पंडित छन्नूलाल मिश्र: बनारस, भक्ति और भावुकता का स्वर

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अनुराग द्वारी

बचपन से ही पंडित छन्नूलाल मिश्र जी का स्वर हमारे कानों में गूंजता रहा. आकाशवाणी के कार्यक्रम हों या बुश के टेप रिकॉर्डर में चलती उनकी कैसेट...'खेलें मसाने में होली…' और 'ऐही मोदम देही श्रीकृष्णा…' सुनकर लगता कि ये आवाज़ सिर्फ़ संगीत नहीं, बल्कि गंगा की धारा और काशी की आत्मा है.

लेकिन 2010 की मॉनसून एक्सप्रेस यात्रा मेरी स्मृतियों में आज भी उतनी ही ताज़ा है. बनारस के उनके घर पहुंचा था इंटरव्यू के लिए. ठेठ बनारसी माहौल, तानपुरे की गूंज और दरवाज़े पर वही सहज मुस्कान. इंटरव्यू के दौरान जब कृष्ण और राधा की रासलीला पर चर्चा शुरू हुई, तो मैं भावुक हो गया... मेरी आंखों से आंसू छलक पड़े. तभी ठेठ बनारसी अंदाज़ में हंसते हुए बोले...''ई तो बड़ा भावुक हैं भइया…''

असल में वही भावुकता उनका संगीत था... गंगा की तरह गहरा और काशी की तरह सहज.

मृत्यु और जीवन 

छन्नूलाल जी की गायकी में सिर्फ शास्त्रीय अनुशासन नहीं था, बल्कि उसमें देस की खुशबू भी थी. मसान की होली गाते हुए वे मृत्यु और जीवन के बीच का पुल रच देते थे... श्मशान की नीरवता में भी संगीत का उल्लास भर देते थे.

और जब वे कृष्ण भक्ति में डूबते, तो रासलीला के हर भाव में लोक और शास्त्र का अद्भुत संगम दिखाई देता. उनकी ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी हर शैली में बनारस की आत्मा बोलती थी.

तीन अगस्त 1936 को आज़मगढ़ के हरिहरपुर में जन्मे छन्नूलाल जी की जड़ें खुद परंपरा में डूबी थीं. पिता बद्री प्रसाद मिश्र से राग की बारीकियां सीखीं और उस्ताद अब्दुल गनी ख़ान से ख़याल की तालीम पाई. ठाकुर जयदेव सिंह जैसे आचार्यों से साधना को और धार मिली.

बिहार से बनारस और फिर दुनिया तक, उन्होंने संगीत को सिर्फ़ मंच पर नहीं गाया, बल्कि जीवन के हर क्षण में जिया. 
2000 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2010 में पद्मभूषण और 2021 में पद्मविभूषण. 

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एक संगीत साधक का जीवन

मेरे लिए उनकी याद सिर्फ़ एक कलाकार की नहीं, बल्कि एक ऐसे साधक की है जिसने जीवन को राग में ढाल दिया. बनारस में उनसे मिलते हुए जो भावुकता मिली, वही आज उनकी स्मृति में भी छलक रही है.

आज जब यह ख़बर आई कि वे नहीं रहे, तो मन ने अनायास गाया... 'नाद गंगा के तरंगन में, आज भी गूंजत है तोहार सुर, बाबा…'

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ई बनारस तोहार रोवत बा…
अब कौन गइहैं, भइया?
गंगा किनारे से उठि गइले, पर सुरन के काया में बसि गइले.”

छन्नूलाल जी, आप चले गए, पर आपके सुर अब अनहद नाद बनकर गूंजते रहेंगे.
आपकी हर तान में काशी है, हर बंदिश में लोक और शास्त्र का संगम है, और हर सुर में हमारी आत्मा की थिरकन.

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आप सचमुच ... सदाशिव, शाश्वत, अमर हैं... सुरों में...

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