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This Article is From May 23, 2018

पुण्‍यतिथि विशेष: 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे...' जैसे गानों से अमर हो गए मजरूह सुल्तानपुरी

अदब के आदाब, रूमानियत और इंसानियत से आबाद कलाम रचने वाले शायरों और गीतकारों में मजरूह सुलतानपुरी का मर्तबा बहुत ऊंचा है.

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पुण्‍यतिथि विशेष: 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे...' जैसे गानों से अमर हो गए मजरूह सुल्तानपुरी
मशहूर शायर व गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी
नई दिल्ली: अदब के आदाब, रूमानियत और इंसानियत से आबाद कलाम रचने वाले शायरों और गीतकारों में मजरूह सुलतानपुरी का मर्तबा बहुत ऊंचा है. पुरमग्‍ज़ नग्‍़मों के जरिये तमाम दुनियावी सवालात के जवाब ढूंढते मजरूह के कलाम में जिंदगी से जुड़े मगर अनदेखे-अनछुए पहलुओं से रूबरू कराने की जबरदस्त कूवत थी. मगर अब उनके वतन सुल्तानपुर में ही उन्हें फ़रामोश कर दिया गया है. मजरूह की कलम की स्याही, नग्‍़मों और नज्मों की शक्ल में ऐसी गाथा के रूप में फैली जिसने उर्दू शायरी को महज़ मोहब्बत के सब्जबागों से निकालकर दुनिया के दीगर स्याह-सफेद पहलुओं से भी जोड़ा. साथ ही उन्होंने रूमानियत को भी नया रंग और ताजगी दी.

नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्‍वेज के पूर्व उपाध्‍यक्ष शायर वसीम बरेलवी की नजर में मजरूह एक ऐसे शायर थे जिनके कलाम में समाज का दर्द झलकता था. उन्होंने जिंदगी को एक दार्शनिक के नजरिये से देखा और उर्दू शायरी को नए आयाम दिए. उनके लिखे फिल्मी गीतों में एक नयापन और अपनापन महसूस किया जा सकता है.    उन्‍होंने कहा कि बुनियादी तौर पर मजरूह का ताल्‍लुक ग़ज़ल की रवायत से था. जो रवायत हमें फ़ानी और जिगर से मिली, मजरूह उसके सरपरस्‍त थे. 

उन्‍होंने अपनी शायरी में जो अल्‍फाज़ इस्‍तेमाल किये, उनसे अदब की सारी जिम्‍मेदारियां वाबस्‍ता थीं. मजरूह ने वह ज़बान इस्‍तेमाल की जो उस दौर में बहुत पसंद की जाती थी. मजरूह ने ग़ज़ल की जिम्‍मेदारियों और नजाकतों से जुड़कर जितना काम किया, मुझे नहीं लगता कि किसी और ने किया होगा.

मगर अफसोस की, मजरूह के आबाई वतन में ही उन्हें फ़रामोश कर दिया गया है. मजरूह के खानदान के करीबी जियाउल हसनैन ने बताया कि सुल्तानपुर में अब मजरूह के घर की चहारदीवारी के सिवा उनका कोई निशान बाकी नहीं है. कई साल पहले जिला प्रशासन ने शहर में 'मजरूह उद्यान' के लिए कुछ जमीन आवंटित की थी मगर वह इस वक्त उजाड़ है. उसका कोई पुरसाहाल नहीं है. उन्होंने बताया कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुल्तानपुर का नाम रोशन करने वाले मजरूह की याद में जिले में कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता.

करीब 2 साल पहले कादीपुर तहसील में एक संस्था ने उनकी याद में एक जलसा आयोजित किया था. मगर उसके बाद वह सिलसिला भी खत्म हो गया. बकौल वसीम, मजरूह ने फिल्‍मों में जो नग्‍मे लिखे, उन्‍हें भी उन्‍होंने ग़ज़ल की दौलत से मालामाल करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा. इत्‍तेफाक की बात यह भी है कि उन्‍हें फिल्‍म जगत का ऐसा दौर मिला जब उर्दू शायरी की अहमियत अपने उरूज (चरम) पर थी. इससे पहले और उसके बाद सिनेमाई दुनिया में ऐसा दौर कभी नहीं आया.

उन्‍होंने कहा कि मजरूह का यह अहम योगदान है कि फिल्‍मी दुनिया में रहकर भी उन्‍होंने इल्‍मी तकाजों को अपनी शायरी के जरिये पूरा किया. उनके जो गाने वक्‍ती और चलते-फिरते मौजू पर थे, वहां भी उनका कलम अपने वक़ार (गरिमा) को बनाये रख सका. इस तरह मजरूह ने अदबी कद्रों का भी लिहाज रखा और साथ ही दौर-ए-हाजिर के तकाजों का भी ख्‍याल किया. मजरूह का लिखा गीत ‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें' खासकर पसंद किया गया. 

मजरूह को फिल्मी गीत लिखने के लिए ज्यादा लोकप्रियता मिली लेकिन शायर मुनव्‍वर राना की नज़र में मजरूह दिल से ग़ज़ल के ही शायर थे.    राना ने बताया कि मजरूह उर्दू ग़ज़ल के सबसे बड़े शायर थे. गजल तो मजरूह की जान थी और अगर वह फिल्‍म इंडस्‍ट्री में नहीं होते तो शायद गजल को और भी ऊंचे मक़ाम बख्‍श सकते थे. मजरूह ने फिल्मों के लिए लिखा जरूर, लेकिन ग़ज़ल उनका पहला प्यार थी. उन्होंने फिल्मी गानों में भी उर्दू अदब की तासीर को बरकरार रखने पर पूरा ध्यान दिया था.

हकीम का पेशा छोड़कर कलम से दुनियावी परेशानियों का इलाज ढूंढने निकले असरार उल हसन खान उर्फ मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म वर्ष 1919 में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था. प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने लखनऊ के तकमील उत तिब कॉलेज से यूनानी चिकित्सा की डिग्री प्राप्त की. खान एक हकीम के रूप में स्थापित हो चुके थे तभी उनका रुझान शायरी की तरफ बढ़ा और सुल्तानपुर में एक मुशायरे में ग़ज़ल सुनाने के बाद उनकी जिंदगी ने नया मोड़ ले लिया. मुशायरे में अपनी ग़ज़ल को मिली तारीफ से उत्साहित मजरूह ने शायरी को गम्भीरता से लिया और अपना तख़ल्‍लुस ‘मजरूह’ (घायल) रख लिया. 

मजरूह ने हकीम का पेशा छोड़कर शायरी को अपना लिया. इसी दौरान वह प्रख्यात शायर जिगर मुरादाबादी के सम्पर्क में आए. मजरूह ने वर्ष 1945 में मुम्बई में एक मुशायरे में अपना क़लाम पेश किया और लोगों ने उनकी खुले दिल से तारीफ की. मजरूह की नज्मों के पाश में जल्द ही बंध जाने वालों में फिल्म निर्माता ए.आर. कारदार भी थे. उन्होंने मजरूह से फिल्मों में लिखने की पेशकश की जिसे इस शायर से ठुकरा दिया. बाद में जिगर मुरादाबादी के समझाने पर वह राजी हुए. मजरूह ने वर्ष 1946 में आई फिल्म ‘शाहजहां’ के लिए गीत 'जब दिल ही टूट गया' लिखा जो बेहद लोकप्रिय हुआ. 

उसके बाद उन्होंने ‘अंदाज’ और ‘आरजू’ जैसी म्‍यूजिकल हिट फिल्मों के गीत लिखे जिससे वे एक गीतकार के रूप में स्थापित हो गए. वर्ष 1949 में उन्होंने राजकपूर की फिल्म ‘धरम करम’ के लिए 'एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल' के रूप में जिंदगी की सच्चाई को बयान करता नगमा लिखा. मजरूह को फिल्म ‘दोस्ती’ का गीत 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे' लिखने के लिए वर्ष 1965 में सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया था. 

बाद में वे प्रतिष्ठित दादा साहब फालके अवॉर्ड हासिल करने वाले पहले गीतकार भी बने. मजरूह ने निर्माता-निर्देशक नासिर हुसैन की कई बड़ी हिट फिल्मों में कमाल के गीत लिखे. ‘फिर वही दिल लाया हूँ’, ‘तीसरी मंजिल’, ‘बहारों के सपने’, ‘कारवाँ’, ‘हम किसी से कम नहीं’, ‘कयामत से कयामत तक’, ‘जो जीता वही सिकंदर’, ‘अकेले हम अकेले तुम’ और ‘खामोशी-द म्यूजिकल’ के जरिये उन्होंने फिल्म जगत को एक से बढ़कर एक नग्‍मे दिए.

अपने गीतों के जरिये लोगों को जिंदगी के अहम पहलुओं पर सोचने को मजबूर करने, मोहब्बत की ताज़गी भरी छुअन का एहसास कराने और जीवन के अनछुए पहलुओं को गीतों और ग़ज़लों में पिरोने वाले मजरूह का 24 मई 2000 को मुम्बई में निधन हो गया. वह इस फ़ानी दुनिया से भले ही चले गये हों, लेकिन अपने नग्‍मों और गजलों की शक्‍ल में वह हमेशा हमारे बीच रहेंगे. 

(इनपुट भाषा से)

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