14-15 अगस्त, 1947 की दर्मियानी रात जवाहरलाल नेहरू का दिया हुआ वह 'ट्राइस्ट विद डेस्टिनी' वाला भाषण याद है? नेहरू ने शुरुआत की थी- आज आधी रात को जब दुनिया सो रही है, भारत जाग रहा है. उन्होंने इसे नियति की पूर्वनिर्धारित मुलाकात बताया था. इस रविवार की रात भी दुनिया सो रही थी और हिदुस्तान की लड़कियां जाग रही थीं, नियति से अपनी पूर्वनिर्धारित मुलाकात का जश्न मना रही थीं. वह रात बहुत चमकीली रात निकली. नवी मुंबई के स्टेडियम से इतने सितारे निकले कि आसमान जगमग हो गया. भारत की महिला क्रिकेट टीम ने दक्षिण अफ्रीका को 52 रन से हरा कर विश्व कप जीता और इतिहास बना डाला.
इस इतिहास के कई इशारे हैं. पहला तो बेहद स्पष्ट है कि लड़कियां अपनी कहानी खुद लिख रही हैं. भारत की महिला क्रिकेटरों ने जो कुछ झेलते हुए यह मुकाम हासिल किया है, उसकी ठीक से कहानी सुननी हो तो शांता रंगास्वामी या डायना इदुलजी जैसी पुरखिन क्रिकेटरों के पास जाना चाहिए. सुनील गावस्कर की बहन नूतन गावस्कर के पास जाना चाहिए जो 1973 में बने भारतीय महिला क्रिकेट संघ की सबसे लंबे समय तक सचिव रहीं और जिन्होंने एक-एक पैसे के लिए क्रिकेटरों को संघर्ष करते देखा.
उन दिनों यानी सत्तर और अस्सी के दशकों में महिला क्रिकेटरों के खेल को पेशेवर खेल नहीं माना जाता था. शांता रंगास्वामी याद करती हैं कि इन मुकाबलों में टीम के पास पूरी किट भी नहीं होती थी. हर खिलाड़ी का अपना बल्ला नहीं होता था. टीम के पास तीन बैट होते थे, दो क्रीज पर मौजूद खिलाड़ियों के पास और तीसरा उनके बाद जाने वाले बल्लेबाज के पास. यही हालत लेग गार्ड्स की भी होती थी. इसके अलावा वे अपने बेडिंग और सूटकेस साथ लेकर चलती थीं ताकि कहीं भी सोने-रहने का इंतजाम हो सके. 
लेकिन यह मामला बस साधनों का नहीं था. महिला क्रिकेटरों को वह सम्मान भी नहीं मिलता था जिसकी वे हकदार थीं. 1986 में जब डायना इडुलजी भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तान थीं तब उन्हें लॉर्ड्स के पैवेलियन में दाखिल होने नहीं दिया गया था. तब उन्होंने कहा था कि एमसीसी को अपना नाम बदल कर एमसीपी कर लेना चाहिए- 'मेल शॉवेनिस्ट पिग्स.' 
महज चालीस-पचास साल पुरानी यह कहानी हैरान करती है. भारतीय महिला क्रिकेट एक लंबी अंधेरी रात से निकल कर यहां तक आया है. शांता रंगास्वामी, डायना इडुलजी, अंजुम चोपड़ा, मिताली राज, झूलन गोस्वामी जैसी क्रिकेटरों ने अपनी पहचान धीरे-धीरे बनाई, लेकिन तब भी उन्हें वह शोहरत नहीं मिल पाई जो उनके समकालीन पुरुष खिलाड़ियों को मिली. मिताली राज पर बेशक फिल्म बनी- शाबाश मीठू. इस फिल्म में भी यह सवाल पूछा जाता है कि क्या कोई क्रिकेट प्रेमी किसी महिला खिलाड़ी का नाम जानता है? फिल्म के अंत में 2017 के फाइनल के बाद इन क्रिकेटरों की पहचान बनती दिखती है, लेकिन यह सच है कि इस विश्व कप से पहले या इसके दौरान भी महिला क्रिकेट को गंभीरता से शायद कोई नहीं ले रहा था.
सच तो यह है कि महिला क्रिकेट की उपलब्धि पर ताली बजाने वाले भी शायद उन ग्यारह खिलाड़ियों का नाम न ले सकें जो फाइनल खेलीं और जिनके कारनामे से यह जीत संभव हुई. तो यह जो चमक है- कामयाबी की, उपलब्धि की, विश्व कप जीत लेने की- इसके पीछे कुछ अंधेरा अब भी बाकी है. इसमें शक नहीं कि यह जीत फिर भी बहुत बड़ी छलांग है, जिसने महिला क्रिकेट को नया सम्मान दिलाया है, नई पहचान दिलाई है.
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लेकिन इस जीत के इशारे क्रिकेट से बाहर के भी हैं. जिन खिलाड़ियों ने यह जीत हासिल की, उनके बचपन और उनके संघर्ष को देखिए. ज्यादातर खिलाड़ियों को खेलने के लिए महिला टीम नहीं मिलती थी. वे लड़कों के साथ खेलती थीं. भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तान हरमनप्रीत कौर मोगा की हैं. वे कमर में दुपट्टा बांध कर लड़कों के बीच गेंदबाजी कर रही थीं, तब एक क्रिकेट कोच ने उन्हें देखा और उनकी प्रतिभा पहचानी. शेफाली वर्मा ने अपने बाल इसलिए कटवाए कि लड़कों के बीच वे लड़की की तरह न पहचानी जाए. यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इनमें बहुत सी लड़कियों ने घरवालों की डांट-फटकार झेली होगी, रिश्तेदारों की नसीहत झेली होगी, समाज के ताने झेले होंगे और इन सबके बीच खेलती-भिड़ती हुई वे इस मुकाम तक पहुंची होंगी. खास बात यह कि इस टीम में सिर्फ दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ की नहीं, छोटे-छोटे शहरों और गांवों की लड़कियां हैं.
दरअसल, ये नई लड़कियां अपनी ही नहीं, नए हिंदुस्तान की कहानी भी लिख रही हैं. वे बदल रही हैं और लड़कों को बदलने को मजबूर कर रही हैं. ऐसा नहीं कि ये उपलब्धियां किसी शून्य से अचानक आ गई हैं. अलग-अलग खेलों में ये लड़कियां कमाल कर रही हैं. भारत की महिला हॉकी टीम ने इसी साल एशियन चैंपियंस ट्रॉफी जीती और टोकियो ओलंपिक में सेमीफाइनल तक गई. बैडमिंटन में पहले साइना नेहवाल और फिर पीवी संधू ने करिश्मा किया. टेनिस में सानिया मिर्जा ने अपना लोहा मनवाया. शतरंज में तो ये लड़कियां छाई हुई हैं. इन सबसे पहले पीटी उषा तो तेजी के लिए हिंदी का मुहावरा बन चुकी हैं. कर्णम मल्लेश्वरी से लेकर फोगाट बहनों तक और मैरीकॉम से लेकर दीपा कर्माकर ने उन खेलों में अपना वर्चस्व साबित किया है, जो पुरुषों के खेल माने जाते रहे. इन सब चमकते हुए नामों के पीछे सैकड़ों नहीं, हज़ारों नहीं लाखों संघर्षरत लड़कियां हैं जो अपनी जगह हासिल करने के लिए रोज लड़ती हैं, हारती हैं, पिटती हैं, दुत्कारी जाती हैं, लेकिन फिर खड़ी हो जाती हैं और एक दिन दुनिया को गलत साबित करती हैं. रविवार रात आंसुओं का जो दरिया नवी मुंबई के डीवाई पाटिल स्टेडियम में ठाठे मार रहा था, उसमें इन तमाम लड़कियों के आंसू भी शामिल थे. यही इस जीत का, इस कामयाबी का महत्व है.














