9 जजों की संविधान पीठ को भेजा गया दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार करने की प्रथा का मामला

दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार करने की प्रथा का मामला 5 जजों की पीठ के पास लंबित था. अदालत को बहिष्कृत लोगों और धार्मिक संप्रदाय के अधिकारों का संतुलन तय करना था.

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बोहरा समुदाय बहिष्कार मामले की अब 9 जजों की संविधान पीठ सुनवाई करेगी.
नई दिल्ली:

दाऊदी बोहरा समुदाय में प्रचलित एक्स-कम्युनिकेशन यानी किसी को संप्रदाय से बहिष्कार करने की प्रथा मामले को 9 जजों की संविधान पीठ को भेजा गया है. पांच जजों की पीठ ने मामले को सबरीमला मामले के साथ जोड़ा था. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने यह विचार करने के लिए सहमति व्यक्त की थी कि क्या दाऊदी बोहरा समुदाय में प्रचलित संप्रदाय से बहिष्कार करने की प्रथा भारत के संविधान, 1950 के तहत एक संरक्षित अधिकार है या नहीं?

जस्टिस एस के कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस एएस ओक, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस जेके माहेश्वरी की पांच जजों की बेंच ने मामले की सुनवाई की थी.

दरअसल 1962 में, सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ एक्स-कम्युनिकेशन एक्ट, 1949 को रद्द कर दिया था, जो धार्मिक संप्रदायों को किसी सदस्य को संप्रदाय से बाहर करने से रोकता था. इस प्रथा के तहत किसी सदस्य का बहिष्कार कर प्रभावी रूप से उसे संबंधित पूजा स्थलों में प्रवेश करने से रोका जा सकता था.

फरवरी 1986 में दाऊदी बोहरा समुदाय के धार्मिक प्रमुख ने इस कानून को चुनौती दी. उन्होंने दलील दी कि समुदाय के प्रमुख के रूप में उनकी भूमिका के लिए बहिष्कृत करने का अधिकार महत्वपूर्ण है. इसके अलावा, कानून को रद्द करके, अदालत ने दाऊदी बोहरा संप्रदाय को अनुच्छेद 26 के तहत 'अपने मामलों का प्रबंधन' करने के अधिकार से वंचित किया है. उन्होंने यह भी दलील दी कि कानून ने अनुच्छेद 25 में निहित धर्म का पालन करने के उनके अधिकार को बाधित किया.

हालांकि महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार से लोगों का संरक्षण अधिनियम, 2016 (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2016 के जरिए बहिष्करण कानून को निरस्त कर दिया, लेकिन यह मामला 5 जजों की पीठ के समक्ष लंबित था. अदालत को बहिष्कृत लोगों और धार्मिक संप्रदाय के अधिकारों का संतुलन तय करना था.

सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा था कि संबंधित अधिनियम को निरस्त कर दिया गया है, तो आप कैसे कहते हैं कि यह अभी भी मौजूद है. क्या यह आवश्यक है कि यदि कोई कानून इसकी अनुमति नहीं देता है तो न्यायालय इसमें शामिल हो.

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सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि इसे सबरीमाला मुद्दे से जोड़ा जाना चाहिए. संवैधानिक पीठ के समक्ष संवैधानिक मुद्दा कभी भी निष्प्रभावी नहीं होता है. वहीं वरिष्ठ वकील फली एस नरीमन ने कहा था कि ये मामला मूक हो गया है, क्योंकि इस अधिनियम को 2017 में महाराष्ट्र राज्य द्वारा निरस्त कर दिया गया है.

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