"जब टिकट नहीं मिला: अमृता राठौड़ की कहानी और बिहार की सियासत का सन्देश"

अमृता राठौड़ 2016 से भाजपा की सक्रिय सदस्य रहीं. वह महिला सुरक्षा, शिक्षा और ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर लगातार काम करती रहीं. 2020 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने अपने क्षेत्र में बूथ प्रबंधन की जिम्मेदारी संभाली थी और पार्टी को मजबूत बढ़त दिलाई थी.

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शाम का वक्त था. पटना की हवा में चुनावी नारों की गूंज थी, और पोस्टरों के बीच एक नाम गायब था अमृता राठौड़  पिछले दो चुनावों से भाजपा की सक्रिय कार्यकर्ता और महिला मोर्चा की प्रमुख चेहरा रही अमृता को इस बार टिकट नहीं मिला. यह खबर जितनी अचानक थी, उतनी ही चुप्पी से भरी भी

"मैंने दल के लिए दिन-रात काम किया. उम्मीद थी कि इस बार जनता के बीच जाने का मौका मिलेगा, लेकिन नाम कट गया," अमृता ने एक सधी हुई आवाज़ में कहा. उनका यह बयान सोशल मीडिया पर धीरे-धीरे एक बहस में बदल गया क्या पार्टी में जमीनी कार्यकर्ताओं की आवाज़ अब कमजोर पड़ रही है?

अमृता राठौड़ 2016 से भाजपा की सक्रिय सदस्य रहीं. वह महिला सुरक्षा, शिक्षा और ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर लगातार काम करती रहीं. 2020 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने अपने क्षेत्र में बूथ प्रबंधन की जिम्मेदारी संभाली थी और पार्टी को मजबूत बढ़त दिलाई थी.

लेकिन इस बार, टिकट सूची में उनका नाम नहीं था. सूत्रों के अनुसार, यह फैसला "संगठनात्मक संतुलन" और "राजनीतिक समीकरणों" के आधार पर लिया गया. पार्टी प्रवक्ता ने कहा— “हमारे सभी कार्यकर्ता भाजपा परिवार के अंग हैं. टिकट देना या न देना संगठनात्मक रणनीति का हिस्सा होता है.”

उनके क्षेत्र के कई कार्यकर्ता, विशेषकर महिलाएं, निराश दिखीं. रेखा देवी, जो भाजपा की स्थानीय महिला शाखा की सदस्य हैं, कहती हैं “अमृता जी ने गांव-गांव जाकर काम किया. वो जनता से जुड़ीं रहीं. ऐसे नेताओं को अगर मौका नहीं मिलेगा, तो कार्यकर्ताओं का मनोबल कैसे बढ़ेगा?”

हालांकि, कुछ स्थानीय विश्लेषक मानते हैं कि टिकट वितरण में जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों का प्रभाव भी प्रमुख रहा.
राजनीतिक विश्लेषक प्रो. अजय चौधरी बताते हैं. “बिहार की राजनीति में टिकट देना सिर्फ प्रदर्शन पर निर्भर नहीं करता. कई बार स्थानीय गठबंधन, सामाजिक संतुलन और ‘विजयी संभावना' का गणित भारी पड़ता है.”

अमृता का मामला सिर्फ एक उम्मीदवार की कहानी नहीं, बल्कि उस प्रणाली की झलक है जहाँ मेहनती जमीनी कार्यकर्ताओं की जगह अक्सर रणनीतिक नामों को प्राथमिकता मिलती है. यह सवाल सिर्फ भाजपा का नहीं, बल्कि सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए समान रूप से लागू होता है.

2024 के बाद से बिहार की राजनीति में महिला उम्मीदवारों की हिस्सेदारी घटकर लगभग 13% रह गई है, जबकि 2015 में यह 18% थी. यह आंकड़ा दर्शाता है कि अब भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सीमित है, चाहे दल कोई भी हो.

अमृता राठौड़ अब भी पार्टी छोड़ने की बात नहीं करतीं. “मैं राजनीति सेवा के लिए करती हूँ, पद के लिए नहीं,” वे कहती हैं. मगर उनके शब्दों में हल्की टीस महसूस होती है,जैसे किसी सच्चे कार्यकर्ता की उम्मीद अधूरी रह गई हो.

यह कहानी सिर्फ एक टिकट की नहीं, बल्कि उस लोकतांत्रिक प्रश्न की है जो हर चुनाव के बाद उठता है ,क्या भारतीय राजनीति में जमीनी मेहनत, संगठन निष्ठा और महिला प्रतिनिधित्व को उतनी ही प्राथमिकता दी जाती है जितनी राजनीतिक समीकरणों को?

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और शायद यही प्रश्न हमें बताता है कि लोकतंत्र की असली मजबूती केवल जीतने वालों में नहीं, बल्कि उन लोगों में है जो बिना टिकट के भी जनता की सेवा करते रहते हैं.

श्रेष्ठा नारायण
 

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