बिहार में जब पहली बार लूटा गया था जनमत, फिर कैसे मिली मुक्ति? काले अध्याय की पूरी कहानी

1957 से पहले 'बूथ कैप्चरिंग' शब्द से देश पूरी तरह अनभिज्ञ था. लेकिन इसी साल हुए आम चुनाव ने इस शब्द का एहसास आम जनता को करा दिया. यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना 1957 में बिहार में आम चुनाव के दौरान घटी थी. यह सिलसिला यहीं नहीं थमा, बल्कि इस घटना के सामने आने के बाद बूथ कैप्चरिंग चुनावों में एक आम बात हो गई. पढ़िए पूरी खबर...

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  • 1957 में बिहार के बेगूसराय जिले के रचियाही गांव में देश में पहली बार बूथ कैप्चरिंग की घटना हुई थी.
  • इस घटना ने बिहार की राजनीति में नेता, माफिया और बाहुबली के गठजोड़ को जन्म दिया जो आज भी जारी है.
  • बूथ कैप्चरिंग के कारण चुनाव में हिंसा और मतपेटियों की लूट जैसी घटनाएं आम हो गईं थीं.
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बेगूसराय:

देश में इन दिनों 'वोट चोरी' को लेकर राजनीतिक बवाल मचा हुआ है, जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हैं. इसी मसले को विपक्ष अब यात्रा निकालकर बिहार विधानसभा चुनाव में भुनाने की कोशिश कर रहा है. हालांकि, इस विवाद का अंजाम किसके पक्ष में जाएगा, यह तो समय बताएगा. लेकिन आज बात देश के उस काले अध्याय की, जहां पहली बार बूथ कैप्चरिंग की घटना को अंजाम दिया गया था. प्रजातंत्र के इतिहास की यह पहली घटना 1957 में बिहार के बेगूसराय ज़िले में घटी थी, जिसे देखने वाले लोग आज भी सिहर उठते हैं.

जहां पहली बार हुई थी बूथ कैप्चरिंग

खंडहर जैसा दिखने वाला यह मकान कोई साधारण जगह नहीं है, बल्कि यह 1957 की एक ऐतिहासिक और शर्मनाक घटना का गवाह है. यह वही स्थान है जहां देश में पहली बार बूथ कैप्चरिंग की घटना को अंजाम दिया गया था. बेगूसराय जिला मुख्यालय से महज 7 से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रचियाही गांव का कचहरी टोल वह जगह है, जहां बाहुबल ने पहली बार जनमत को ठेंगा दिखाया था और यह बता दिया था कि 'लाठी' में कितनी ताकत होती है. हालांकि, हाल के वर्षों तक यह खंडहरनुमा संरचना अपनी जगह पर मौजूद थी, पर अब इस स्थान पर पंचायत भवन के निर्माण ने लोगों की यादें धुंधली कर दी हैं. 1957 की इस घटना के वक्त मौजूद रहे लोग आज भी इसे देश के लोकतंत्र के लिए एक कलंक बताते हैं.

बूथ कैप्चरिंग... जब चुनाव जीतने का एक सफल फॉर्मूला बन गया

1957 से पहले 'बूथ कैप्चरिंग' शब्द से देश पूरी तरह अनभिज्ञ था. लेकिन इसी साल हुए आम चुनाव ने इस शब्द का एहसास आम जनता को करा दिया. यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना 1957 में बिहार में आम चुनाव के दौरान घटी थी. यह सिलसिला यहीं नहीं थमा, बल्कि इस घटना के सामने आने के बाद बूथ कैप्चरिंग चुनावों में एक आम बात हो गई. चुनाव लड़ने वाले दल और प्रत्याशी दबंगों की मदद से मतपेटियों को लूटकर और उन्हें नुकसान पहुंचाकर चुनाव जीतने लगे. बूथ कैप्चरिंग की इसी घटना के बाद से बिहार की राजनीति में नेता और माफिया का एक गठजोड़ तैयार होने लगा, जो आगे चलकर चुनाव जीतने का एक सफल फॉर्मूला बन गया.

रचियाही गांव की इस घटना ने भविष्य के लिए एक ऐसा ट्रेंड सेट कर दिया, जिसमें बिहार की राजनीति में धन-बल और माफिया का ऐसा 'कॉकटेल' तैयार हुआ, जिसका दबदबा राजनीतिक परिदृश्य पर आज भी बना हुआ है. उस वक्त की घटना पर स्थानीय ग्रामीण जो कहते हैं, वह देश के राजनेताओं को यह सोचने पर विवश कर देगा कि समय भले ही बदल गया हो, लेकिन उनकी सोच आज भी वही है.

इस घटना को लेकर इलाके के ग्रामीण और बुद्धिजीवी वर्ग बड़ी संजीदगी से विचार करते हैं. कई लोगों का मानना है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की धरती के रूप में पहचान रखने वाले बेगूसराय के लिए यह घटना एक कलंक की तरह है, और जब भी चुनाव आता है, इसकी चर्चा जरूर होती है. हालांकि, राहत की बात यह है कि उस ऐतिहासिक घटना के बाद रचियाही गांव में कई चुनाव हुए हैं. लेकिन बूथ कैप्चरिंग की कोई वारदात दोबारा नहीं हुई है.

1995 का बिहार चुनाव और टीएन शेषन की एंट्री

1995 का बिहार विधानसभा चुनाव एक ऐतिहासिक मोड़ था, जब मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में टीएन शेषन की एंट्री हुई. शेषन को पूरी दुनिया में चुनाव सुधार और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए जाना जाता है. यह भी कहा जाता है कि कई राजनेता अक्सर शेषन से नाराज रहते थे, जिनमें लालू यादव का नाम सबसे ऊपर था.

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शेषन का चुनाव सुधार अभियान

उस समय बिहार का चुनाव बूथ लूट और हिंसा के लिए कुख्यात था. शेषन ने 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव से ही अपने व्यापक चुनाव सुधार अभियान की शुरुआत की. उन्होंने स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने पर ध्यान केंद्रित किया, जिसके लिए सुरक्षा के व्यापक बंदोबस्त किए गए. शेषन ने बिहार के इतिहास में पहली बार मतदान को कई चरणों में कराने का फैसला किया.

जब लालू यादव ने शेषन को बनाया निशाना

1995 के चुनाव में लालू प्रसाद यादव बिहार में दूसरी बार सत्ता हासिल करने के लिए प्रयासरत थे. विपक्षी दलों ने लालू पर अधिकारियों से मिलकर भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया, जिसे शेषन ने गंभीरता से लिया. शेषन ने 'स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव का कब्रिस्तान' माने जाने वाले बिहार में एक उदाहरण पेश करने की ठानी. उन्होंने राज्य में बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती करवाई और विभिन्न कारणों से चुनाव की तिथियों में चार बार परिवर्तन किया.

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इन सख्त कदमों के कारण लालू प्रसाद यादव शेषन को अपनी जीत की राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानने लगे और अपने ठेठ अंदाज में उनके आलोचक बन गए.

लालू के ठेठ अंदाज़ में टिप्पणी

वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब 'बंधु बिहारी' में शेषन और लालू के बीच की तनातनी का वर्णन किया है. ठाकुर लिखते हैं कि चुनाव के दौरान हर सुबह लालू के आवास पर होने वाली अनौपचारिक बैठकों में शेषन ही उनके गुस्से के केंद्र में होते थे. ऐसी ही एक बैठक में लालू यादव ने गुस्से में कहा था, "शेषन पगला सांड जैसा कर रहा है. मालूम नहीं है कि हम रस्सा बांध के खटाल में बंद कर सकते हैं."

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ठाकुर ने यह भी लिखा है कि लालू यादव उन दिनों शेषन को अपने अंदाज में कोसते रहते थे और कहते थे, "शेषनवा को भैंसिया पे चढ़ाकर गंगाजी में हेला देंगे (डुबो देंगे)."

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