- बिहार में छठ पूजा एक महत्वपूर्ण धार्मिक त्योहार है. यह करीब 75 लाख प्रवासियों को घर लौटने का अवसर देता है.
- इस साल छठ पूजा 25 अक्टूबर से 28 अक्टूबर तक चलेगी. इसमें नहाय-खाय, खरना, संध्या अर्घ्य और उषा अर्घ्य शामिल हैं.
- बिहार विधानसभा चुनाव के लिए छठ पूजा के बाद छह और ग्यारह नवंबर को दो चरण में मतदान कराया जाएगा.
जब सूरज ढल रहा होता है और उसकी आखिरी सुनहरी किरणें आसमान में फैलती हैं, तो बिहार में एक खास उत्साह की लहर दौड़ जाती है. बिहार में छठ पूजा का आगमन केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि हर साल होने वाली एक भावनात्मक यात्रा है. यह उन बिहारियों के लिए अपने घर लौटने का मौका है, जो देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में काम करते हैं. मुंबई की भीड़भाड़ वाली गलियों से लेकर सूरत के कारखानों तक, करीब 75 लाख (गैर-सरकारी तौर पर दो करोड़ तक) बिहारी मजदूर और कामकाजी लोग एक ही सपना देखते हैं- घर लौटकर सूर्य देव को अर्घ्य देना.
इस साल छठ कब है
इस साल छठ पूजा की शुरुआत 25 अक्टूबर को 'नहाय खाय' से होगी, जब व्रत रखने वाले लोग गंगा या घर-गांव के आसपास के तालाबों में स्नान कर खुद को शुद्ध करते हैं और पूजा की तैयारी करते हैं. 26 अक्टूबर को 'खरना' मनाया जाएगा. उस दिन व्रत रखने वाले भक्त शाम को गुड़ और चावल से बनी खीर का प्रसाद ग्रहण करते हैं. इसके बाद दो मुख्य दिन आते हैं— 27 अक्टूबर की शाम का 'संध्या अर्घ्य' और 28 अक्टूबर की सुबह का 'उषा अर्घ्य', जब भक्त सूर्य देव को जल अर्पित करते हैं और उनके आशीर्वाद की कामना करते हैं.
इन दिनों घाटों पर एक अद्भुत दृश्य देखने को मिलता है, सैकड़ों महिलाएं रंग-बिरंगी साड़ियों और सलवार-कुर्तों में, पुरुष धोती पहनकर, हाथ जोड़कर सूर्य देव की पूजा करते हैं. उनके टोकरे में फल, ठेकुआ, पिरुकिया और अन्य प्रसाद रखे होते हैं. धूप-बत्ती की खुशबू पूरे माहौल को भक्ति और शांति से भर देती है. यह केवल पूजा नहीं, बल्कि आस्था, परिवार और संस्कृति को जोड़ने वाला त्योहार है, बिहार की आत्मा का उत्सव है.
चुनाव आयोग ने सोमवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान किया था.
चुनाव की तारीखें और छठ
छठ पूजा प्रवासी बिहारी लोगों के लिए सिर्फ धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि अपने घर और मिट्टी से जुड़ाव का प्रतीक है. यह एक ऐसा पुल है, जो दूरी के पार अपनेपन की भावना को जोड़ता है. लेकिन इस साल छठ के साथ बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों ने उनके मन में मिश्रित भावनाएं जगा दी हैं. इस बार बिहार विधानसभा चुनाव के लिए मतदान छह और 11 नवंबर को होना है, यानी छठ करीब एक हफ्ते और एक पखवाड़े बाद. ऐसे में बहुत से प्रवासी बिहारी मतदाता शायद इस बार मतदान नहीं कर पाएंगे.
कामकाजी लोगों के लिए वोट देना सिर्फ एक नागरिक कर्तव्य नहीं, बल्कि अपनी पहचान और अधिकार का प्रतीक है. इतिहास बताता है कि इस वर्ग में मतदान फीसद हमेशा मध्यम वर्ग से अधिक रहा है. यह उनके राजनीतिक जागरूकता और अपने भविष्य को लेकर उनकी सजग सोच को दर्शाता है. राजनीतिक दल भी इस बात को भलीभांति जानते हैं, इसलिए वो अक्सर उन्हें लुभाने के लिए तरह-तरह के वादे और सुविधाएं देने की कोशिश करते हैं, क्योंकि यही लोग अपने परिवार और समाज की उम्मीदों का बोझ उठाए रहते हैं.
मजदूर का रोजगार और जिम्मेदारी
प्रवासी जीवन की मुश्किलें उनके मतदान के अधिकार में बाधा बन जाती हैं. देश-विदेश के कई शहरों में काम करने वाले मजदूरों को अक्सर अपने नियोक्ताओं से छुट्टी नहीं मिल पाती, खासकर जब काम का सीजन चरम पर होता है. ऐसे में वे दुविधा में पड़ जाते हैं, एक तरफ रोजगार और जिम्मेदारी, तो दूसरी तरफ घर की पुकार, छठ का त्योहार और परिवार से जुड़ने-मिलने की चाहत. यही द्वंद छठ के उस असली भाव को और गहराई देता है. घर से दूरी के बाद भी दिल हमेशा बिहार की धरती से जुड़ा रहता है.
बिहार से बाहर रह रहे लोगों के लिए छठ अपनी जड़ों और परंपराओं की ओर लौटने का अवसर होता है.
चुनाव आयोग ने पहले मतदाता सूची को अपडेट और साफ करने के लिए स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) अभियान चलाया था. आयोग का कहना था कि यह प्रक्रिया जरूरी है ताकि मतदाता सूची की गड़बड़ियां दूर की जा सकें. लेकिन विपक्ष ने इस पर आपत्ति जताते हुए आरोप लगाया कि इससे असली मतदाता, खासकर मजदूर वर्ग, दलित, अल्पसंख्यक, अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य वंचित समुदायों के लोग सूची से बाहर कर दिए जाएंगे.
चुनाव आयोग पर विपक्ष के आरोप
इसी मुद्दे को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और राजद नेता तेजस्वी यादव ने 16 दिन लंबी 'वोटर अधिकार यात्रा' निकाली थी. विपक्ष का दावा था कि एसआईआर की प्रक्रिया में लाखों असली मतदाताओं के नाम काट दिए गए. इनमें बड़ी संख्या प्रवासी मजदूरों की थी, वही लोग जो रोजगार के लिए अपने गांव, कस्बे और शहर से बाहर रहते हैं.
अब जब ये प्रवासी लोग छठ मनाने के लिए घर लौट रहे हैं, तो उनके मन में दो तरह के भाव हैं. एक तरफ अपने परिवार से मिलने की खुशी, तो दूसरी तरफ वोट न डाल पाने का मलाल. ट्रेन और बसों की भीड़ में सफर करते हुए उनके मन में यह विडंबना गूंजती रहती है, वे अपने सबसे प्रिय त्योहार में शामिल तो हो रहे हैं, लेकिन अपने राज्य की राजनीति से धीरे-धीरे कटते जा रहे हैं. ऐसे में छठ के इस 'घर वापसी' के आनंद में अब एक अधूरापन घुल गया है, इसमें मिट्टी की खुशबू तो है, लेकिन अपने लोकतांत्रिक अधिकार से दूर होने का दर्द भी है.
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान इस बार छठ के एक हफ्ते बाद और दूसरे चरण का मतदान करीब दो हफ्ते बाद होगा.
जड़ से जुड़े रहने का एसहास और लोकतंत्र से दूरी
इस साल छठ पूजा पर घर लौटते प्रवासी बिहारी लोगों की यह यात्रा एक मार्मिक याद दिलाती है, उस गहरे रिश्ते की, जो उन्हें बिहार से जोड़ता है. जब वे गंगा किनारे या अपने छोटे-छोटे घरों में बैठकर ठेकुआ और गन्ने की खुशबू से भरे माहौल में पूजा करते हैं, तो वे अपने बिहारी होने की पहचान को फिर से महसूस करते हैं. लेकिन मन के किसी कोने में एक कसक बनी रहती है- वोट न डाल पाने का दर्द. यह उनके उस संघर्ष की याद है जो उन्होंने बेहतर जीवन की तलाश में घर से दूर रहकर झेला है. चुनाव आयोग यह कह सकता है कि तारीखों का चयन नियमानुसार किया गया और उनके पास अधिक विकल्प नहीं थे, लेकिन आलोचक हमेशा यह सवाल उठाते रहेंगे कि क्या थोड़ी और योजना और संवेदनशीलता से प्रवासियों के अधिकारों का सम्मान नहीं किया जा सकता था?
परंपरा और आधुनिकता के इस नाजुक संतुलन में बिहारी प्रवासी दृढ़ता का प्रतीक हैं. उनकी छठ पूजा यह साबित करती है कि दूरी चाहे कितनी भी हो, उनके दिल अब भी अपने घर और मिट्टी से जुड़े हुए हैं. जब सूर्य देव की किरणें घाटों पर फैलेगीं, तो वे न सिर्फ भक्तों के चेहरों को रोशन करेंगी, बल्कि उस मौन संघर्ष पर भी रोशनी डालेंगी, एक ऐसे समुदाय का संघर्ष, जो बदलती दुनिया के बीच भी अपनी जड़ों और मूल्यों से मजबूती से जुड़ा हुआ है. इस तरह, छठ का पर्व केवल एक त्योहार नहीं रह जाता है. यह एकता, प्रेम और अटूट आस्था का उत्सव बन जाता है. उन लोगों के लिए जो चाहे कितनी भी दूर चले जाएं, बिहार को हमेशा अपने दिल में संजोए रखते हैं.
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