जब अदालतें पहाड़ तय करने लगें... अरावली पर SC के 100 मीटर वाले फैसले की असहज करने वाली सच्चाई

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Satyam Baghel

जब पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल रखा कि आखिर 'अरावली की पहाड़ी' की परिभाषा क्या होनी चाहिए, तो उम्मीद थी कि देश की सबसे प्राचीन और संवेदनशील पर्वतमालाओं में से एक को और मजबूत कानूनी सुरक्षा मिलेगी. लेकिन जो सामने आया, वह स्पष्टता से ज़्यादा एक तकनीकी, ऊंचाई आधारित मापदंड है. ऐसा मापदंड, जो संरक्षण को मजबूत करने के बजाय उसे सीमित करने का औजार बन सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के नवंबर के आदेश में यह स्वीकार किया गया कि किसी भू-आकृति को अरावली की पहाड़ी मानने के लिए उसका स्थानीय स्तर से कम से कम 100 मीटर ऊंचा होना जरूरी है, साथ ही कुछ 'क्लस्टरिंग नियम' तय किए गए ताकि पर्वतमालाओं की पहचान हो सके. कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि सस्टेनेबल माइनिंग के लिए मैनेजमेंट प्लान तैयार किया जाए और उसके अंतिम रूप लेने तक नए खनन पट्टों पर रोक रहे. सरकार का दावा है कि इससे वर्षों से चली आ रही अस्पष्टता खत्म होगी, नियमों का दुरुपयोग रुकेगा और संरक्षण कमजोर नहीं होगा. इसके समर्थन में बार-बार यह आंकड़े गिनाए जा रहे हैं कि अरावली क्षेत्र का 90% से ज्यादा हिस्सा अब भी सुरक्षित है और खनन की अनुमति केवल 0.19% क्षेत्र तक सीमित होगी.

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कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां ही हैं अरावली की खासियत

ये आंकड़े सुनने में सुकून देते हैं, लेकिन इनके पीछे छिपी खामियां कहीं ज़्यादा गहरी हैं. प्रक्रिया में भी और सोच में भी. अरावली सिर्फ ऊंची-नीची चोटियों का समूह नहीं है, जिसे किसी ऊंचाई की कसौटी से छांट दिया जाए. यह लगभग 650 किलोमीटर लंबी, अत्यंत प्राचीन और क्षरित पर्वत प्रणाली है, जो दिल्ली से हरियाणा, राजस्थान होते हुए गुजरात तक फैली है. इसकी असली पारिस्थितिक ताकत ऊंची चोटियों में नहीं, बल्कि उन्हीं कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों, कगारों, ढलानों और पठारों में है, जिन्हें यह नया मानदंड बाहर कर सकता है. यही संरचनाएं देश के सबसे जल-संकटग्रस्त इलाकों में भूजल रिचार्ज करती हैं, मिट्टी को स्थिर रखती हैं, स्थानीय जलवायु को संतुलित करती हैं, जैव विविधता को सहारा देती हैं और पश्चिम से बढ़ते मरुस्थलीकरण व धूल के हमलों के खिलाफ एक प्राकृतिक दीवार बनती हैं. इस पूरे जटिल तंत्र को सिर्फ 100 मीटर ऊंचाई के तराजू पर तौलना, प्रकृति के काम करने के तरीके को नज़रअंदाज़ करना है.

तो क्या SC तय करेगा पैमाने?

इससे भी पहले एक बुनियादी संवैधानिक सवाल खड़ा होता है. क्या पहाड़ियों और पर्वत प्रणालियों की वैज्ञानिक परिभाषा तय करना सुप्रीम कोर्ट का काम है? पर्यावरण संरक्षण में भारतीय न्यायपालिका की भूमिका ऐतिहासिक रही है, खासकर अनुच्छेद 21 के तहत, जहां उसने कार्यपालिका की निष्क्रियता के बीच हस्तक्षेप किया है. लेकिन अदालतें वैज्ञानिक संस्थान नहीं हैं. भू-आकृतिक और पारिस्थितिक परिभाषाएं न्यायिक आदेशों से तय करना न्यायिक निगरानी और वैज्ञानिक निर्णय के बीच की रेखा को धुंधला करता है. अगर अदालतें आज पहाड़ियों की परिभाषा तय करेंगी, तो कल बाढ़ क्षेत्र, आर्द्रभूमि (wetland), रेगिस्तान या तटीय इकोलॉजी की सीमाएं कौन तय करेगा? यह रास्ता पर्यावरण संरक्षण को विज्ञान आधारित एहतियात के बजाय न्यायिक फरमानों पर टिकाने की ओर ले जाता है.

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जिस वैज्ञानिक आधार पर यह नई परिभाषा टिकी है, वह भी कमजोर है. 2010 में फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया और सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी द्वारा किया गया अभ्यास मुख्यतः जंगल-केंद्रित और सलाहकारी था. वह न तो बहु-विषयक था और न ही भूजल रिचार्ज, वन्यजीव गलियारों, रिज की निरंतरता और जलवायु भूमिका जैसे अहम पहलुओं को समग्र रूप से आंकने के लिए डिज़ाइन किया गया था. 2025 में, जब शहरी विस्तार, खनन दबाव और भूमि उपयोग में भारी बदलाव हो चुके हैं, उसी पुराने अभ्यास को निर्णायक मान लेना, भारत के पर्यावरण कानून की मूल भावना 'एहतियाती सिद्धांत' के खिलाफ जाता है.

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इसकी व्यावहारिक कीमत भी चुकानी पड़ेगी. 100 मीटर का कट-ऑफ एक कुंद औज़ार है. इससे नीचे आने वाली कई ऐसी पहाड़ियां और रिज बाहर हो जाएंगी, जो धूल को रोकती हैं और भूजल रिचार्ज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं. कोर्ट द्वारा निर्देशित मैपिंग प्रक्रिया अभी पूरी भी नहीं हुई है, लेकिन परिभाषा को पहले ही लागू किया जा रहा है. यानी विज्ञान बाद में, नियम पहले. तर्क का क्रम उलटा.

अर्थहीन क्यों नजर आते हैं सरकारी आंकड़े

सरकार द्वारा पेश किए जा रहे प्रतिशत आंकड़े भी तब तक अर्थहीन हैं, जब तक सार्वजनिक रूप से उपलब्ध, जियो-रेफरेंस्ड नक्शे, खनन पट्टों की पूरी सूची, छूटों का ब्योरा और स्वतंत्र निगरानी व्यवस्था सामने न हो. प्रेस ब्रीफिंग में प्रतिशत राहत दे सकते हैं, लेकिन ज़मीन पर संरक्षण लागू नहीं करते.

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इसका असर सिर्फ अरावली तक सीमित नहीं रहेगा. उत्तर भारत का इंडो-गैंगेटिक मैदान पहले ही दुनिया के सबसे प्रदूषित इलाकों में है. सर्दियों में तापमान उलटाव और भौगोलिक बनावट प्रदूषकों को जमीन के पास फंसा देती है. ऐसे में धूल या उत्सर्जन में थोड़ी सी बढ़ोतरी भी गंभीर स्मॉग संकट में बदल जाती है. अरावली की टूटी-फूटी रिज इस धूल को रोकने और जलवायु को संतुलित करने में अहम भूमिका निभाती हैं. इनके संरक्षण में थोड़ी-सी ढील भी एक पहले से दमघोंटू एयरशेड पर अतिरिक्त बोझ डालेगी. स्वास्थ्य अध्ययन लगातार बताते हैं कि इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण के कारण करोड़ों जीवन-वर्ष नष्ट हो रहे हैं. यहां पारिस्थितिक गलती की गुंजाइश बेहद कम है.

जल संकट और भी गहरा

जल सुरक्षा का खतरा और भी गहरा है. अरावली से होने वाला भूजल रिचार्ज राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के कृषि, उद्योग और शहरों की जीवनरेखा है. एक बार ये रिचार्ज जोन क्षतिग्रस्त हो गए, तो अदालतों की समीक्षा या नए प्लान उन्हें वापस नहीं ला पाएंगे. तब तक एक्विफर खाली हो चुके होंगे.

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तो फिर उपाय क्या है?

यह तर्क नहीं है कि अदालतें पर्यावरण से पीछे हट जाएं. बल्कि यह कि उनकी निगरानी बेहतर विज्ञान की मांग करे, उसका स्थान न ले. समझदारी इसी में है कि नई परिभाषा को लागू करने से पहले एक हाई-रिज़ॉल्यूशन, बहु-विषयक अरावली सर्वे पूरा हो और सार्वजनिक किया जाए. जब तक वह डेटा सामने न आए, नए और नवीनीकृत खनन पट्टों पर रोक बनी रहे. सैटेलाइट इमेजरी, फील्ड वेरिफिकेशन और सिविल सोसाइटी की भागीदारी के साथ स्वतंत्र निगरानी को अनिवार्य बनाया जाए. और सबसे अहम बात- संरक्षण का आधार ऊंचाई नहीं, पारिस्थितिक कार्य होना चाहिए: जल रिचार्ज, जैविक कनेक्टिविटी और जलवायु संतुलन.

अरावली कोई कंटूर मैप पर खींची गई रेखाएं नहीं हैं. वे करोड़ों लोगों के लिए पानी, हवा और जलवायु स्थिरता की जीवनरेखा हैं. एक ऐसे देश में, जिसने पर्यावरणीय शॉर्टकट्स की भारी कीमत चुकाई है, विज्ञान पूरा होने से पहले संरक्षण को फिर से परिभाषित करना एक ऐसा जोखिम है, जिसे भारत वहन नहीं कर सकता. अगर सरकार और न्यायपालिका सच में संरक्षक बनना चाहते हैं, तो विज्ञान को आगे चलने देना होगा. उसके पीछे नहीं.

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(यह भावरीन कंधारी के विचार हैं.)