मंडला की मिट्टी में जन्मे सैयद हैदर रज़ा, भारतीय चित्रकला में वह नाम हैं जिन्होंने आधुनिकता को भारतीय आत्मा के रंगों में पिरोकर विश्वपटल पर प्रस्तुत किया. उनका कला-संसार बिंदु, रंग, रूपाकार, ज्यामिति और भारतीय दार्शनिकता की अद्वितीय संरचना है, जिसमें कला केवल दृश्य नहीं बल्कि ध्यान और चेतना का विषय बन जाती है. रज़ा ने अपनी कला यात्रा में भारतीय जीवन के सूक्ष्म तंतुओं को प्रतीकों और आध्यात्मिक अवधारणाओं के माध्यम से उसी तरह रचा है जैसे एक कलाकार अपनी आंतरिक यात्रा को साक्षी भाव से निहारता और अपनी कला में तराशता है. यह एक तरह से उसके आदि और अन्त की नितांत व्यक्तिगत गाथा की तरह होती है, जहां वो वापसी करता है. सैयद हैदर रज़ा की यही वापसी उनकी जड़ों, उनके मंडला से जुड़ाव की पुनर्पुष्टि है.'रज़ा स्मृति' उनके जीवन और जीवन उपरांत उनकी कला का ऐसा प्रत्यक्ष रूप है जिसमें रज़ा की स्मृति को केवल एक उत्सव की तरह नहीं मनाया जाता बल्कि उसे नई पीढ़ी में सृजन के रूप में फिर से जीवित भी किया जाता है. 23 जुलाई 2016 को उनके निधन के बाद से यह एक जीवंत, रचनात्मक और बहुस्तरीय आयोजन एक परंपरा में बदल चुका है.
कबाड़ में छिपी कला: स्क्रैप मूर्तिकला शिविर
'रज़ा स्मृति 2025' के अंतर्गत इस बार एक विशेष आकर्षण था- स्क्रैप मूर्तिकला शिविर. यह कोई सामान्य कार्यशाला नहीं, बल्कि विचार और रूपांतरण की प्रयोगशाला थी. यहां कबाड़ से कलाकृतियों को नया जन्म दिया गया. ऐसी सामग्री जिनका बाजार में कोई मोल नहीं बचा, वो सामग्री जब कलाकारों के हाथों में आई तो उसने सौंदर्य और विचारशीलता का रूप लेकर नवीन आकार पाया. रायपुर से आए मूर्तिकार जितेंद्र साहू, नरेंद्र देवांगन, सुमित वर्मा और अमित कुमार सिन्हा ने अद्वितीय कलाकृतियां तैयार कीं,जो इस बात का प्रतीक बन गईं कि एक कलाकार कैसे बिखरी हुई, त्याज्य वस्तुओं में भी सौंदर्य देख सकता है. रज़ा स्वयं भी इस दर्शन को बहुत गहराई से मानते थे कि कला में हर बिंदु एक ब्रह्मांड है और यही दर्शन इस मूर्तिकला शिविर में मूर्त रूप लेता नजर आया. कलेक्टर सोमेश मिश्रा ने इन कलाकृतियों को देखकर कहा कि इन्हें मंडला के विभिन्न सार्वजनिक स्थलों पर स्थापित किया जाएगा ताकि स्थानीय जनता विशेषकर युवाओं और बच्चों को इससे प्रेरणा मिले.
छत्तीसगढ़ के रायपुर से आए कलाकारों ने कबाड़ से कलाकृतियां बनाईं.
नृत्य, कविता और चित्रकारी का त्रिवेणी संगम
21 जुलाई की सांस्कृतिक संध्या में मंडला मानो एक जीवंत रंगमंच बन गया, जहां भरतनाट्यम, ओडिसी, कविता और चित्रों की छवियां एक साथ मिलकर एक सांस्कृतिक त्रिवेणी का सृजन कर रही थीं. यह केवल एक मंचन नहीं था बल्कि ऐसा अनुभव था जिसमें दर्शक भी उसकी लय, रंग और अभिव्यक्ति के सहभागी बन गए. रानी दुर्गावती महाविद्यालय के सभागार में आरोही मुंशी की भरतनाट्यम और अरुणिमा घोष की ओडिसी प्रस्तुति ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत को आधुनिकता के आलोक में एक आत्मीय और सशक्त रूप दिया. तो वहीं इस सांस्कृतिक उत्सव का चरम बिंदु था- महाकवि निराला की कालजयी कविता 'राम की शक्ति पूजा' पर आधारित नृत्य-नाटिका. इस काव्य को नाटक के रूप में मंचित करना स्वयं में एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे व्योमेश शुक्ल ने सफलतापूर्वक निभाया. उनके निर्देशन में प्रस्तुत यह नाटिका केवल कथा का मंचन नहीं था, बल्कि राम के आत्मसंशय, युद्ध और शक्ति-साधना की आंतरिक यात्रा का दृश्यरूप था. प्रकाश और ध्वनि की सजग और सूक्ष्म योजना, मंचीय गतियों में निहित जीवंतता और कलाकारों की गहन संवेदनशीलता व पूर्ण समर्पण- इन सभी तत्वों ने मिलकर उस शाम को एक साधारण सांस्कृतिक प्रस्तुति से कहीं अधिक बना दिया. यह एक ऐसी बहुसंवेदी अनुभव-यात्रा थी, जिसने दर्शकों के मन को केवल आनंदित ही नहीं किया, बल्कि उनकी भावनाओं को भीतर तक झकझोर दिया.हर दृश्य, हर स्वर, हर हाव-भाव जैसे आत्मा को छूता चला गया और कला की उस संपूर्णता का अहसास कराया जहां सौंदर्य, विचार और भाव एक साथ अभिव्यक्त होते हैं. इसी के साथ वहां आए स्थानीय अतिथियों ने छाते और गमलों पर अपनी कल्पना और कला के रंग उड़ेले और चाक पर मिट्टी से कला के सुंदर आकार निर्मित किए.
इस कार्यक्रम में आए अतिथियों ने सैयद हैदर रजा की कब्र पर उन्हें श्रद्धांजलि देते लोग.
कविता का सौंदर्य
'रज़ा स्मृति 2025' का एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आयाम था- देशभर से आए कवियों का कविता पाठ, जिसने इस उत्सव को एक संपूर्ण सांस्कृतिक पर्व में बदल दिया. यह केवल शब्दों का विन्यास नहीं था, यह वह क्षण था जब कविता, रज़ा के रंगों की तरह कैनवस पर नहीं, बल्कि वहां उपस्थित श्रोताओं और दर्शकों के मन पर उतर रही थी. इन कविताओं में स्मृति के कोमल भाव थे, अपने समय को चिन्हित करते बिंदु भी थे और मन के अधूरे वाक्य भी थे. यह कविता पाठ रज़ा को उस रूप में एक स्मरण था, जहां वे केवल चित्रकार नहीं, एक सांस्कृतिक विचारधारा के वाहक बनकर अपनी अनुपस्थिति में उपस्थित थे.
रज़ा स्मृति: श्रद्धांजलि से आगे एक रचनात्मक पुनर्जन्म
'रज़ा स्मृति 2025' यह स्पष्ट करता है कि स्मरण भी एक सृजनात्मक क्रिया हो सकती है. रज़ा को याद करना केवल उन्हें श्रद्धांजलि देना नहीं है, बल्कि उनकी दृष्टि, उनकी रंग-भाषा और उनके विचार को आगे ले जाना है. मां नर्मदा के किनारे बसा मंडला इस बात का साक्षी है कि कैसे एक छोटे से नगर की जमीन पर वैश्विक कला की जड़ें पनपीं. अब इनमें अशोक वाजपेयी के प्रयासों और रज़ा फाउंडेशन के माध्यम से स्थानीय रचनात्मकता, प्रशासनिक सहयोग और सामूहिक भावना का समावेश हो रहा है.
कार्यक्रम में आए अतिथियों ने मिट्टी के चाक पर बर्तन बनाने पर भी हाथ आजमाए.
जब स्क्रैप से कला जन्मी, कविता से मंच पर संवेदना घटी और स्मृति से सामूहिक उत्सव निर्मित हुआ, तब वह 'रज़ा स्मृति' के रूप में सामने आया. यह स्मृति-उत्सव बार-बार यही याद दिलाता रहेगा कि सच्चा कलाकार अपनी कला में सदैव जीवित रहता है. आने वाले समय, समाज और संस्कृति को नया रूप और प्रेरणा देता है. कला की यही दस्तकें अनंत में आदि स्वर बन जाती हैं, गूंज बनकर अपना ही अस्तित्व स्वयं निर्मित कर लेती हैं कि कला कभी अपने समय में थमती नहीं, वो आकार बदलती है, अपना समय चुनती है और अपनी काया में एक 'गाथा' बन जाती है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : लेखिका की 'कामनाहीन पत्ता', 'नीला आईना' और 'परख' शीर्षक से किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं., उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.