This Article is From May 14, 2022

क्या आप भी जमीन के नीचे कुछ खोज रहे हैं? अपने घर में देखिए, मुद्दे ही मुद्दे हैं...

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Ravish Kumar

टीवी पर महंगाई की चर्चा मिशन नहीं है, न ही टैगलाइन में मिशन महंगाई वापसी है लेकिन मिशन मान्यूमेंट वापसी एक नया टैगलाइन चलाया जा रहा है. ऐसे टाइटल कहां से आते हैं? क्या ट्विटर पर चलने वाले हैशटैग के उठाकर टीवी के स्क्रीन पर चिपका दिया जाता है? ट्विटर पर हमने देखा कि हैशटैग मान्यूमेंट वापसी को लेकर कोई 20 ट्वीट हैं, इसके बाद भी एक न्यूज़ चैनल अपनी तरफ से मिशन लगा देता है ताकि मान्यता मिले और दर्शकों को लगे कि इस मिशन को पूरा करना उनका भी काम है. आए होंगे महंगाई देखने लेकिन चैनल उन्हें मिशन का काम पकड़ा रहे हैं. आज इस देश की हालत यह हो गई है, हालात से ज़्यादा मीडिया की रिपोर्टिंग करनी पड़ती है. जिस तरह से न्यूज़ चैनल इस तरह मुद्दों को लेकर दिन-रात मेहनत कर रहे हैं, जल्दी ही आप देखेंगे कि हज़ारों लोग कुदाल और खंती लेकर जगह-जगह खोदने निकल पड़े हैं. उनके साथ-साथ लाखों लोग व्हाट्सऐप ग्रुप में यहां से लेकर वहां तक खोदने का सपना देख रहे हैं. ऐसे लोगों को आप ये कतई न बताएं कि करोड़ों वर्ष पहले हिमालय टेथिस सागर से निकला था, वर्ना ये लोग टेथिस सागर की वापसी के लिए हिमालय खोद डालेंगे. किसी भी दौर में मूर्खता की ऐसी समानता और बहुलता नहीं देखी गई है. 

उदयपुर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि मोदी सरकार इतिहास गढ़ने में लगी है. जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्र निर्माताओं का अपमान किया जा रहा है. उनके बारे में मनगढ़ंत बातें फैलाई जा रही हैं और उनके योगदानों पर हमला किया जा रहा है. गांधी की हत्या करने वालों का महिमामंडन किया जा रहा है. क्या यह इशारा है कि कांग्रेस नेहरू पर हुए हमले का जवाब देगी? कई साल से व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में नेहरू को लेकर मनगढ़ंत बातें फैलाई गईं, कांग्रेस ने कभी इस तरह से जवाब नहीं दिया, नतीजा यह हुआ कि सारी मनगढंत बातें जनता के बीच स्थापित होती चली गईं. क्या सोनिया गांधी ने नेहरू का ज़िक्र भर किया है या उनकी पार्टी नेहरू को लेकर अभियान चलाएगी? प्रधानमंत्री ने लोकसभा में महंगाई को लेकर नेहरू की हंसी उड़ा दी थी, तब कांग्रेस औपचारिक रूप से जवाब देने के अलावा कुछ नहीं कर सकी. सोनिया ने यह भी कहा कि  नरेंद्र मोदी की सरकार इस देश में लगातार ध्रुवीकरण का माहौल बनाए रखती है ताकि लोगों में भय और असुरक्षा का माहौल बना रहे. अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है जो हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं और बराबर के नागरिक हैं. भय फैलाकर नौकरशाही और कारपोरेट और मीडिया के एक तबके को डाराया जा रहा है ताकि जो कहा जाए, वही कहें और करें. 

कांग्रेस एक मुश्किल दौर में हैं. तमाम चुनावों में हार के बाद उसके नेता पार्टी छोड़ने लगे हैं. कांग्रेस के सामने संगठन को खड़ा करने की चुनौती है तो उन मुद्दों को धार देने की भी, जिनके कारण वह जनता का विश्वास हासिल नहीं कर पा रही है. मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना तो है मगर कांग्रेस की अपनी अलग आर्थिक नीतियां क्यों होंगी, क्या कुछ नए प्रस्ताव देखने को मिलेंगे? इलेक्टोरल बान्ड को ही लीजिए, जिसके ज़रिए चुनावी चंदे का गुप्त खेल खेला जा रहा है, कांग्रेस कभी इसे बड़ा मुद्दा नहीं बना सकी, नतीजा यह है कि आज चंदों की थैली एक पार्टी के पक्ष में झुकी हुई है. दूसरे तमाम दलों की आर्थिक हालत चरमरा गई है. उदयपुर का शिवर देश के इस प्रमुख विपक्षी दल के लिए काफी अहम है. सोनिया गांधी बार-बार सामूहिक विशाल प्रयास का ज़िक्र कर रही हैं, ज़ाहिर है संकट को वह भी समझ रही हैं और जानती हैं कि कांग्रेस बचेगी तो कांग्रेस के सभी कार्यकर्ताओं के प्रयास से, बशर्ते वे कांग्रेस में बचे रहें. 

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महंगाई को ही लीजिए, आठ साल में सबसे अधिक है, यह सही है कि गोदी मीडिया ने महंगाई पर विपक्ष के प्रदर्शनों और बयानों को कम दिखाया लेकिन यह भी सही है कि जिस मुद्दे से जनता इतनी परेशान है, उसके बाद भी कांग्रेस उसके बीच जगह नहीं बना पा रही है. जनता अपनी परेशानी विपक्षी दलों के सहारे नहीं कहना चाहती. महंगाई को लेकर विपक्ष के प्रदर्शनों से जनता अपनी दूरी बनाए रखती है. उधर गोदी मीडिया महंगाई के मुद्दे को जनता से दूर रखने के लिए मान्यूमेंट वापसी जैसे बोगस अभियानों को खड़ा करता रहता है. 

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दक्षिण दिल्ली के एक ठेले पर नींबू 250 रुपये किलो, बीन्स और मटर 120 रुपये किलो,
परवल और कटहल 80 रुपये किलो और बैंगन 50 रुपये किलो है, भिंडी, शिमला मिर्च और तोरी 60 रुपये किलो है. क्या आम आदमी 50-60 से लेकर 120 और 250 रुपये वाली सब्ज़ी खरीद पाता होगा, या वह 25-30 रुपये किलो आलू और प्याज से ही अपना काम चला रहा है. सब्ज़ियों के साथ-साथ मसाला से लेकर खाद्य तेलों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं. 

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केवल पेट्रोल और खाद्य तेल के दाम नहीं बढ़ते हैं, आप उन चीज़ों के भी अधिक दाम दे रहे जो सरकार की सूची में नहीं हैं. कई लोग कह रहे हैं कि महंगाई की वास्तविक दर 7.79 प्रतिशत की जगह 14-15 प्रतिशत से भी अधिक हो सकती है. जब मार्च का डेटा आया था तब भी इन्हीं लोगों ने कहा था कि अप्रैल में महंगाई की दर 7-8 प्रतिशत होगी,और जब अप्रैल का डेटा आया तो 7.79 प्रतिशत दर हो चुकी थी. आम लोगों पर महंगाई का क्या असर पड़ता है इसे लेकर रिज़र्व बैंक और वित्त मंत्रालय की राय विचित्र रूप से अलग है. 

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4 मई को भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास कहते हैं कि लगातार अधिक महंगाई दर से देश के ग़रीब तबके पर बुरा असर पड़ रहा है. उनकी क्रयशक्ति हवा होती जा रही है. 12 मई को वित्त मंत्रालय का बयान छपता है कि लोग किस तरह से उपभोग कर रहे हैं, इसके प्रमाण बताते हैं कि भारत में अमीर तबके की तुलना में कम आमदनी वाले तबके पर महंगाई का कम असर पड़ा है. 

इस तरह की बातें छप रही हैं. क्या यह कहा जा रहा है कि महंगाई से अमीर परेशान हैं, ग़रीबों या आम लोगों पर कम असर है? सुशील महापात्रा दिल्ली के एक ढाबे पर गए. ढाबे वाले ने कहा कि महंगाई की मार दोतरफा है. दाम बढ़ाते हैं तो ग्राहक नहीं आते, नहीं बढ़ाते हैं तो कमाई नहीं होती. 

मिडिल क्लास भी परेशान है लेकिन क्या वह महंगाई को लेकर फेसबुक या ट्विटर पर लिख रहा है? जैसा पहले लिखा करता था. सोशल मीडिया में महंगाई के खिलाफ लिखने वालों को देखकर लगता है कि ज़्यादातर बीजेपी के विरोधी दलों के समर्थक या कार्यकर्ता हैं. महंगाई को लेकर मिडिल क्लास की आवाज़ गायब है. गांवों में हाल तो और भी बुरा है. वहां महंगाई के अलावा गर्मी के कारण भी हालत खराब है. तेज़ गर्मी के कारण अनाज के दाने सूख गए हैं. उनका उत्पादन घट गया है. कोविड के बाद महंगाई और गर्मी से तप रहा यह साल किसानों को और पीछे धकेल देगा. 

कृष्णा तुसामड को चोरी करने के आरोप में पीट पीट कर क्यों मारा गया? क्या इस गुस्से में कृष्णा का दलित होना भी कारण बना? कृष्णा का पुरा परिवार सफाई और कूड़ा उठाने का काम करता है. 

समाज के भीतर हिंसा का आधार व्यापक होता जा रहा है. एक समाज अल्पसंख्यक से लेकर दलितों के भीतर हिंसा की इतनी परतों को उठाकर जब ढोता चलता होगा तब उसके भीतर क्या कभी ख़ुशियां दस्तक देती होंगी या हर समय वह किसी को देखकर दांत ही किटकिटाता रहता होगा, खिसायाता रहता होगा. इस नज़र से देखेंगे तो इसके बाद देखने लायक कुछ बचेगा नहीं. समाज कुछ अच्छा सोचे और करे इसके लिए वक्त भी नहीं है, अभी तो लोगों को दिल्ली के गांवों और सड़कों के नाम बदलने में लगाया जाने वाला है. अच्छा टाइम कट रहा है.

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