होती हैं. भेदभाव के ये मानदंड कई हैं. जाति, धर्म, दिव्यंगता या फिर लैंगिक आधार पर भेदभाव होता है. महिलाओं के अधिकारों को ज्यादा व्यापक और मजबूती देने के लिए कई कानून बनाए गए हैं. लेकिन कानून और जनता समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति दोनों में अंतर है. अब डाबर का वो विज्ञापन आते ही सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ टिप्पणियों की बाढ़ आ गई.
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नेशनल लीगल सर्विसेज ऑथोरिटी ऑफ इंडिया और राष्ट्रीय महिला आयोग के इस साझा कार्यक्रम में जस्टिस चंद्रचूड़ ने दो टूक कहा कि कानून के आदर्श प्रावधानों और समाज की सच्चाइयों में काफी अंतर दिखता है, तभी तो जनहित का हवाला देते हुए उस विज्ञापन को वापस लेने के लिए कंपनी को मजबूर होना पड़ा. हमारा संविधान एक परिवर्तनकारी दस्तावेज है, जो पितृसत्ता में निहित संरचनात्मक असमानताओं को दूर करने का प्रयास करता है. यह महिलाओं के भौतिक अधिकारों को सुरक्षित करने, उनकी गरिमा और समानता की सार्वजनिक पुष्टि करने का एक शक्तिशाली उपकरण बन गया है. महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों को पूरा करने के लक्ष्य को पाने के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम अधिनियम जैसे कानून बनाए गए हैं. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के रूप में अपने जीवन में हम हर दिन महिलाओं के खिलाफ अन्याय को देखते हैं. वास्तविक जीवन की स्थितियां दिखाती हैं कि कानून के आदर्शों और समाज की वास्तविक स्थिति के बीच विशाल अंतर है.
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