Chhattisgarh Bastar Tradition: छत्तीसगढ़ का आदिवासी बहुल बस्तर क्षेत्र अक्सर नक्सलियों और उनकी अदालतों के कारण सुर्खियों में रहता है. इन अदालतों में माओवादी अपने खिलाफ काम करने वालों को सजा देते हैं. हालांकि, बस्तर में एक और अदालत है, जिसकी बैठक साल में एक बार होती है. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 250 किलोमीटर दूर बस्तर संभाग के कोंडागांव जिले के केशकाल में एक अनोखी अदालत लगती है. बस्तर क्षेत्र में आदिवासियों की आबादी 70 प्रतिशत है. यहां गोंड, मारिया, भतरा, हल्बा और धुरवा जैसी जनजातियां रहती हैं. इनकी परंपराएं अभी भी दुनिया के लिए अनसुनी हैं, लेकिन बस्तर की समृद्ध विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. इन्हीं में से एक जन अदालत है. जिसका अर्थ है लोगों की अदालत. जो हर साल मानसून के दौरान भादो यात्रा उत्सव के दौरान भंगाराम देवी मंदिर में लगती है.
भगवान को क्यों देते हैं सजा?
यहां की जनजातियां अपने देवताओं पर असीम आस्था रखती हैं. सदियों से, किसी भी प्राकृतिक विपदा, बीमारी या फसल खराब होने पर लोग ग्राम देवताओं की शरण में जाते हैं. हालांकि, बस्तर की इस परंपरा का एक और अनूठा पहलू है कि अगर उनके अनुसार देवी-देवता उनकी मदद नहीं करते, तो यहां की जन अदालत उन्हें भी दोषी ठहरा देती है. बस्तर के केशकाल में हर साल भादों महीने में जोरता उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यहां की प्रमुख देवी भंगाराम देवी हैं. वह नौ परगना के 55 गांवों के हजारों देवी-देवताओं की प्रमुख आराध्य हैं. हर साल भादों के अंतिम सप्ताह में सभी देवी-देवताओं को यहां उपस्थिति दर्ज करानी होती है.
सजा में क्या होता है?
तीन दिवसीय उत्सव के दौरान मंदिर की देवता भंगाराम देवी उन मुकदमों की अध्यक्षता करती हैं, जिनमें देवताओं पर आरोप लगाया जाता है और मुर्गियां इसमें गवाही देती हैं. शिकायतकर्ता ग्रामीण होते हैं और उनकी शिकायतें खराब फसल से लेकर लंबी बीमारी तक किसी भी काम में प्रार्थना करने के बाद भी भगवान की ओर से मदद नहीं करने की हो सकती है. इन शिकायतों की सजा कठोर हैं. दोषी पाए गए भगवान को निर्वासन की सजा दी जाती है. उनकी मूर्तियों को मंदिर के अंदर से निकालकर मंदिर के पिछवाड़े में रख दिए जाते हैं. कभी-कभी, यह सजा जीवन भर के लिए होती है या जब तक वे अपना रास्ता नहीं सुधार लेते और मंदिर में अपनी सीट वापस नहीं पा लेते. सुनवाई के दौरान देवताओं को देखने के लिए लगभग 240 गांवों के लोग इकट्ठा होते हैं. उनके लिए भोज का आयोजन भी किया जाता है.
मुक्ति का एक मौका
भंगाराम देवी मंदिर में मुकदमे सिर्फ सजा के लिए नहीं हैं, बल्कि सुधार के लिए भी है. देवताओं को निर्वासन से मुक्ति का अवसर भी दिया जाता है. यदि वे अपने व्यवहार में सुधार करते हैं और लोगों की प्रार्थनाओं का उत्तर देते हैं, तो उन्हें उनकी मंदिर की सीट वापस मिल जाती है. यदि नहीं, तो निर्वासन जारी रहेगा. इतिहासकार घनश्याम सिंह नाग कहते हैं, "यह परंपरा इस विचार का प्रतिनिधित्व करती है कि देवताओं और मनुष्यों के बीच संबंध पारस्परिक हैं. देवता लोगों की रक्षा करते हैं और बदले में, उनकी पूजा की जाती है. यदि यह संतुलन गड़बड़ा जाता है, तो देवताओं का भी न्याय किया जाता है." यदि लोग मानते हैं कि जरूरत के समय उनके देवताओं ने उनकी मदद नहीं की, तो वे दैवीय अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं. इसमें बीमारी का प्रकोप, प्राकृतिक आपदाएं या खराब फसल या अन्य कोई भी कारण शामिल हो सकते हैं. फिर देवताओं को बुलाया जाता है और सुनवाई के बाद दंडित किया जाता है. यदि देवता अपने तरीके सुधार लेते हैं और लोगों की मदद करने लगते हैं तो निर्वासन से वापस आने पर उनका स्वागत किया जाता है. भंगाराम मंदिर समिति के सदस्य फरसू सलाम कहते हैं, "अगर ग्रामीणों को लगता है कि उनकी समस्याओं को हल करने के लिए जिम्मेदार देवता विफल हो गए हैं, तो उन्हें सुनवाई के लिए यहां लाया जाता है. ऐसा साल में एक बार होता है."
कौन होते हैं वकील और जज?
गांव के प्रतिष्ठित लोग इस दिव्य अदालत में वकील के रूप में कार्य करते हैं और मुर्गियां गवाह होती हैं. एक मुर्गी को अदालत में लाया जाता है और मुकदमे के बाद उसे आजाद कर दिया जाता है, जो उसकी गवाही के अंत का प्रतीक है. सजा भी गांव का ही शख्स सुनाता है और मान्यता है कि वह भंगाराम देवी के निर्देशों को आवाज दे रहा है. आरोप सिद्ध होने पर दंडित देवताओं को मंदिर से हटा दिया जाता है और कभी-कभी पेड़ों के नीचे रख दिया जाता है. मूर्तियों पर लगी सोने या चांदी की सजावट को हटाया नहीं जाता है. अब तक बाहर रखी मूर्तियों के चोरी होने की कोई रिपोर्ट नहीं मिली है क्योंकि आदिवासियों का मानना है कि ऐसा कृत्य दैवीय न्याय को आमंत्रित करेगा. किसी भी अदालत की तरह, मंदिर में एक बही-खाता भी रखा जाता है, जिसमें हर मामले का विवरण सूचीबद्ध होता है. आरोपी देवताओं की संख्या, उनके कथित अपराधों की प्रकृति, गवाह और अंतिम निर्णय सब कुछ इसमें दर्ज होता है. फरसू सलाम ने कहा, "हम एक रजिस्टर रखते हैं जहां हम हर चीज़ का दस्तावेजीकरण करते हैं, कितने देवताओं के प्रकट होने से लेकर कितनों को दंडित किया गया." कवयित्री पूनम वासम कहती हैं, "यह एक सामाजिक व्यवस्था है. ऐसा माना जाता है कि जिस तरह मनुष्य समाज में अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जिम्मेदार हैं, उसी तरह देवताओं को भी जिम्मेदारी उठानी होगी. यदि वे अपने लोगों की रक्षा या मदद करने में विफल रहते हैं, तो उन्हें भी सजा का सामना करना पड़ता है."
कौन थीं भंगाराम देवी?
बस्तर की जनजातियों के अपने देवी-देवता हैं. स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, उनमें से कई पहले इंसान थे और उनके नेक कार्यों के लिए उन्हें दैवीय दर्जा दिया गया था. स्थानीय निवासियों का मानना है कि भंगाराम देवी सदियों पहले वर्तमान तेलंगाना के वारंगल से बस्तर आई थीं. उनके साथ नागपुर से "डॉक्टर खान" भी आये. स्थानीय निवासियों के अनुसार, मंदिर का निर्माण 19वीं शताब्दी में राजा भैरमदेव के शासनकाल के दौरान किया गया था. स्थानीय ग्रामीण सरजू कहते हैं, "जब माई जी वारंगल से आईं, तो उन्होंने स्थानीय राजा से बसने के लिए जगह मांगी. उन्हें केशकाल के पहाड़ों के पास जमीन दी गई. उनके साथ डॉ. खान भी आए, जिन्होंने हैजा और चेचक के प्रकोप के दौरान आदिवासियों की सेवा की थी." समय के साथ, डॉ. खान ने दैवीय दर्जा हासिल कर लिया और उन्हें खान देवता या "काना डॉक्टर" के नाम से जाना जाता है. ग्रामीण अब देवता को नींबू और अंडे चढ़ाते हैं. भंगाराम देवी मंदिर में अन्य देवताओं के साथ 'खान देवता' भी विराजमान हैं.
अस्वीकरण
"NDTV का मकसद सिर्फ ये बताना है कि यह परंपराएं बस्तर के आदिवासियों की विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं, जिनका जिक्र करना आवश्यक है ताकि यह बताया जा सके कि बस्तर केवल नक्सलवाद के लिए नहीं, बल्कि अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है."