'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह'- 1981 में आए अपने इस कविता संग्रह को जब विनोद कुमार शुक्ल ने यह नाम दिया होगा तब उन्हें खयाल नहीं होगा कि क़रीब पांच दशक बाद दिसंबर की एक शाम वे एक विचार की तरह ही चल देंगे. बीते कई दिनों से उनकी देह क्लांत थी, उनके लिए सांस लेना मुश्किल हो रहा था. कुछ अधीर मित्रों ने अस्पताल पर पड़ी उनकी काया की जो तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा की थीं, वे दुख पैदा कर रही थीं. अंततः वे चल ही दिए- पीछे छूट गई वह संवेदना जो उनकी पूरी रचनाशीलता का मूल तत्व थी और जिसे व्यक्त करने के बिल्कुल अनूठे तरीक़े उन्होंने विकसित किए थे.
उनसे मुलाकात की बस इकलौती, लेकिन मूल्यवान- स्मृति मेरे पास है. यह शायद 2018 का साल था जब मैं अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के बुलावे पर एक कार्यक्रम में चार दिन के लिए छत्तीसगढ़ गया था. तीन दिन धमतरी में गुज़ारने के बाद आख़िरी दिन मैं रायपुर में था और इस दिन को चूकना नहीं चाहता था. मुझे कवयित्री आभा दुबे का साथ मिला जो मुझे विनोद कुमार शुक्ल से मिलाने ले गईं. संयोग से- या सोच-समझ कर- वे अपने साथ 'पाखी' का विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित वह विशेषांक भी ले आई थीं जिनमें मैने उनके संग्रह 'अतिरिक्त नहीं' पर एक लेख लिखा था. उस शाम विनोद जी बहुत सहजता से मिले. अचानक बातचीत में मैंने न जाने क्यों आग्रह किया कि वे अपनी कविताएं सुनाएं. उन्होंने इस आग्रह का मान रखा. फिर मैंने कहा कि मैं इन्हें रिकॉर्ड भी कर लेता हूं तो अपने फोन पर वे कविताएं रिकॉर्ड भी कीं. विनोद कुमार शुक्ल की आवाज़ में वे कविताएं अब भी सोशल मीडिया पर मौजूद हैं.
विनोद कुमार शुक्ल लिख और छप तो सातवें दशक से रहे थे और अपनी सहज प्रयोगशीलता के साथ रचनाकर्म को बरत रहे थे, लेकिन कीर्ति संभवतः उन्हें कुछ देर से मिली. सत्तर और अस्सी के दशक बहुत ऊंची आवाज़ में सुनाई पड़ने वाली जनपक्षधर कविताओं के थे जिनके बड़े नायक नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवि थे. विनोद कुमार शुक्ल अपनी मद्धिम आवाज़ के साथ सुने जाते थे, लेकिन शायद विशिष्ट काव्य-मर्मज्ञों के दायरे में. उनमें न जनकवि जैसा कुछ होने की चाहत थी और न ही उनकी कविता का वह मिज़ाज था. लेकिन अपने पहले ही संग्रह 'लगभग जयहिंद' के साथ उन्होंने हिंदी संसार का ध्यान अपनी ओर खींचा. आने वाले वर्षों में उनके कविता संग्रह- 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह', 'सबकुछ होना बचा रहेगा', 'अतिरिक्त नहीं', 'कविता से बड़ी कविताएं' जैसे कई संग्रह आते चले गए और एक अलग से ऐसे कवि के रूप में उनकी ख्याति बड़ी होती चली गई है जो शब्दों में नई सांस भर देता है, जो करुणा को बिल्कुल पारदर्शी बना देता है, जिसकी चुप्पी भी बोलती है और जिसके बोलने में भी ख़ामोशी अपना एक घर बना लेती है.
लेकिन इसी दौरान उनके तीन उपन्यास ऐसे आए जिन्होंने एक विधा के रूप में उपन्यास को भी हिंदी में अलग आयाम दिए. 1979 में जब 'नौकर की कमीज़' छप कर आया तो सबने पाया कि यह बहुत मामूली से मध्यवर्गीय जीवन की कहानी है जिसमें कहानीपन बहुत कम है. इस उपन्यास में भी कविता ही थी- घर से निकलने का सुख इसलिए था कि लौटने के लिए एक घर था. बहुत छोटे-छोटे काम- पान खाना, सब्ज़ी लाना, पानी भरना, बाल्टी रखना, दोस्त से बात करना, दाढ़ी बनाना, सिनेमा देखना, पत्नी को कपड़े बदलते देखना- यह सब इतनी सहजता और इतने जादुई ढंग से उपन्यास में खुलता जाता था कि जीवन का मामूलीपन भी दमकने लगता था- इंसान होने की पहचान के साथ और इसी दमक के साथ वे मजबूरियां भी खुलती जाती थीं जो मध्यवर्गीय जीवन में डॉक्टर से इलाज कराने को भी स्थगित करती चलती हैं, जिनमें अपने दफ़्तर के वरिष्ठ अधिकारी के सामने व्यक्ति बेबस-लाचार मुद्रा अख्तियार किए रहता है जो उसका स्वभाव बन जाता है. इस उपन्यास की ख़ूबी क्या थी? बहुत सारे लोग इस यथार्थ के बीच जीते हैं, लेकिन वे इसे ठीक से महसूस नहीं कर पाते. जबकि विनोद कुमार शुक्ल के संतू बाबू इस यथार्थ को बहुत मार्मिकता से अनुभव और अभिव्यक्त भी करते हैं. यही वजह है कि कोई एकरैखिक कथासूत्र न होने के बावजूद, लगभग भाव-जगत की सीढ़ियों पर देर तक और दूर तक टहलते-टहलते एक अंत तक पहुंचने के बाद भी पाठक अपने-आप को इससे बंधा पाता है. इस उपन्यास के मर्म को बिल्कुल शुरुआती हिस्से की इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है- 'संघर्ष का दायरा बहुत छोटा था. प्रहार दूर-दूर से और धीरे-धीरे होते। चोट बहुत ज़ोर की नहीं लगती थी. शोषण इतने मामूली ढंग से असर डालता कि विद्रोह करने की किसी की इच्छा नहीं होती, या कि विद्रोह भी बहुत मामूली होता था. मेरा वेतन एक कठघरा था जिसे तोड़ना मेरे वश में नहीं था। वह कठघरा कमीज़ की तरह फिट था और मैं पूरी ताकत से कमज़ोर होने की हद तक वेतन पा रहा था. इस कठघरे में सूराख कर मैं सिनेमा देखता था या स्वप्न.
1986 में आए उनके दूसरे उपन्यास ‘खिलेगा तो देखेंगे' को वह कीर्ति नहीं मिली जो ‘नौकर की कमीज़' ने अर्जित की थी. शायद वह उपन्यास बहुत सारे पाठकों को बहुत वायवीय लगा. लेकिन साल 2000 में आया उनका एक और उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी'- उनके औपन्यासिक संसार के जाने-पहचाने मामूलीपन को एक अलग आयाम देता हुआ आया. यहां स्कूल में पढ़ाने वाले रघुबर दास हैं जो अपनी पत्नी सोनसी के साथ जब अपनी कल्पना में खिड़की के पार उतर जाते हैं तो एक जादुई, मनोरम और सम्मोहक दुनिया उनके आगे बिछ जाती है. यहां भी जीवन अपनी निपट सरलता के साथ प्रगट होता है- दैनंदिन ब्योरों में, तरह-तरह के संकटों में, उनको दूर करने वाले उपायों में और उन कल्पनाओं में जो जीवन को अचानक सहनीय और सरस बना डालती हैं. हालांकि, ये उपन्यास अपनी प्रशंसा के साथ अपनी आलोचना भी लेकर आए. इनमें रूपवाद की प्रतिष्ठा देखी गई. जीवन के वास्तविक संघर्षों से मुंह चुराना देखा गया। माना गया कि ये उपन्यास ठोस यथार्थ की जगह उसके एक वायवीय रूप को सामने रखते हैं. लेकिन इन आलोचनाओं के बावजूद उनके उपन्यासों का मोल बना रहा.
इस पूरे दौरान उनकी कविताएं- जो शायद उनकी रचनाशीलता का मूल स्रोत रहीं और उनके उपन्यासों में भी प्रगट होती रहीं- उनको अलग कीर्ति दिलाने वाली साबित हुईं. उनकी कुछ कविताएं तो बिल्कुल उद्धरणों की तरह इस्तेमाल की जाने लगी हैं. मसलन ‘अतिरिक्त नहीं' संग्रह की यह पहली कविता- ‘हताशा में एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था / इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया / मैंने हाथ बढ़ाया / मेरा हाथ पकड़ कर वह उठ खड़ा हुआ / वह मुझे नहीं जानता था / मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था / हम दोनों साथ चले / दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे / साथ चलने को जानते थे।‘
विनोद कुमार शुक्ल दरअसल अपनी कविता में दो काम ख़ास तौर पर करते रहे। वे दिए गए शब्दों में छुपे अधिकतम अर्थों को संभव करते रहे. शायद केदारनाथ सिंह के यहां शब्दों के साथ जो खेल है, वह अलग ढंग से विनोद कुमार शुक्ल के यहां खुलता रहा. वे जैसे शब्दों की आत्मा के सूखे कुएं में झांक कर बिल्कुल तल में बसे दुख को निकाल लाते थे. दूसरा काम वे काल और कालातीत को जोडने का करते थे. वे एक क्षण को पकड़ते थे और उसे बिल्कुल शाश्वत बना डालते थे. उनकी कविता में एक विशाल चट्टान के ऊपर एक दूसरी चट्टान इस तरह रखी हुई है जैसे वह कभी भी गिर सकती है. ‘कभी भी' का वह लम्हा न जाने कब से स्थगित है और जो चट्टान ‘अभी-अभी गिरने को है', वह न जाने कब से टिकी हुई है. गिरने की क्षणिकता और न गिरने की कालातीतता के बीच बनी कविता अचानक एक मानवीय उपस्थिति से नई और बड़ी हो उठती है.
फिर वे अदृश्य में छुपे दृश्य को पकड़ रहे होते थे। अदृश्य के इस संधान को विनोद कुमार शुक्ल अन्यत्र बहुत ठोस ढंग से कह भी डालते हैं, ‘कि नहीं होने को / टकटकी बांध कर देखता हूं / आकाश में / चंद्रमा देखने के लिए/ चंद्रमा के नहीं होने को। (कि नहीं होने को)
वे समय की सीमा को भी अपनी दृष्टि से अतिक्रमित करना चाहते थे. वे बाक़ायदा अपनी कविता में पूछते हैं, ‘कटक को कैसे देखूं कि वह मुझे हज़ार वर्ष से . बसा हुआ दिखे' और कहते हैं ‘हज़ार वर्ष से बह रहा है इन नदियों का जल . हज़ार वर्ष के इस आकाश को इस समय का आकाश . हज़ार वर्षों की आज की रात्रि में एक स्वप्न . कि कटक बसने की पहली रात्रि में . एक निवासी स्वप्न देख रहा है . उसके स्वप्न में मैं हूं और मेरे स्वप्न में वह. (हज़ार वर्ष पुराना है कटक)
यह सच है कि विनोद कुमार शुक्ल के हिस्से वास्तविक ख्याति काफी देर से आई. उनको अस्सी पार करने के बाद अहम पुरस्कार मिले. उन्हें इसी दौर में ज्ञानपीठ मिला. इसी दौर में उनकी किताबों के अंग्रेज़ी में अनुवाद हुए और उन्हें पेन नोबोकोव सम्मान मिला. इसी दौर में उन्होंने रायल्टी न मिलने की शिकायत की जिसे मानव कौल ने साझा किया और फिर रायल्टी पर बहस चली. और इसी दौर में हिंद युग्म ने उनकी किताबों के अधिकार लिए और छह महीने के भीतर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी' के लिए उन्हें तीस लाख रुपये की रायल्टी देकर हिंदी के संसार को चकित कर दिया. हालांकि इसी दौरान छत्तीसगढ़ में माओवाद विरोधी अभियानों के नाम पर सुरक्षा बलों की ज्यादती और आदिवासियों के दमन को लेकर उनकी चुप्पी के लिए भी उन्हें निशाने पर लिया गया. हालांकि कम लोगों ने लक्ष्य किया कि वे इस विषय पर भी अपनी चुप्पी अपनी जानी-पहचानी मार्मिकता के साथ तोडते रहे हैं.
बहरहाल, अब जब वे चुप रहने और बोलने की अपेक्षाओं के पार जा चुके हैं, उनके शब्द हमारे बीच हैं जो हमें संवेदनशील बनाते हैं. उनकी कृतियां हिंदी के समृद्ध संसार को कुछ और समृद्ध करती हैं. उनका न होना हमें खलेगा, लेकिन उनकी कृतियां उन्हें हमारे बीच जीवित रखेंगी.
डिस्क्लेमर: लेखक एनडीटीवी इंडिया के सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.














