IIT मद्रास के चार दोस्तों की कहानी है. ये चारों दोस्त अमरीका गए वहां के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान MIT से PHD की. चारों ने कुछ दिन अमरीका में नौकरी भी की, लेकिन फिर 2020-21 में उनमें से तीन दोस्त भारत लौट आते हैं. यहां छात्रों और शिक्षकों को AI learning के लिए Vizuara Lab नाम से एक कंपनी की शुरुआत करते हैं, जबकि एक दोस्त अमरीका में ही फ़ार्चून 100 की एक कंपनी में अच्छी नौकरी करने लगता है. इन चारों यानि अमरीका में नौकरी करने वाले डॉ. अरुण कृष्णकांत और Vizuara lab के co-founder डॉक्टर श्री दत्त पनत, डॉक्टर रजत दांडेकर और डॉक्टर राज दांडेकर का क़रीब एक घंटे का वीडियो है, ये leaving vs Staying in the US शीर्षक के तौर पर अपलोड है. इस वीडियो को सुनकर इसलिए ब्लॉग लिखने पर मजबूर हुआ, क्योंकि हम brain drain के मुद्दे पर सालों से घिसी पिटी बातें दोहरा रहे हैं कि भारत में प्रतिभा की कोई कद्र नहीं है, लेकिन ये बातचीत इन सारे मिथक को दूर करती है. नई समस्याओं की ओर इशारा करती है और देश पर भरोसा पैदा करने की उम्मीद भी देती है.
इन चारों दोस्तों में भारत लौटने और अमरीका में रहने के अनुभव और फ़ैसले पर विस्तार से चर्चा होती है. इस विचार विमर्श की सबसे अच्छी बात ये लगी कि चारों दोस्तों की बातचीत में कहीं कोई अपने विचार और अनुभव को न तो दूसरों पर थोपने की कोशिश करते दिखे और न ही अपने अनुभव को दूसरे से बेहतर साबित करने की होड़ दिखी. ये बातचीत एक बेहतर भारत बनाने की समझ पैदा करती है. साथ ही पढ़े लिखे प्रतिभावान युवाओं को विदेश से भारत लौटने पर क्या परेशानियां होती हैं, उसकी जानकारी देती है. मसलन इसी बातचीत में जब श्री दत्त से पूछा जाता है कि अमरीका से पांच साल पहले आप भारत लौटे तो आपका अब तक का क्या अनुभव रहा है? वो कहते हैं कि वर्तमान भारत में AQI यानि आबो हवा का ख़राब होना, साफ़ सफ़ाई, ट्रैफ़िक की अव्यवस्था, खाने पीने में साफ़ सफ़ाई की कमी और क़ानून के मुताबिक़ समाज न चलना यहां की बड़ी समस्या है.
जब यही बात अमरीका में फार्चून 100 कंपनी में अच्छी नौकरी करने वाले डॉ अरुण कृष्ण दास से पूछी जाती है कि अमरीका में रहने का उनका अनुभव कैसा है तो वो बताते हैं कि अच्छा पैसा, अच्छी बचत और रिटायरमेंट के बाद बेहतर ज़िंदगी की असीम संभावनाएं हैं. वो कहते हैं कि मैं 5-10 लाख डॉलर कमाकर एक बेहतर ज़िंदगी जी सकता हूं. अमरीका में बेहतर एयर क्वालिटी है. विचारों में बहुत सारी भिन्नताएं हैं, क्योंकि चीन, तुर्की या दूसरे देशों के लोग उनके साथ काम करते हैं. उनके विचारों को सुनना उसके साथ जीना बहुत दिलचस्प है. ये सब भारत में संभव नहीं है.
इसके जवाब में भारत लौटने वाले डॉ रजत दांडेकर कहते हैं, भारत लौटने पर उनके दोस्त और रिश्तेदारों की मदद मिलती है, जिससे आप अपना पूरा ध्यान अपने काम पर लगा सकते हैं, लेकिन अमरीका में आप अपना व्यक्तिगत अनुभव अपने सहकर्मियों के साथ साझा नहीं कर सकते हैं, लेकिन वो मानते हैं कि भारत में स्वच्छता एक बड़ी कमी है. जबकि रजत दांडेकर के जुड़वा भाई डॉ. राज दांडेकर कहते हैं कि मैं इन सारी समस्याओं की ओर ज़्यादा ध्यान नहीं देता हूं. मैं लक्ष्य को केंद्रित करने वाला व्यक्ति हूं. मैं सोचता हूं कि मेरी कंपनी आगे कैसे बढ़े. हम मेटा, डीप सी और open AI जैसी कंपनी भारत में क्यों नहीं बना सके. ऐसी कंपनी न होने के चलते हमारे यहां के कई प्रतिभाशाली छात्र को PHD करने या नौकरी करने बाहर जाना पड़ता है. इसलिए मैं गंदगी या ट्रैफ़िक जैसी समस्या पर बहुत ध्यान नहीं देता हूं.
डॉ राज दांडेकर एक उदाहरण देकर बताते हैं कि पांच साल पहले अपनी बच्ची के साथ अमरीका से लौटी एक महिला से यही सवाल पूछा था. उसने कहा कि वो अपने बच्चे के साथ इसलिए भारत लौटी हैं, ताकि वो अपने बच्चे को समझा सकें कि कैसे अव्यवस्थाओं और करियर की अनिश्चितता के बीच अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाया जाए.
निश्चित तौर पर अमरीका जैसे देशों में लोग आपको सम्मान देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं. छोटी-छोटी बातों के आधार पर पता चलता है कि कैसे वो आपके विचारों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. भारत में वैसा माहौल अभी नहीं है, लेकिन फिर भी सोचता हूं कि आने वाले 30 सालों में भारत में वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं. मैं यहां की लाख कमियों के बावजूद भविष्य के इस वृद्धि में अहम भूमिका निभाना चाहता हूं. बातचीत का सार यही है कि नियम आधारित व्यवस्था और ज़िंदगी जीने के लिए आवश्यक साफ़ हवा और पानी ही आजकल के युवाओं की ज़रूरत है.
(रवीश रंजन शुक्ला एनडीटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं)
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