Book Review: डी.एस.बी के गलियारों से: नैनीताल की स्मृतियों और संवेदनाओं की यात्रा

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हिमांशु जोशी

'डी.एस.बी के गलियारों से' किताब स्मिता कर्नाटक की संवेदनशील लेखनी का नमूना है. वो नैनीताल की बदलती तस्वीर और व्यक्तिगत स्मृतियों को बखूबी समेटती हैं. देहरादून के 'समय साक्ष्य' प्रकाशन से इसी साल जून में प्रकाशित इस किताब की शुरुआत में लेखक ने 'अतीत के गलियारों' को काव्यात्मक अंदाज में पिरोया है, जो उनके नैनीताल स्थित डीएसबी कॉलेज और नैनीताल से जुड़ी उनकी यादों को जीवंत करता है. 'पसीना एक ही जैसा है, उसके भाव अलग हैं', जैसी पंक्तियां पाठकों को किताब से जोड़ने की अद्भुत क्षमता रखती हैं. किताब का कवर पेज आकर्षक है, जो चित्रों के माध्यम से कहानी को बोलता-सा प्रतीत होता है.

नैनीताल की स्मृतियां और बदलता स्वरूप

स्मिता कर्नाटक जब बचपन में पढ़ने के लिए नैनीताल पहुंची, तब से उन्होंने नैनीताल को एक सपने की तरह चित्रित किया है. जहां 'सफेद पन्ने पर काली स्याही से बना चित्र हकीकत बन गया' जैसी पंक्ति शहर के प्रति उनके गहरे लगाव को दर्शाती हैं. किताब में नैनीताल के इतिहास और वर्तमान का बारीकी से वर्णन है, जो बदलते वक्त को दर्शाता है. लेखक ने शेरवानी लॉज के होटल बनने और जहांगीराबाद के बंगले के तोड़कर आरिफ कैसल बनने जैसे बदलावों को संवेदनशीलता से लिखा है. नैनीताल का टूरिस्ट प्लेस बनने से स्थानीय लोगों पर पड़े प्रभाव, जैसे फ्लैट्स का आंगन से पार्किंग में बदलना और रिक्शों की जगह ई-रिक्शा का आना, इनको लेखक ने दर्द के साथ उकेरा है. यह किताब कई बार नैनीताल की आत्मकथा-सी लगती है, जो शहर के पुराने वैभव के मटियामेट होने की कहानी कहती है.

किताब में मानवीय रिश्तों और संवेदनाओं का चित्रण दिल को छू लेता है. 'मेरे लिए वे हमेशा बालों में सफेदी लिए मां थीं जो अपने बच्चों की जरूरत से ज्यादा चिंता करती थी' और 'जिंदगी के मुश्किल सवाल अब भी हल न हुए. जरा-जरा सी बात पर 'शाबाश' कहने वाले वो पिता जो नहीं रहे' जैसी पंक्तियां माता-पिता और बच्चों के रिश्तों को गहराई से उजागर करती हैं. स्मिता की लेखनी गद्य से पद्य में सहजता से प्रवाहित होती है, जो उनकी खासियत है. किताब के किस्से, जैसे 'वार्षिकोत्सव', नॉस्टेल्जिया जगाते हैं और पाठकों को अपनी स्मृतियों में ले जाते हैं. हर किस्से का शीर्षक प्रभावी है और कहानियां अपने आप में पूर्ण हैं.

सामाजिक चित्रण और लैंगिक भेदभाव

किताब एक युवा लड़की की नजर से समाज में लड़कियों के प्रति व्यवहार और भेदभाव को दर्शाती है. लेखक ने लड़कों की पीछा करती नजरों से डरती लड़की और अनजान व्यक्ति से शादी जैसे सामाजिक बंधनों को संवेदनशीलता से उकेरा है. 'भाई वहां कॉलेज में पढ़ रहा था और लड़का था तो मां का वहां रहना जरूरी था, अकेला रहकर बेटा खाना कैसे बनाता?' जैसी पंक्तियां पुरुषप्रधान समाज पर सवाल उठाती हैं. इसके साथ ही, ट्रांज़िस्टर से पिक्चर हॉल तक की स्मृतियां और बच्चों में वयस्कता की उथल-पुथल को लेखक ने रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है, जो पाठकों को कहानी से जोड़ता है.

भाषा, शैली और किताब की कमियां

स्मिता कर्नाटक की लेखन शैली में हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रण उन्हें पारंपरिक हिंदी लेखकों से अलग करता है, जो पाठकों को आकर्षित करता है. 'मुझे उम्मीद है कि उनके बीच प्रेम बचा रहा होगा और उन्हें येन केन प्रकारेण उसे अरेंज नहीं करना पड़ रहा होगा' जैसी पंक्ति इस शैली की मिसाल हैं. हालांकि, कुछ जगहों पर फिल्मी संवादों जैसी शैली और हिंदी-अंग्रेजी का अत्यधिक मिश्रण कुछ पाठकों को असहज कर सकता है. लेखक ने अपने कॉलेज मित्र अशोक पाण्डे के बारे में विस्तार से लिखा है, लेकिन ऋता वर्मा के बारे में अधूरी जानकारी खटकती है. यह किताब पहाड़ों, स्मृतियों और मानवीय रिश्तों से प्रेम करने वालों के लिए विशेष रूप से आकर्षक है.

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