कैसे दी जाए मृत्युदंड की सजा?

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सुभाष कुमार ठाकुर

सुप्रीम कोर्ट में मौत की सजा देने के तरीकों को लेकर बहस हई. इस मामले में जनहित याचिका दायर करने वाले वकील का कहना है कि फांसी पर लटका कर मृत्युदंड दिए जाने की जगह कोई जहरीला इंजेक्शन दिया जाए. याचिकाकर्ता वकील ऋषि मल्होत्रा की दलील है कि इससे सजा पाने वाले की पीड़ा कम होगी. साल 2017 में दायर इस याचिका पर जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता का पीठ सुनाई कर रहा है.

याचिकाकर्ता का कहना है कि फांसी द्वारा दी जाने वाली मौत की सजा संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है, क्योंकि इस प्रक्रिया में मृत्यु होने में करीब 40 मिनट तक का समय लगता है, जबकि अन्य विकल्पों से मृत्यु लगभग तुरंत हो जाती है. वहीं सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील सोनिया माथुर का तर्क था कि मृत्युदंड के तरीके में परिवर्तन एक नीतिगत निर्णय है, जो न्यायालय के बजाय सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है. उनकी दलील है कि इस प्रकार का विकल्प व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है. इस पर कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए तीखी टिप्पणी की. अदालत ने कहा कि सरकार इस संवेदनशील विषय पर बदलाव लाने या सोचने के लिए तैयार प्रतीत नहीं हो रही है. याचिकाकर्ता ने स्पष्ट किया कि यदि मृत्युदंड देना ही अपरिहार्य है तो दोषी को कम कष्टदायी विकल्प चुनने का अधिकार होना चाहिए. वकीलों का तर्क था कि लीथल इंजेक्शन को व्यापक रूप से त्वरित और कम यातनादायक माना जाता है, जबकि फांसी क्रूर और दीर्घ-कालिक पीड़ा देने वाली होती है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि समय के साथ चीजें बदल चुकी हैं, लेकिन सरकार परिवर्तन के लिए तैयार नहीं है. याचिका पर अगली सुनवाई 11 नवंबर को होगी. उल्लेखनीय है कि अमेरिका के 50 में से 49 राज्यों ने मृत्युदंड के लिए लीथल इंजेक्शन को अपनाया है. विधि आयोग ने भी अपनी 187वीं रिपोर्ट में फांसी की जगह लीथल इंजेक्शन जैसे कम पीड़ादायक विकल्प को अपनाने की सलाह दी थी.

क्या सजा देने में भी संवेदनशीलता हो सकती है

भारत में मृत्युदंड को लेकर चल रही बहस अब केवल अदालती मामला नहीं है, बल्कि यह हमारी लोकतांत्रिक संवेदनशीलता के लिए भी परीक्षा की घड़ी है. यह याचिका न केवल मृत्युदंड के तरीके पर प्रश्न उठाती है, बल्कि यह भी पूछती है कि क्या राज्य के पास किसी व्यक्ति का जीवन छीनने का नैतिक अधिकार है? भारत की न्यायिक व्यवस्था में मृत्युदंड आज भी एक वैधानिक प्रावधान है. भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के तहत यह दंड हत्या, बलात्कार के साथ हत्या, आतंकवादी गतिविधियों और राजद्रोह जैसे अपराधों के लिए निर्धारित है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 1980 में 'बच्‍चन सिंह बनाम पंजाब राज्य' मामले में यह सिद्धांत स्थापित किया था कि मृत्युदंड केवल 'दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों' में ही दिया जा सकता है. लेकिन 'दुर्लभतम' की यह परिभाषा न्यायाधीशों की दृष्टि पर निर्भर करती है, जिससे न्यायिक विवेक में असमानता बनी रहती है.

एमनेस्टी इंटरनेशनल के 2024 के आंकड़े बताते हैं कि भारत की निचली अदालतों ने इस साल 139 मृत्युदंड के फैसले दिए हैं, यह पिछले साल (120) की तुलना में 14 फीसदी अधिक हैं. इनमें से अधिकांश मामलों में अभियुक्त निम्न आय वर्ग या सामाजिक रूप से हाशिए पर स्थित जातियों से थे. लेकिन यही आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि ऊपरी अदालतों ने इनमें से बड़ी संख्या को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया. यह विरोधाभास भारतीय न्याय व्यवस्था की असमानता को रेखांकित करता है. जहां निचली अदालतों में मृत्युदंड एक आम दंड बनता जा रहा है, वहीं उच्च अदालतें उसे संवैधानिक करुणा के सिद्धांत से संतुलित करती हैं. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के पहल 'प्रोजेक्ट 39A' ने साल 2023 की रिपोर्ट में खुलासा किया कि भारत में मृत्युदंड पाने वाले करीब 74 फीसदी कैदी आर्थिक रूप से कमजोर तबकों से हैं. वहीं 76 फीसदी के पास उच्च शिक्षा नहीं है. इससे भी अधिक चिंताजनक यह तथ्य है कि 90 फीसदी से अधिक मृत्युदंड प्राप्त कैदी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित हैं. यह असमानता किसी भी सभ्य न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट करती है. रिपोर्ट यह भी बताती है कि साल 2023 तक भारत की विभिन्न जेलों में 561 लोगों को मौत की सजा सुनाई जा चुकी थी. ये लोग फांसी का इंतजार कर रहे थे. भारत की जेलों में मृत्युदंड पाए 56 फीसदी कैदी पांच साल से अधिक समय से फांसी की प्रतीक्षा में हैं. कई मामलों में तो कैदी 10 साल से अधिक समय तक एकांत कारावास में रहे. यह न केवल मानवीय अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि मानसिक प्रताड़ना का एक रूप भी है. न्यायिक प्रक्रिया में इतनी देरी अपने आप में मरने से पहले ही मरने जैसा है.

दुनिया के कितने देशों ने खत्म कर दिया है मृत्यु दंड

'वर्ल्ड कोएलिशन अगेंस्ट द डेथ पेनल्टी' की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 144 देशों ने मृत्युदंड को पूरी तरह समाप्त कर दिया, जबकि 55 देशों में अब भी मृत्युदंड लागू है. इनमें से अधिकांश एशिया और मध्य पूर्व क्षेत्र के देश हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में चीन, ईरान, सऊदी अरब, मिस्र और अमेरिका ने सबसे अधिक मृत्युदंड दिए. इन देशों में चीन का आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया जाता, लेकिन अनुमानित तौर पर वहां हर साल हजारों लोगों को मृत्युदंड दिया जाता है. भारत का नाम उन देशों में है, जहां मृत्युदंड अब भी लागू है, परंतु इसका प्रयोग सीमित है. आखिरी बार चर्चित फांसी 2020 में निर्भया गैंगरेप केस के दोषियों को दी गई थी. लेकिन यही तथ्य बताता है कि भारत में मृत्युदंड न्याय से अधिक प्रतीकात्मक बन चुका है— एक ऐसा दंड जो शायद कानून की कठोरता दिखाता है, पर अपराध को रोक नहीं पाता.

एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विश्व के जिन देशों ने मृत्युदंड को समाप्त किया, वहां अपराध दर में कोई वृद्धि नहीं हुई. इसके विपरीत, कई देशों ने पाया कि कठोर दंड से अपराध कम नहीं हुए, बल्कि सुधारात्मक नीतियों और सामाजिक न्याय के उपायों से दीर्घकालिक परिणाम अधिक प्रभावी रहे. यह निष्कर्ष भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां अपराध रोकने की बजाय दंड देने पर अधिक बल दिया जाता है. भारत सरकार ने हाल ही में पारित तीन नई संहिताओं— भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से न्याय प्रणाली को अधिक पारदर्शी और आधुनिक बनाने का प्रयास किया है. इन सुधारों के तहत दया याचिका की प्रक्रिया को 18 महीने की समय सीमा में पूरा करने का प्रावधान जोड़ा गया है. पहले यह प्रक्रिया सालों तक लंबित रहती थी. इससे दोषियों को अनिश्चित प्रतीक्षा में रहना पड़ता था. इस सुधार का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि राज्य की 'करुणा' समय पर और निष्पक्ष रूप से लागू हो, न कि कैदियों को सालों तक मानसिक त्रासदी से गुजरना पड़े.

हालांकि, यह सुधार केवल सतही समाधान हैं. असली प्रश्न यह है कि क्या मृत्युदंड वास्तव में आवश्यक है? क्या यह अपराधियों को भयभीत करता है, या केवल प्रतिशोध की भावना को तुष्ट करता है? सामाजिक मनोविज्ञान कहता है कि कठोर दंड अपराध को नहीं रोकता, बल्कि यह केवल बदले की मानसिकता को संस्थागत रूप देता है. न्यायिक त्रुटियों की संभावना और अभियोजन तंत्र की सीमाएं यह खतरा पैदा करती हैं कि निर्दोष भी फांसी के फंदे तक पहुंच सकते हैं. 

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क्या सजा से समाज में आता है सुधार

मृत्युदंड के पक्ष में तर्क देने वाले अक्सर इसे 'निवारक दंड' बताते हैं. उनका कहना है कि इससे समाज में भय उत्पन्न होता है और घृणित अपराधों पर नियंत्रण लगता है. लेकिन आंकड़े इस दावे का समर्थन नहीं करते. भारत में 2024 में मृत्युदंड के 139 फैसलों के बावजूद हत्या और बलात्कार के मामलों में वृद्धि दर्ज की गई. यह दर्शाता है कि मृत्युदंड अपराध को रोकने में कारगर नहीं है. दूसरी ओर, मृत्युदंड के विरोधी इसे 'राज्य प्रायोजित हिंसा' मानते हैं. उनका तर्क है कि यदि राज्य ही जीवन का हरण करता है, तो वह नागरिकों से नैतिक श्रेष्ठता कैसे मांग सकता है? संयुक्त राष्ट्र महासभा भी इस विचार का समर्थन करते हुए कई बार मृत्युदंड पर वैश्विक स्थगन की सिफारिश कर चुकी है.

भारत के संदर्भ में यह बहस और भी गहरी है. यहां न्यायिक देरी, अपील प्रक्रिया की जटिलता, पुलिस की विवेचना की कमियां और कानूनी सहायता की असमानता— ये सब मिलकर मृत्युदंड को 'कानूनी हत्या' जैसा बना देते हैं. राज्य द्वारा किसी व्यक्ति को जीवन से वंचित करना केवल विधिक नहीं, बल्कि नैतिक प्रश्न भी है. संविधान का अनुच्छेद 21 हर व्यक्ति को 'जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता' का अधिकार देता है. जब वही राज्य किसी व्यक्ति का जीवन समाप्त करता है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या वह अपने ही संविधान की आत्मा के विरुद्ध नहीं जा रहा? न्याय का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि समाज को सुधारना और मानवता की रक्षा करना भी है. यदि किसी व्यक्ति को सुधार की संभावना के बिना मृत्यु की सजा दी जाती है, तो यह न केवल व्यक्ति, बल्कि समाज की नैतिक चेतना की भी मृत्यु है.

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इस समय भारत को यह तय करना होगा कि वह किस ओर बढ़ना चाहता है— एक ऐसा राष्ट्र जो अपराध के भय से कानून बनाता है, या वह जो न्याय और करुणा के सह-अस्तित्व को अपनाता है. एमनेस्टी इंटरनेशनल के आंकड़े भी बताते हैं कि विश्व की अधिकांश लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं मृत्युदंड को खत्म कर चुकी हैं. भारत जैसे लोकतंत्र के लिए यह केवल कानून बदलने का नहीं, बल्कि सोच बदलने का क्षण है. इसलिए आज जब सुप्रीम कोर्ट यह विचार कर रहा है कि फांसी को लीथल इंजेक्शन (जहरीले इंजेक्शन) से बदला जाए या नहीं, असली प्रश्न यह नहीं है कि कौन-सा तरीका अधिक मानवीय है. असली प्रश्न यह है कि क्या किसी भी रूप में हत्या, चाहे वह राज्य द्वारा क्यों न की जाए, मानवीय हो सकती है?

डिस्क्लेमर: लेखक बिहार के बाबासाहेब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के राजनीति विज्ञान विभाग में शोध छात्र हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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