केवल शासक बदलने का अधिकार निरंकुशता के खिलाफ गारंटी नहीं हो सकता : CJI

सीजेआई ने जोर देकर कहा कि आलोचना और विरोध की आवाज लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभिन्‍न अंग है और एक संप्रभु द्वारा समर्थित किसी भी कानून को न्याय के सिद्धांतों द्वारा संयमित किया जाना चाहिए

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सीजेआई ने कहा, आलोचना और विरोध की आवाज लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभिन्‍न अंग है
नई दिल्‍ली:

देश के प्रधान न्‍यायाधीश (CJI) एनवी रमना (Chief Justice of India NV Ramana) ने कहा है कि शासक बदलने के लिए हर कुछ वर्ष में होने वाले चुनाव निर्वाचित लोगों की निरंकुशता के खिलाफ गारंटी नहीं हो सकते. उन्‍होंने यह विचार नई दिल्‍ली में बुधवार को एक कार्यक्रम के दौरान व्‍यक्‍त किए. सीजेआई ने जोर देकर कहा कि आलोचना और विरोध की आवाज लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अभिन्‍न अंग है और एक संप्रभु द्वारा समर्थित किसी भी कानून को न्याय के सिद्धांतों द्वारा संयमित किया जाना चाहिए

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जस्टिस पीडी देसाई मेमोरियल व्‍याख्‍यानमाला में ऑनलाइन भाग लेते हुए सीजेआई ने बुधवार को कहा, 'यह हमेशा माना गया है कि हर कुछ वर्षों में शासक को बदलने का अधिकार अपने आप में  निरंकुशता के खिलाफ गारंटी नहीं हो सकता. 'CJI ने कहा कि यह विचार कि लोग परम संप्रभु हैं, मानवीय गरिमा और स्वायत्तता की धारणाओं में पाए जाते हैं और एक कार्यशील लोकतंत्र के  तर्कसंगत सार्वजनिक संवाद लिए महत्वपूर्ण है. उन्‍होंने कहा कि ब्रिटिश शासन "कानून के शासन" के बजाय "कानून से शासन" के लिए प्रसिद्ध था. कानून में न्याय और समानता के विचारों को शामिल किया जाना चाहिए. प्रसिद्ध विद्वानों ने इसलिए तर्क दिया है कि किसी कानून को वास्तव में 'कानून' के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है जब तक कि वह अपने भीतर न्याय और समानता के आदर्शों को आत्मसात नहीं करता है
. एक 'अन्यायपूर्ण कानून' में 'न्यायपूर्ण कानून' के समान नैतिक वैधता नहीं हो सकती है

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CJI रमना ने कहा कि अब तक हुए सत्रह राष्ट्रीय आम चुनावों में, लोगों ने सत्ताधारी दल या पार्टियों के संयोजन को आठ बार बदला है जो आम चुनावों की संख्या का लगभग 50 प्रतिशत है. बड़े पैमाने पर असमानताओं, अशिक्षा, पिछड़ेपन, गरीबी और कथित अज्ञानता के बावजूद, स्वतंत्र भारत के लोगों ने खुद को बुद्धिमान  सिद्ध किया है.जनता ने अपने कर्तव्यों का बखूबी निर्वहन किया है. अब, उन लोगों की बारी है जो राज्य के प्रमुख अंगों का संचालन कर रहे हैं. यह विचार करने के लिए कि क्या वे संवैधानिक जनादेश पर खरा उतर रहे हैं, न्यायपालिका प्राथमिक अंग है जिसे यह सुनिश्चित करने का काम सौंपा गया है कि जो कानून बनाए गए हैं वे संविधान के अनुरूप हों. कानूनों की न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका के मुख्य कार्यों में से एक है. सर्वोच्च न्यायालय ने इस कार्य को संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा माना है जिसका अर्थ है कि संसद इसे कम नहीं कर सकती है.

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