मुंबई से कुछ 60 किलोमीटर की दूरी पर बदलापुर जगह है, जहां है बेरू मतिमंद प्रतिष्ठान. यह एक ऐसा संगठन है, जहां पर शारीरिक अक्षमताओं से जूझ रहे लोगों को सम्मान की जिंदगी जीने का मौका मिलता है, यहां ऐसे लोग भी मिल जाएंगे, जिन्हें उनके परिवारजनों ने छोड़ दिया है. यह केंद्र ठाणे के बदलापुर में लगभग 2 एकड़ जमीन पर 1,500 वर्ग मीटर की जमीन पर बनाया गया है. यहां मानसिक रूप से अस्वस्थ, दिव्यांग, बिस्तर पर चल रहे बीमार मरीज और वृद्धजनों का खयाल रखा जाता है और उनके इलाज का इंतजाम किया जाता है. वर्तमान में बेरू मतिमंद प्रतिष्ठान में 100 लोग रहते हैं, जहां सेंटर का स्टाफ उन्हें जरूरत के अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराता है और उनकी देखभाल करता है.
प्रतिष्ठान में 6 महीने के बच्चों से लेकर वृद्ध से वृद्ध लोग आते हैं. उन्हें स्वास्थ्य सुविधाओं से लेकर उनके मनोरंजन के साधन जैसी सभी आरामदायक सुविधाएं मिलें, इसके लिए भरपूर कोशिश की जाती है, और कोशिश ऐसी कि उनके घर पर भी शायद ही ऐसी सुविधा मिल पाए. हर चार रहवासी की जिम्मेदारी एक स्टाफ लेता है, और चौबीसों घंटा उनकी जरूरतों पर नजर रखता है.
बेरू मतिमंद प्रतिष्ठान को सुलोचना बेरू ने शुरू किया था, उन्हें इसकी प्रेरणा तब मिली, जब वो अपने दिव्यांग बेटे की जरूरत पर उचित मदद का इंतजाम नहीं कर पाई थीं. केंद्र के रोजाना के काम-काज और ऑपरेशन पर करीब से नजर रखी जाती है और इसकी मदद खुद केंद्र के ट्रस्टीज़ करते हैं. सबसे अच्छी बात है कि इसके ट्रस्टीज़ इन स्पेशल नीड वाले बच्चों के अभिभावक खुद हैं.
सुलोचना बेरू ने NDTV से बातचीत में बताया, "हमारे पास स्टाफ है, जो यहां रहने वालों की देखभाल करता है, और फिर उनके सेहत की जरूरतों का खयाल रखती हैं. अगर किसी और चीज की जरूरत पड़ती है, तो हमारे पास डॉक्टर भी हैं, जो रोज मरीजों को देखने आते हैं. केयरटेकर्स हमेशा उपलब्ध रहते हैं. कोविड की दोनों लहरों के वक्त हमें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योंकि बाहर से जो डोनेशन के रूप में मदद मिलती थी, वो बंद हो गई. बैंक में भी हमारे पास बहुत फंड नहीं बचा था."
फंड की कमी की समस्या अभी भी कुछ हद तक बनी हुई है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि प्रतिष्ठान की ओर से दी जाने वाली मदद में इससे कोई कमी आई हो, चाहे वो 6 महीने के बच्चे हों या फिर वृद्धजन. सुलोचना कहती हैं, "Lottoland हमारी मदद करना चाहते हैं और मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं, इससे मुझे बहुत खुशी हो रही है."
प्रतिष्ठान में रहने वाले बुजुर्ग रवि मेहता कहते हैं कि यहां उनका बहुत अच्छे से खयाल रखा जाता है, वो NDTV को बताते भी हैं कि उनका दिन यहां कैसा गुजरता है, "मैं गेम खेलता हूं, सोता हूं, बैठता हूं. अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता हूं. यहां मेरे दोस्त हैं. हम रोज दो घंटे गेम खेलते हैं."
एक और दिव्यांगजन अरुंधति, जिन्हें पेंट करने का शौक है, वो एक दिन आर्टिस्ट बनने का सपना देखती हैं, वो पेंटिंग करने में अपना वक्त बिताती हैं. उन्होंने NDTV से कहा, "मैं दिन में दो बार पेंट करती हूं, मैं बाहर बैठती हूं पेंट करने. मुझे पेंटिंग करना पसंद हैं. मैं सीनरी बनाती हूं, जानवरों के चित्र भी बनाती हूं."
ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाना और रोजगार के अवसर प्रदान करना एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती है. ऊपर से ग्रामीण क्षेत्रों में शारीरिक रूप से अक्षम लोगों का बीमारी में इलाज करने में वक्त और धैर्य की जरूरत होती है, और सीमित मात्रा में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाएं अलग समस्या है ही. प्रतिष्ठान में मरीजों को देखने आने वाले डॉक्टर दिनेशन जाधव, BAMS, कहते हैं, "बच्चे किस चीज से गुजर रहे हैं, वो आसानी से व्यक्त नहीं कर पाते हैं. केयरटेकर की मदद से हम लक्षणों को समझते हैं और फिर उनका इलाज करते हैं. हमें उन्हें दवाइयां लेने और इलाज करवाने के लिए राजी करने की भी जरूरत पड़ती है. शुरू-शुरू में यह एक चुनौती थी, लेकिन अब आसान हो गया है, और मुझे खुशी है कि मैं इनके इलाज के अनुभव से सीखकर अब उनकी मदद कर पाता हूं."
बेरू मतिमंद प्रतिष्ठान की अकाउंटेंट और एडमिनिस्ट्रेटर संध्या कदम कहती हैं कि "इन बच्चों की मदद के लिए हम डोनेशन पर निर्भर करते हैं, और डोनेशन ही इस जगह को चलाते रहने में मदद करता है. जब वो डिस्टर्ब होते हैं, तो उन्हें मैनेज करना बहुत मुश्किल हो जाता है. तब हम डॉक्टर की सलाह लेते हैं, कभी-कभी हम उन्हें वीडियो कॉल पर भी परामर्श के लिे संपर्क करते हैं. वो बहुत अच्छे से अपनी बात नहीं समझा पाते हैं, हमें उनका निरीक्षण करके उन्हें अच्छे से समझना पड़ता है फिर उनकी समस्या से डील करना पड़ता है."
भारत में दिव्यांगजनों की मदद के लिए सुविधाओं की बड़ी कमी है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में. बेरू मतिमंद प्रतिष्ठान की स्थापना इसीलिए की गई थी, ताकि इन लोगों की जरूरतों को समझा जाए और पूरा किया जाए, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में. और आज यह समाज में अलग-थलग महसूस कराए जाने वाले 100 से ज्यादा लोगों की सेवा कर रहा है और आगे भी करने की आशा बनाए हुए हैं.