केरल ही नहीं, पूरी दुनिया में फैला ब्रेन-ईटिंग अमीबा; जानिए क्यों है इतना खतरनाक?

ब्रेन ईटिंग अमीबा का प्रभाव सिर्फ केरल तक नहीं है बल्कि संक्रमण का असर अन्य राज्यों तक पहुंच चुका है. ICMR के मुताबिक, साल 2019 तक देश में इस बीमारी के 17 मामले सामने आए लेकिन कोरोना महामारी के बाद कई तरह के संक्रमणों में उछाल देखने को मिला है.

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ब्रेन ईटिंग अमीबा का बढ़ा खतरा
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  • केरल में दिमाग खाने वाले अमीबा के कारण एक महीने में छह लोगों की मौत हुई है, संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है
  • नेगलेरिया फाउलेरी अमीबा से होने वाली अमीबिक मेनिंगोएनसेफेलाइटिस की मृत्यु दर लगभग 98 प्रतिशत है
  • केरल में अब तक 52 लोग संक्रमित पाए गए हैं, ज्यादातर मलप्पुरम, वायनाड और कोझिकोड जिलों के निवासी हैं
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नई दिल्ली:

केरल में दिमाग खाने वाले अमीबा का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा हैं. एक महीने के भीतर अब तक राज्य में कुल 6 लोगों की मौत हो चुकी है. प्रदेश में संक्रमण की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (NCDC) ने निगरानी बढ़ा दी है और मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पतालों को अलर्ट पर रहने का निर्देश दिया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़े सूत्रों के अनुसार, केरल में दिमाग खाने वाले अमीबा के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (NCDC) और राज्य स्वास्थ्य विभाग स्थिति पर कड़ी नजर बनाए हुए हैं. लैब टेस्टिंग और महामारी विज्ञान की जांच (Epidemiological Investigations) की जा रही है. 

मृत्यु दर 98 फीसदी के करीब

एनसीडीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इस बीमारी को अमीबिक मेनिंगोएनसेफेलाइटिस (PAM) कहते हैं, जो "नेगलेरिया फाउलेरी" (Naegleria fowleri) नामक अमीबा की वजह से होती है. यह काफी जोखिम भरी बीमारी है जो केवल चार से 14 या 18 दिन के अंदर मरीज की जान ले सकती है. इसकी मृत्यु दर करीब 98 फीसदी है यानी इससे 100 में से 98 मरीजों की मौत हो सकती है. इसकी तुलना अगर कोरोना या फिर टीबी संक्रमण की मृत्युदर से की जाए तो यह क्रमश: 97 और 10 गुना ज्यादा है. यह बताता है कि समय पर एक्शन में आना बहुत जरूरी है.

बच्चों को पानी में जाने से रोकना जरूरी

भारत सरकार की सलाहकार समिति की सदस्य डॉ. सुनीला गर्ग के अनुसार मस्तिष्क केऊतकों को नष्ट कर देने वाली यह बीमारी बहुत दुर्लभ है और भारत में नई नहीं है. कई सालों से इसके मामले सामने आते रहे हैं, हालांकि हाल के वर्षों में इनकी संख्या थोड़ी बढ़ी है. यह बीमारी छूने से नहीं फैलती. उन्होंने कहा, "लोग अगर नदी, तालाब या अन्य किसी जलाशय से दूरी बनाते हैं तो इस बीमारी से बचा जा सकता है. इनदिनों बारिश या बाढ़ का पानी कई क्षेत्रों में जनजीवन के लिए समस्या बना हुआ है. इसमें मिट्टी और कई तरह का संक्रमण मौजूद होता है. हमें सावधानी बरतनी चाहिए. चूंकि बच्चे खासतौर पर 10 से 18 साल के बच्चे, जो नदी या तालाब में नहाना पसंद करते हैं, उनमें यह संक्रमण ज्यादा देखा जा रहा है. इसलिए बच्चों को ऐसे पानी में जाने से रोकना बहुत जरूरी है.

केरल में मिले 52 लोग संक्रमित

जानकारी के अनुसार, केरल में अब तक कुल 52 लोगों में पीएएम की पुष्टि हुई है, जिसमें 33 पुरुष और 19 महिलाएं शामिल हैं. ज्यादातर संक्रमित मलप्पुरम, वायनाड और कोझिकोड जिले के हैं. आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, प्रभावित जिलों में बुखार और लक्षण वाले मरीजों की जांच की जा रही है, कोझिकोड मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पतालों को अलर्ट जारी किया गया है. समुदायों में ताज़े पानी के संपर्क से जुड़े जोखिमों के बारे में जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं. साथ ही कुओं और सार्वजनिक जलस्रोतों की सफाई और क्लोरीनेशन के निर्देश दिए गए हैं. प्रभावित इलाकों में फीवर सर्वे जारी है. मरीजों से सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूइड (CSF), नाक के स्वाब और पानी के नमूनों की जांच की जा रही है. इस साल दिमाग खाने वाले अमीबा संक्रमण की पृष्टि 3 महीने से 91 वर्ष आय़ु तक के लोगों में हो रही है.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से जु़ड़े एक अधिकारी ने बताया कि संदिग्ध मरीजों के सैंपल की जांच आईसीएमआर की प्रयोगशाला में की जा रही है, जहां पीसीआर तकनीक के जरिए मरीज के सैंपल में अमीबा की मौजूदगी देखी जाती है. सामान्य जांच में यह संक्रमण पता नहीं चल पाता है.

जांच के लिए बनाया गया प्रोटोकॉल

केरल की स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज ने कहा है कि हम अमीबिक मेनिंगोएन्सेफलाइटिस का जल्द पता लगाने के लिए लगातार काम कर रहे हैं, जिससे मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आई है. उन्होंने कहा, "हमने एक प्रोटोकॉल विकसित किया है और सभी एन्सेफलाइटिस रोगियों का अमीबिक एन्सेफलाइटिस परीक्षण शुरू कर दिया है, जिससे कई लोगों की जान बचाने में मदद मिली है."

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क्यों कहते हैं ब्रेन ईटिंग अमीबा?

डॉ. सुनीला गर्ग ने बताया कि नेगलेरिया फाउलेरी एक स्वतंत्र रूप से रहने वाला अमीबा है जो प्राथमिक अमीबिक मेनिंगोएन्सेफेलाइटिस (PAM) बीमारी का कारण बन सकता है. यह केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (CNS) का एक दुर्लभ और तेजी से घात करने वाला संक्रमण है. यह ऊतकों और कोशिकाओं को मृत करता जाता है. एन्सेफलाइटिस यानी दिमाग में सूजन पैदा होने लगती है और इस हेमटोजेनस फैलने से मरीज की मौत हो सकती है. इसलिए इसे आम भाषा में ब्रेन ईटिंग यानी दिमाग खाने वाला अमीबा कहते हैं.

कई राज्यों में पांव पसार चुका है संक्रमण

ब्रेन ईटिंग अमीबा का प्रभाव सिर्फ केरल तक नहीं है बल्कि संक्रमण का असर अन्य राज्यों तक पहुंच चुका है. नई दिल्ली स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के मुताबिक, साल 2019 तक देश में इस बीमारी के 17 मामले सामने आए लेकिन कोरोना महामारी के बाद कई तरह के संक्रमणों में उछाल देखने को मिला है. इसलिए शायद अचानक से बढ़ी इस बीमारी के पीछे यह एक कारण हो सकता है. कोरोना से पहले आखिरी बार 26 मई 2019 को हरियाणा में एक आठ माह की बच्ची में यह बीमारी सामने आई.

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जलवायु परिवर्तन और केरल में बढ़ रहा संक्रमण

केरल में आमतौर पर यह संक्रमण जून- जुलाई में देखने को मिलता था. लेकिन इस बार अगस्त और सितंबर संक्रमण और मौत दर्ज की जा रही है. इसके पीछे की वजह जलवायु परिवर्तन (Climate Change) है. दरअसल, इस बार केरल में मॉनसून समय से पहले पहुंचा और अभी तक बारिश का दौर जारी है. 2016 और 2022 के बीच, केरल में अमीबिक मेनिंगोएन्सेफलाइटिस के केवल आठ मामले सामने आए. लेकिन 2023 में, यह संख्या बढ़ गई. उस साल 36 संक्रमण के मामले मिले और नौ लोगों की मौतें हो गई. 

डॉ. सुनीला गर्ग के अनुसार, हमारे उष्णकटिबंधीय मौसम में पिछले कुछ दशकों में औसतन तापमान 1–2 डिग्री तक बढ़ गया है, जिससे नदियों, तालाबों और अन्य जलस्रोतों का पानी भी ज्यादा गर्म हो गया है. नेग्लेरिया फाउलेरी जैसे खतरनाक अमीबा गर्मी पसंद करते हैं और लगभग 40 डिग्री तापमान पर सबसे ज्यादा सक्रिय हो जाते हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण ये लंबे समय तक अपने सक्रिय रूप, जिसे ट्रोफोजोइट कहा जाता है, में बने रहते हैं. इसी रूप में वे तेजी से बढ़ते हैं, भोजन करते हैं और इंसानों को संक्रमित कर सकते हैं.

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उन्होंने कहा कि हर साल इनके मामलों का एक निश्चित पैटर्न देखा जाता है. ये फरवरी के अंत से मामले शुरू होते हैं, बरसात के महीनों में बढ़ जाते हैं और फिर अक्टूबर-नवंबर में मौसम ठंडा होने पर कम हो जाते हैं. आम तौर पर ये अमीबा दो और रूपों में पाए जाते हैं. फ्लैजेलैटेड, जिसमें वे बढ़ते नहीं हैं, और सिस्ट, जिसमें वे सोए रहते हैं जब खाना या सही माहौल नहीं होता. लेकिन जब पानी लगातार गर्म रहता है तो वे इन निष्क्रिय या सोए हुए रूपों में नहीं जाते, बल्कि लंबे समय तक सक्रिय और खतरनाक बने रहते हैं.

उत्तर भारत की मिट्टी में कई तरह का अमीबा मौजूद

मेडिकल जर्नल प्लस वन में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, दिल्ली एम्स के डॉक्टरों ने साल 2015 में पहली बार यह पता लगाया कि उत्तर भारत की मिट्टी में कई तरह का अमीबा मौजूद है जिनमें से नेगलेरिया फाउलेरी है जो अमीबिक मेनिंगोएन्सेफलाइटिस बीमारी का कारण है. डॉक्टरों ने साल 2012 से 2013 के बीच हरियाणा के रोहतक और झज्जर के 107 जलाशयों की जांच में इसका पता लगाया. 107 पानी के नमूनों में से 43 (40%) नमूनों में अमीबा पाया जिनमें से 37 में नेगलेरिया फाउलेरी नामक अमीबा मिला.

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दिल्ली एम्स के वरिष्ठ डॉ. बिजय रंजन कहते हैं, अमीबा की कई किस्में समुद्र और जमीन पर पाई जाती हैं, लेकिन सभी इंसानों के लिए खतरनाक नहीं होतीं. इनमें से तीन अमीबा – नेगलेरिया, एकैंथामोइबा और बी. मैंड्रिलारिस इंसानों को बीमार कर सकते हैं. नेगलेरिया फाउलेरी को आमतौर पर “दिमाग खाने वाला अमीबा” कहा जाता है. एकैंथामोइबा और बी. मैंड्रिलारिस ज़्यादातर उन लोगों को संक्रमित करते हैं जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है. ये अमीबा फेफड़े और त्वचा का संक्रमण कर सकते हैं और कभी-कभी जानलेवा दिमागी बीमारी (एन्सेफलाइटिस) भी पैदा कर देते हैं. इसके अलावा यह कॉर्नियल अल्सर भी कर सकता है. इसका मतलब है कि आंख के कॉर्निया (काली पुतली पर पारदर्शी परत) पर घाव या कटाव हो जाता है. अगर आंख में चोट लगे या संक्रमण हो जाए, तो कॉर्निया में सूजन आकर अल्सर बन सकता है.

नदी और तालाब से बचें

दिल्ली एम्स के वरिष्ठ डॉ. शरत कुमार ने लोगों को नदी, तलाब में जाने से बचने की सलाह दी. वो कहते हैं कि मिट्टी से होता हुआ यह नदी या तालाब में पहुंचता है जिसके संपर्क में, नहाने या फिर गोता लगाने से यह अमीबा नाक और मुंह के जरिए इंसान के शरीर तक पहुंचता है. यह तंत्रिका के माध्यम से दिमाग में चला जाता है जिससे मस्तिष्क के ऊतकों में गंभीर सूजन होती है फिर ये उत्तक नष्ट होने लगते हैं. यह बीमारी कोरोना की तरह एक व्यक्ति से दूसरे में नहीं फैलती.

कोई दवा और टीका उपलब्ध नहीं, फिर भी इलाज संभव

आईसीएमआर की डॉ. निवेदिता बताती हैं कि अभी तक इस बीमारी की कोई दवा या फिर बचाव के लिए टीका नहीं बना है. इसके बावजूद भारत में अब तक कई मरीजों को मौत से बचाया गया है. इसके लिए अलग-अलग तरह की एंटीबायोटिक देकर इलाज किया जाता है जिसके लिए समय पर बीमारी का पता चलना बहुत जरूरी है. उन्होंने कहा कि सिरदर्द, ज्वर, मतली और उल्टी आना इसके प्रारंभिक लक्षण हैं जिनके बाद गर्दन में अकड़न, भ्रम, दौरे, मतिभ्रम और आखिर में कोमा की स्थिति देखी जाती है. लक्षण मिलने के 18 दिन के भीतर मरीज की मौत हो सकती है या फिर वह कोमा में जा सकता है. उन्होंने यह भी बताया कि इलाज के बाद भी 97 प्रतिशत की दर्ज मृत्यु दर के साथ नेगलेरिया फाउलेरी संक्रमण से बचने की संभावना कम रहती है.

किन लोगों पर खतरा ज्यादा?

डॉ. शरत बताते हैं कि नेगलेरिया फाउलेरी एक बहुत ही छोटा जीव है, जिसे सिर्फ माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है उन्होंने कहा कि भले ही इंसान का शरीर नेगलेरिया फाउलेरी के प्रति संवेदनशील है, फिर भी यह अमीबा संक्रमण अत्यंत दुर्लभ होता है. कमजोर प्रतिरक्षा तंत्र, साइनस की पुरानी समस्या, गर्म या फिर ताजा पानी के संपर्क में आना जैसे कुछ कारक इसकी आशंका को बढ़ा सकते हैं.

बीमारी का पता लगाना आसान नहीं

दिल्ली एम्स के मुताबिक, सामान्य जांच से इस बीमारी का पता लगाना मुश्किल होता है. इसीलिए पीसीआर जांच की मदद से इसे जल्दी और सही तरीके से पहचाना जा सकता है. इसे साबित करने के लिए एम्स ने अक्टूबर 2020 में देश का पहला अध्ययन किया. इस अध्ययन में 307 मरीजों की पारंपरिक जांच में किसी में भी बीमारी नहीं मिली लेकिन पीसीआर जांच में 3 मरीज संक्रमित पाए गए.

पूरी दुनिया में फैल चुका है संक्रमण

2019 में जारी दिल्ली एम्स के एक अध्ययन में माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉ. बिजय रंजन ने यह बताया कि संक्रमण की दुर्लभता के बावजूद दुनिया भर में 400 से ज्यादा मामले सामने आए हैं. 1968 से 2019 तक अकेले अमेरिका में 143 मरीज मिले जिनमें 139 की मौत हुई. पाकिस्तान में 2008 से 2019 तक 147 मरीज मिले. वहीं यूरोप में 24 और ऑस्ट्रेलिया में 19 मामले मिले हैं. अगर एशिया की बात करें तो अकेले सबसे ज्यादा मामले पाकिस्तान, भारत और थाईलैंड में मिले हैं.

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