This Article is From Jan 12, 2022

ये हिन्दू TRAD क्या तूफान है? नफरत की दुनिया की नई भीड़ का नाम है

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Ravish Kumar

कोई दस साल पहले की बात होगी जब दुनिया भर में सोशल मीडिया प्लेटफार्म को लोकतंत्र का नया सवेरा कहा जा रहा था लेकिन देखते देखते इस प्लेटफार्म से आने वाला सवेरा अंधेरा में बदल गया. सरकारों ने अपनी तरह से इस पर कंट्रोल किया ताकि प्रोपेगैंडा फैला सकें तो दूसरी ओर धर्म, रंग, जाति के नाम पर सर्वोच्चता की सनक से लैस नफरती तबके ने इस पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया. अब कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि किसी खास समुदाय के खिलाफ हुए नरसंहार में सोशल मीडिया पर चले नफरती अभियान की भी भूमिका थी. पूरी दुनिया में अलग-अलग नाम से चलने वाले नफरती अभियान एक दूसरे से प्रेरणा लेते रहते हैं. एक दूसरे से भाषा, रंग और शब्द उधार लेते रहते हैं. पूरी दुनिया में आपको इसका पैटर्न दिखाई देगा. इन प्लेटफार्म के ज़रिए आबादी के एक बड़े हिस्से को ज़ॉम्बी में बदला जा रहा है. ज़ॉम्बी उस भीड़ का नाम है जो किसी की हत्या को गलत नहीं मानती है.

मंगेश नारायण राव काले, विक्रम नायक और सार्थक बागची की बनाई कृतियों के सहारे हम ज़ॉम्बी के बारे में बात करना चाहते हैं. आज कल की एनिमेशन फिल्मों में इस तरह की शक्लों वाले किरदार खूब होते हैं जिनका शरीर इंसान की तरह होता है लेकिन दिमाग़ में लोहा लक्कड़ भरा होता है. चेहरे पर आंखें नहीं होती हैं तो कभी चेहरा ही रबर के जैसा बना होता है. इनकी अपनी इच्छा नहीं होती, ये दूसरे के काबू में होते हैं. शहर के शहर तबाह कर देते हैं और इंसानों को लाशों के ढेर में बदल देते हैं. ऐसे अनगिनत कार्टून फिल्में अब हमारे बीच मौजूद हैं जिनमें ज़ॉम्बी की कल्पना साकार की गई है. इन्हें किसी के मरने और किसी को मारने का दुख नहीं होता है. अमरीकी फिल्मकार जॉर्ज ए रोमेरे ने अपनी कई फिल्मों में ज़ॉम्बी की इस कल्पना को साकार किया है. इन फिल्मों के नाम पर Night of the living dead, Day of the dead, Land of the dead और अब अनेक प्रकार की एनिमेशन फिल्मों में आपको ज़ॉम्बी का किरदार दिखेगा. 2018 में Overlord फिल्म आई थी. जिसे नाज़ी ज़ॉम्बी हॉरर फिल्म कहा जाता है. इसमें दिखाया गया है कि नात्ज़ी जर्मनी के प्रयोग से बहुत सारे ज़ॉम्बी निकल आए हैं. ब्रिटानिका के अनुसार ज़ॉम्बी का इस्तेमाल अलग अलग काल्पनिक जंतुओं के लिए किया जाता है लेकिन उन सबमें एक बात होती है. उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती है. वे हमेशा दूसरों की इच्छा के अनुसार चलते हैं. गुलाम होते हैं.

टेक-फॉग एप की सामग्री का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि ज़ॉम्बी का समाज भारत में बनाने की कोशिश चल रही है और एक हिस्से को ज़ॉम्बी में बदल दिया गया है. इनकी सोच की बुनावट ऐसी कर दी गई है कि उसमें जोश तभी आता है जब नफरती मैसेज आता है. इन मैसेजों के ज़रिए पहले लोगों को समर्थक बनाया गया, फिर उन्हे भक्त में बदला गया, फिर वे अंध भक्त में बदल गए और अब उन्हें ज़ाम्बी बनाया जा रहा है. टेक-फॉग एप समय समय पर ऐसी ही सामग्री की सप्लाई कर चेक करता है कि समाज ज़ॉम्बी बनने की दिशा में कितना आगे बढ़ा है. 2020 में तब्लीग जमात के नाम पर एक समुदाय से नफरत की आंधी चली थी वो टेक -फॉग एप की बड़ी कामयाबी में से एक है.

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आप सोच नहीं सकते कि फूलगोभी की तस्वीर नफ़रत के इस सियासी कारोबार में इस्तमाल की जाएगी. पश्चिम बंगाल के चुनाव के समय में गोभी की तस्वीर के साथ ट्विट किए गए कि क्या बंगाल में गोभी की कमी है. कई हैडलों के नाम में कॉलीफ्लावर फार्मर जोड़ दिया गया. गोभी को राष्ट्रीय फूल बनाने की मांग होने लगी. आप कहेंगे कि इक्का दुक्का लोग हैं लेकिन इन्होंने गोभी के फूल को प्रतीक के तौर पर क्यों चुना? यह जानेंगे तो सिहर जाएंगे कि हत्या और हिंसा के ख़्याल को किस तरह पाला पोसा जा रहा है. गुजरात से कांग्रेस के नेता सरल पटेल ने इसे पकड़ा और अपने ट्विटर पर इस गोभी का संदर्भ ज़ाहिर किया था. संदर्भ यह है कि बिहार के भागलपुर में हुए दंगों के मामले में बीस साल बाद जब फैसला आया तो अदालत ने 14 हिन्दुओं को सज़ा दी. क्योंकि उन्होंने 114 मुस्लिमों की हत्या के बाद उनके शवों को गोभी के पत्तों से ढंक दिया था. वहां से इनके बीच गोभी राजनीतिक कोड के रूप में प्रवेश करती है और इसके ज़रिए हिंसा की बातें करते हैं.

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धर्मसंसद के नाम पर जमा लोग सीधे सीधे नरसंहार की बात कर रहे हैं तो कुछ लोग पर्दे के बीच गोभी के बहाने नरसंहार के ख़्याल को हवा दे रहे हैं. ऑनलाइन और ऑफलाइन अलग अलग ऐप, अलग अलग संगठन के बहाने इसे परवान चढ़ाया जा रहा है. नफरत और नरसंहार के बीच सिर्फ एक कदम की दूरी होती है, ठीक उसी तरह जैसे हथियार और हत्या के बीच की दूरी एक ट्रिगर दबाने की होती है.

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टेक-फॉग एप, सुल्ली और बुल्ली बाई ऐप के ज़माने में हम बड़ी संख्या में लोगों को ज़ॉम्बी बनते हुए देख रहे हैं. एक समुदाय के खिलाफ नफरत और नफरत के नाम पर एक धर्म के गौरव की राजनीति की खेप तैयार की गई और अब उसी खेप में से एक दूसरी खेप तैयार की जा रही है. इसे TRAD कहते हैं. TRADITIONALISTS का संक्षिप्त रूप है. दक्षिणपंथ के भीतर नफरत की दुनिया में यह एक नई कैटगरी है. इसकी बुनियाद में सोच वही है जो सॉफ्ट और हार्ड हिन्दुत्व की सोच में है. TRAD हार्ड हिन्दुत्व के समर्थकों को उदार और नरम मानता है और उन्हें रायता बुलाता है. एक बात और इनके बीच कई बार साफ साफ अंतर दिखता है और कई बार आपस में सब घुला मिला भी लगता है. TRAD को सबसे पहले हिन्दू राष्ट्र चाहिए. रायता की तरह विकास और हिन्दू राष्ट्र में उसका यकीन नहीं है.

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इस तरह की तस्वीरों से पता चलता है कि ट्रैड की सोच क्या है. ट्रैड हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए मुसलमानों के लिए मलेच्छ का इस्तमाल करता है. कई सदी पहले के इस शब्द को लाया गया. इसमें छुआछूत का भाव है इसलिए जातिसूचक होने के कारण असंवैधानिक भी है. मगर यहां आप देख सकते हैं कि सभी मलेच्छ के मारने का नारा लिखा है. ट्रैड ओला और ऊबर का इस्तमाल भी एक धार्मिक नारे के समानार्थी तौर पर करता है. इस तस्वीर में हिन्दू राष्ट्र की मुद्रा का चित्रण है. इसमें लोगों से कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया अकाउंट की डीपी कैसी होनी चाहिए. पूरे देश को भगवा रंग में रंगा दिखाया गया है, हिन्दू राष्ट्र की कल्पना साकार की गई है. इसके निशाने पर मुस्लिम ही नहीं हैं बल्कि दलित भी तादाद में हैं. बल्कि हिन्दू राष्ट्र के समर्थक दलितों से भी ये नफरत करते हैं. ब्राहमणवाद की सर्वोच्चता चाहते हैं और आरक्षण को खत्म करते हैं. ये दोनों ही तत्व हिन्दुत्व के समर्थकों की धारा में ऑफलाइन भी मौजूद है लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के कारण ऊपर नहीं आता मगर ट्रैड सीधा हमला करते हैं. पत्रकार नील माधव ने ट्रैड की दुनिया में दलितों के चित्रण पर काफी काम किया है.

राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर नफरत की धारा के मूल में ब्राहमण जाति की सर्वोच्चता को समेटने का काम किया जाता रहा था लेकिन ट्रैड ने आकर उसके बंडल को खोल दिया है और बताना शुरू कर दिया कि हम असल में यही थे और ऐसे ही हैं. इस भ्रम में न रहें कि ये इक्का दुक्का ट्वीट हैं. एक पूरा इकोसिस्टम तैयार हो चुका है. इनके पीछे की पहचान छिपी रहती है लेकिन काम करने वाले सब एक दूसरे से जुड़े रहते हैं. ट्रैड को लेकर आर्टिकल 14, द वायर, न्यूज़लौंड्री, अल जज़ीरा पर कुछ रिपोर्ट छपी हैं जिसे प्रतीक गोयल, आलीशान जाफरी, ज़फ़र आफ़ाक, नील माधव और नयोमी बार्टन ने इस पर काम किया है. टेक फॉग की रिपोर्ट के बाद आलीशान जाफ़री और नयोमी बार्टन ने एक लंबी रिपोर्ट भी लिखी है. इनका कहना है कि यह इकोसिस्टम बहुत प्रभावशाली हो चुका है. इससे जुड़े लोगों की संख्या इतनी भी कम नहीं कि इक्का दुक्का कहा जा सके. ट्रैड नाम के ये ज़ॉम्बी जंतु ट्विटर से लेकर टेलीग्राम पर बड़ी संख्या में मौजूद हैं और आपस में एक दूसरे से जुड़े होते हैं.

रायता और ट्रैड में फर्क है लेकिन दोनों एक ही बिरादरी के लोग हैं. ट्रैड रायता का इस्तमाल तब करता है जब राइटविंग नरम पड़ता है. दोनों एक ही तरह के राजनीतिक समाज का हिस्सा हैं. देखने से लगता है कि रायता और ट्रैड अलग हैं मगर हैं ये एक परिवार और एक ही मकसद के लिए. दोनों के मकसद एक हैं. बस ट्रैड अब किसी तरह का समझौता नहीं चाहता है. मनुस्मृति की वकालत करता है. दलितों और आरक्षण से नफरत करता है. जाति के वंशवाद को सही मानता है. ब्राह्मण को सर्वोच्च मानता है. मानता है कि मुसलमानों को भारत में रहने का अधिकार नहीं है. नरसंहार की भाषा का इस्तमाल करता है. ट्रैड उसी एंटी मुस्लिम इको सिस्टम का एक उग्र चेहरा है जिसमें रायतावादी दूसरे तरीके से नफरत की बात करते हैं. यह आंदोलन सिर्फ सिर्फ नफरत से चलता है. ट्रै़ड स्टेट में यकीन नहीं करता है. संविधान से चलने वाला राज्य का विरोधी है. इसलिए ट्रैड पकड़े जा रहे हैं क्योंकि ये अब रायता के लिए चुनौती बन गए हैं. ये कई बार आरएसएस और बीजेपी को भी निशाने पर ले लेते हैं. 

हमने आपको बंगाल के चुनाव के संदंभ में गोभी का इस्तमाल दिखाया. आप सोच भी नहीं सकते कि ये लोग गोभी के रूपक से एक समुदाय के खिलाफ हिंसा की बात को बढ़ावा दे सकते हैं. छवियों और तस्वीरों के सहारे बात करने की इनकी शैली है. इस संदर्भ में एक और उदाहरण देना चाहता हूं.

कार्टून किरदार पेपे द फ्राग का उदाहरण. 2005 तक अमरीकी समाज में इस कार्टून का एक कॉमिक के माध्यम से आगमन होता है. एक आलसी किरदार के रूप में. धीरे धीरे लोकप्रिय होने लगता है और लोग अपने हिसाब से इस किरदार में जोड़ने घटाने लगते हैं. कुछ साल के बाद पेपे द फ्राग अमरीका में व्हाईट लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाता है और वह ब्लैक से श्रेष्ठ होने का दावा करने लगता है. फिर इसमें जर्मनी के नात्ज़ी दौर के हिंसक ख़याल जुड़ने लगते हैं. गार्डियन और बिजनेस इंसाइडर ने पेपे द फ्राग की विकास यात्रा का विश्लेषण किया है, आप उसकी साइट पर जाकर इस रिपोर्ट को देख सकते हैं. इसके रचनाकार मैट फ्यूरी चाहते थे कि लोग मेंढक से घिन न करें. उसे प्यार करें लेकिन हो गया उल्टा. पेपे द फ्राग दुनिया के अलग अलग हिस्सो में इंसानी आबादी के एक बड़े हिस्से से नफरत का प्रतीक बन गया. 2017 में इसे बनाने वाले अमरीका के मैट फ्यूरी ने पेपे बचाओ अभियान भी चलाया था लेकिन तब तक मामला हाथ से निकल चुका था. फ्यूरी आज भी अपने पेपे द फ्राग को नफरत की दुनिया से निकालने की कोशिश कर रहे हैं. द वायर में लिखने वाले आलीशान जाफरी ने हमें बताया कि भारत में भी पेपे द फ्राग को अपनाया गया. ट्रैड ने इसे हरा से भगवा कर दिया. मतलब वैसे दक्षिणपंथी जो रायतावादी हैं जिनसे ट्रैड नफरत करते हैं उन्हें भगवा मेंढक कर देते हैं, इन्हें अंबेडकरवादियों से भी नफरत हैं तो उसे ज़ाहिर करने के लिए मेंढक का रंग नीला कर देते हैं. मुसमलानों से नफरत का इज़हार करते वक्त मेंढक का रंग हरा कर देते हैं. पेपे द फ्राग के रूपक पर कई रिसर्च हुए हैं. नफरत के खिलाफ काम करने वाले विद्वान मानते हैं कि पेपे द फ्राग नात्ज़ी के प्रतीक चिन्ह स्वास्तिका की बराबरी का प्रतीक है. अब यह नफरत का सबसे प्रचलित प्रतीक बन गया है. बेचारा मेंढक. इसे क्या पता कि इसके नाम पर दुनिया में इंसान हैवानियत का कोड रच रहे हैं. I feel sad for the frog.

यह वो दक्षिणपंथ हैं जो हत्या और सत्यानाश के ज़रिए अपनी सर्वोच्चा स्थापित करने का ख्वाब देख रहा है. इसकी चपेट में आपके बच्चे आ रहे हैं, और बच्चों को इन तक पहुंचाने में समाज के कई लोगों की भूमिका है. ट्रैड पर काम करने वाले बताते हैं कि अब महिलाओं को भी उग्र और हिंसक नफरत की राह में धकेला जा चुका हैं, कई बार वे भी मुस्लिम महिलाओं के बलात्कार या हत्या को सही ठहराती रहती हैं.

जम्बूद्वीप के ये नए जंतु हैं. ज़ॉम्बी जंतु. अच्छे खासे स्वस्थ्य दिमाग़ को बीमार दिमाग़ में बदला जा रहा है. नफरत और हिंसा के अलावा इनकी भाषा ही नहीं है. इसका मतलब है कि ये सोच नहीं सकते. तर्क नहीं कर सकते. ऐसे लोग कहीं बदल न जाएं इसके लिए समय समय पर नफरत के मुद्दे लाए जाते हैं. कभी टेक फॉग एप के ज़रिए तो कभी गोदी मीडिया के ज़रिए. इस पूरी प्रक्रिया में लोगों के भीतर करुणा खत्म हो जाती है. दया और दर्द खत्म हो जाता है. सोशल मीडिया के दौर में ऐसे भी सोचने समझने की शक्ति कम होती जा रही है. हर कोई दो मिनट से कम का वीडियो देखना चाहता है. यानी जिज्ञासा और धीरज खत्म हो रहा है. इस बेचैनी का फायदा उठाकर आपके दिमाग में ऐसी सामग्री भरी जाती है जिससे आपका सोचना बंद हो जाता है. सही गलत का फर्क करना बंद हो जाता है. आप ज़ॉम्बी बन जाते हैं. जम्बूद्वीप के ज़ॉम्बी. मत बनिए. ट्रैड पर काम करने वाले आल्ट न्यूज़ के ज़ुबैर और प्रतीक का कहना है कि इनकी अपनी वेबसाइट होती हैं. जिस तरह से अमरीका में 8 चैन और 4 चैन चलता है उसी तर्ज पर भारत में भी इंडिया चैन चलता था जिस पर ट्रैड अपनी बात लिखते थे. अब इसे बंद कर दिया गया है.

ट्रैड को लेकर इधर उधर लिखा तो जा रहा था लेकिन इसके खतरे को अभी तक लोग कम आंक रहे थे. जब सुल्ली और बुल्ली बाई एप के मामले में विशाल झा, मयंक रावत, नीरज विश्नोई, अंशुमान ठाकुर और श्वेता सिंह की गिरफ्तारी हुई तब से ट्रैड की चर्चा फिर से सरेआम हुई है. कितने ऐसे नौजवानों को नफरत की सुरंग में धकेला जा चुका है, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. हमें इसके पीछे के लोगों और इन बातों के मनोविज्ञान को समझना ही होगा. इन लड़कों को नफरत की दुनिया में कौन धकेल रहा है, ये किस राजनीतिक बिरादरी के लोग हैं, आज अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो एक के उकसाने पर न जाने कितने लोग हत्यारे बन चुके होंगे.

इनके पकड़े जाने पर आलीशान ने ट्विटर अपना एक पुराना लेख साझा किया था जो उन्होंने और ज़फर आफ़ाक़ ने आर्टिकल 14 पर लिखा था. मई 2021में. इस लेख में दोनों ने बताया है कि फरज़ामा बेगम, ज़ालिम हिन्दू, पाकिज़ा मोमिना अलीमा, सायरा बेशरम, अर्जुन पंडित नाम से कई ट्विटर हैंडल बने हैं जिनसे नफरती बातें फैलाई जाती हैं. मुसलमानों के खिलाफ तरह तरह की हिंसक और नफरती बातें फैलाई जाती हैं. इनके ज़रिए पॉर्न वीडियो भी साझा होता है. समय समय पर इन अकाउंट को बंद किया जाता रहता है लेकिन ये किसी और नाम से कहीं और उग आते हैं. इस लेख में फेसबुक पर एक समूह का ज़िक्र है बहू लाओ बेटी बचाओ जिससे 48000 से अधिक लोग जुड़े थे. इस पर मुस्लिम लड़कियों से शादी की वकालत की जाती है. मुख्य धारा के नेता इन्हीं सब बातों को दूसरे तरीके से बोलते हैं. आपको याद होगा धारा 370 के हटने के बाद हरियाणा के मुख्यममंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा था कि धारा 370 हट गया है अब लोग वहां से लड़कियां ला सकते हैं.

सरकार समय समय पर संसद में जानकारी देती रहती है कि फर्ज़ी और भड़काऊ सामग्री वाले प्लेटफार्म को बंद किया गया है लेकिन क्या उसमें इस तरह के डिटेल होते हैं जिससे पता चले कि ट्रैड के अकाउंट बंद किए जा रहे हैं या नहीं. हरिद्वार में धर्म संसद में जिस तरह से नरसंहार की बातें कही गईं उसे लेकर इसलिए भी सतर्क होने की ज़रुरत है क्योंकि ऐसी बात करने वाले नरसिंहानंद ट्रैड के बीच बहुत पसंद किए जाते हैं. हिंसा की बात की निंदा करना कितना मुश्किल हो गया है. बीबीसी के अनंत जणाने ने एक सवाल क्या पूछ लिया यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या ने माइक ही उतार दी और वीडियो डिलिट करने के आदेश दे दिए. अनंत जणाने के मास्क को भी उतार दिया गया.

आप देख सकते हैं कि हिंसा की बात की निंदा करने में कितनी तकलीफ हो रही है. आईआईएम अहमदाबाद, आईआईएम बंगलुरु में पढ़ाने वाले प्रोफेसर और छात्रों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है कि धर्मसंसद में हिंसा की बात पर उनकी चुप्पी सही संदेश नहीं देती है.

ट्रैड के सामने सब चुप हैं क्योंकि ट्रैड उनके अपने भी हैं और उन्हीं के दुश्मन भी हैं. धर्म के नाम पर नफ़रत की सोच को एक खतरनाक मुकाम पर ले जाने वाला यह आंदोलन कभी भी बोतल में बंद जिन्न की तरह बाहर निकल सकता है.

ज़ॉम्बी तैयार हो चुके हैं. ये कब कहां और किस रूप में भगदड़ मचा देंगे किसी को पता नहीं है. अपने बच्चों को ज़ॉम्बी बनने से बचा लीजिए. नफरत की पॉलिटिक्स से आपको जीरो मिलने वाला है और जो आपके पास है वो भी ज़ीरो हो जाएगा. इतना तो जानते ही होंगे कि भारत का एक नाम जम्बूद्वीप है. तो अपने जम्बूद्वीप को ज़ॉम्बीद्वीप होने से बचा लीजिए.