This Article is From Aug 31, 2022

जब भी चुनाव आता है, साबरमती नदी का विकास हो जाता है

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Ravish Kumar

अहमदाबाद में एक नदी बहती है साबरमती। राजस्थान से निकलती है लेकिन इसका ज़्यादातर हिस्सा गुजरात में आता है। साबरतमी को आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति से अलग नहीं कर सकते और न ही इसे चुनाव से अलग कर सकते हैं। जब भी चुनाव आता है, इस नदी को लेकर कुछ न कुछ नया हो जाता है। पुराना भुला दिया जाता है और नया जोड़ दिया जाता है।नदियों के किनारे बनने वाले रिवर फ्रंट और उनकी सजावट पर बहाए जा रहे करोड़ों रुपये से जनता का कितना हित होता है, नदी का कितना हित होता है, इस पर बात बंद हो चुकी है। अब तो आलम यह है कि शहर में एक अंडर पास बनता है तो उसके भीतर सजावट के नाम पर बेहद नीरस चित्रकारी कर दी जाती है, ऐसा लगता है कि लोगों को हर समय टीवी सीरीयल के सेट पर ही रहना अच्छे लगने लगा है। कभी अपने शहर में बने इन चित्रकारियों को गौर से देखिएगा, कुछ ही मिलेंगी जिसमें कला दिखेगी, बाकी सब पेंटिंग हैं। ऐसा लगता है कि शहर और ट्रक के पीछे बने चित्रों में फर्क ही खत्म हो गया है। शहर का जो सौंदर्यबोध होना चाहिए, उसे गढ़ने के बजाए हम रौंदते ही जा रहे हैं। 

साबरमती नदी पर एक नया पुल बना है, इसका मकसद मनोरंजन के लिए ही नज़र आता है क्योंकि बिना टिकट लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं ।विकास के शहरी मॉडल में नदियों के किनारे को सजाने की राजनीति अगर कहीं परिपक्व हुई है तो केवल साबरमती नदी का यह किनारा है जिस पर यह पुल बना है। साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड ने 74 करोड़ की लागत से इस पुल का निर्माण कराया है।इस पुल का नाम अटल ब्रिज रखा गया है। अहमदाबाद में होने वाले पतंग उत्सव की प्रेरणा लेकर पुल का आकार बनाया गया है। 300 मीटर लंबे इस पुल को बनाने में 26 lakh किलोग्राम स्टील की पाइप का इस्तेमाल हुआ है। शीशे और स्टील की मदद से इस तरह बनाया गया है कि सेल्फी खींचाने वालों की भूख बढ़ती भी रहेगी और मिटती भी रहेगी। स्मार्ट फोन ने जिस तरह से लोगों को अब ढाल दिया है, उनके हिसाब से ये पुल ढाल दिया गया है। यही कारण है कि जिस नदी को लोग दिन रात देखते हैं, इस पुल के कारण बार बार आ रहे हैं। नदी के लिए नहीं, इस रंग-बिरंगे पुल को देखने के लिए।ऐसा नहीं है कि साबरमती को देखने के लिए अहमदाबाद शहर में ही कई पुल बने हैं। गांधी पुल, सरदार पुल, नेहरु पुल, सुभाष पुल, लाल बहादुर शास्त्री पुल, इंदिरा पुल, अंबेडकर पुल, विवेकानंद पुल,ऋषि दधिची पुल इतने पुलों के रहते भी एक पुल केवल मनोरंजन के लिए बनाया गया है। अटल पुल सरदार पुल और विवेकानंद पुल के बीच में बना है। विवेकानंद पुल का पुराना नाम एलिस ब्रिज है।


बनाने वालों ने लोगों को ठीक समझा है, 27 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी ने इसका उद्घाटन किया, दूसरे दिन कई हज़ार लोग इस पुल पर पहुंच गए। उदघाटन के दिन कितने लोग पहुंचे इसकी संख्या को लेकर अखबारों ने अलग अलग आंकड़े दि एहैं।संदेश अखबार ने लिखा है कि 15000 लोग आए लेकिन दिव्य  भास्कर ने लिखा कि 70,000 लोग आए। दो अखबारों की संख्या में इतना अंतर कैसे हो गया, इसका जवाब हमारे पास नहीं है लेकिन देखने वाले तो आ ही रहे हैं। अगले दिन इतनी भीड़ हो गई कि कुछ समय के लिए पुल को बंद कर देना पड़ा। आज के अखबारों में छपा है कि अब इस पुल पर जाने के लिए 30 रुपये का टिकट लगेगा और वो भी सिर्फ आधे घंटे के लिए मान्य होगा। अगर ज़्यादा देर के लिए रुकेंगे तो ज़्यादा पैसे देने होंगे।बच्चों और बुजुर्गों  के लिए 15 रुपये का टिकट है। विकलांगों के लिए मुफ्त है। लोगों ने पुल की रेलिंग पर गुटखा खाकर थूक दिया था जिसे लेकर सोशल मीडिया में कुछ वीडियो वायरल भी हुए हैं। इसलिए गुटखा, पान मसाला, घर से खाना, धूम्रपान वगैरह मना है। पालतू जानवर लेकर भी नहीं जा सकते हैं। चीज़ सामान बेचने वालों को भी अनुमति नहीं होगी। डांस भी मना है। संगीत मना है।74 करोड़ का पुल बनाकर डांस मना करने की क्या ज़रूरत थी, जब विकास ही डांस कर रहा है तो विकास के साथ साथ लोगों को भी डांस करने की छूट मिलनी चाहिए। संगीत और डांस पर रोक लगा देने से वैसे ही फालतू में औरंगज़ेब की याद आ जाती है। जो कि ठीक नहीं है। जो राज्य साल में नौ दिन गरबा के इतने शानदार कार्यक्रम करता है, उस राज्य में ऐसी कोई जगह नहीं होनी चाहिए जहां डांस मना हो। 

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एक ज़माना था जब नदियों के किनारे सीमेंट का कोई ढांचा बनता था तो लोग चिन्ता करते थे कि नदी के इलाके में निर्माण नहीं होना चाहिए, इससे भू-जल का स्तर गिरता है। लेकिन अब तो नदी के बिल्कुल किनारे बल्कि नदी के हिस्से में जाकर निर्माण होने लगे हैं और लोग सेल्फी खिंचा रहे हैं। अटल पुल को लेकर ही कितनी चर्चा हुई, इस सवाल पर लौटना ही डरावना सा लगने लगता है कि आप इतने रंग-बिरेंगे पुल पर सवाल उठा रहे हैं।पहले से ही साबरमती के किनारे पर सीमेंट का साम्राज्य बिछा दिया गया है जिस पर बड़ी संख्या में लोग नदी के किनारे-किनारे चल सकते हैं और चलते भी हैं। जिस तरह से हर चुनाव में इस नदी को कुछ और सजाया जाता है, वो राजनीति का हिस्सा है लेकिन इस पर सोचने की फुर्सत किसे हैं, क्यों नहीं है कि इससे शहर को क्या हासिल होता है? साबरमती रिवर फ्रंट एक सफल राजनीति फार्मूला है, जिसके कई राज्यों और ज़िलों के स्तर पर अपनाया जा रहा है। 

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उदाहरण के लिए लखनऊ में करीब 1500 करोड़ लगाकर गोमती रिवर फ्रंट बनता रहा, अब इसकी कैसी हालत है,पता नहीं, लेकिन इस रिवर फ्रंट से नदी को क्यों मिला इस पर विचार किया जा सकता है। नदी के किनारे को चमका कर लोगों के मनोरंजन के लिए नई जगह बना देने की यह राजनीति नेता को विकास पुरुष की छवि भी प्रदान करती है। गोमती रिवर फ्रंट की तरह पटना में भी गंगा के किनारे कई सौ करोड़ की लागत से रिवर फ्रंट बना है। इसी तर्ज पर देश के न जाने कितने ज़िलों में नदियों और तालाबों के किनारे घाटों की सजावट पर कितने सौ करोड़ खर्च हो रहे हैं, इन सबका कोई एकमुश्त हिसाब हमारे पास नहीं है। घाट का सौंदर्यीकरण विकास की राजनीति का मुख्य केंद्र बन गया है। इस फार्मूला के कारण जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा नदियों के संरक्षण में काम आ रहा है या उनकी धार्मिकता का फायदा उठाकर घाट बनाकर नदी को साफ घोषित कर दिया जा रहा है, इन सब प्रश्नों को न तो एक सिरे से खारिज कर सकते हैं और इनका कोई आसान उत्तर है। 2014 में वाराणासी में जब मां गंगा ने प्रधानमंत्री को बुलाया तब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे उन्होंने कहा कि वे वरुणा नदी के किनारे सौंदर्यीकरण करेंगे जो अब किस हालत में है, आप बनारसत जाते ही हैं, देख लीजिएगा। बनारस में गंगा तो साफ नहीं हुई लेकिन घाटों में कई सारी सुविधाएं जुड़ गईं जिसे लोग ने सहर्ष ही विकास माना। इन दिनों यह इलाका बाढ़ में डूबा हुआ है। सौंदर्यीकरण के नाम पर  नदियों के किनारे की ज़मीन पर सीमेंट की चादर बिछा दी जा रही है। सभी जानते हैं कि इससे नदियों का भला नहीं होता है लेकिन सभी इसे विकास मान कर मार्निंग वॉक करने आ जाते हैं। विदेशों में बताते हैं कि हम नदियों को मां की तरह पूजते हैं।सीमेंट के बिछ जाने के बाद लोगों की आंखें जिस तरह चमकती हैं, नेता जानते हैं कि ऐसा किया जाए तो लोगों में छवि बनती रहेगी एक दिन इन नदियों में बाढ़ का पानी ऐसा आएगा कि विकास की ये इमारतें कहां लापता हो जाएंगी पता नहीं, मगर रहेंगी नदी में ही और उसे ही प्रदूषित करती रहेंगी। इन दिनों पटना के लोग भी काफी खुश हैं कि उनके शहर में रिवर फ्रंट है, सेल्फी के लिए जाते हैं। फिर लौट कर घंटों जाम में फंसे रहते हैं, मच्छर से कटवाते रहते हैं। 

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दरअसल बुलबुल के पंख से भारत भ्रमण की बात आप समझे नहीं। विकास की राजनीति भी इसी तरह के पंख पर बिठाकर आपको स्वप्नलोक की सैर कराती है। रिवर फ्रंट की तरह फ्लाईओवर की राजनीति भी इसी होड़ का हिस्सा है। बिल्कुल ठीक से सभी को पता है कि फ्लाइओवर से ट्रैफिक जाम की समस्या का अंत नहीं होता, इसका समाधान बेहतर पब्लिक ट्रांसपोर्ट से होता है लेकिन फ्लाईओवर के बनने का एलान होते ही इलाके की जनता राहत की सांस लेती है कि अब विकास होगा। आपने देखा होगा कि पहले फ्लाईओवर जैसे तैसे बनते थे, अब इन्हें भी सजाया जा रहा है ताकि विकास हमेशा नहा धोकर विकास के स्कूल यूनिफार्म में तैयार दिखे। इसलिए इन दिनों कई शहरों में फ्लाईओवर के खंभों पर बेहद खराब और भद्दे तरीके से चित्र बनाए जा रहे हैं, उनकी रंगाई हो रही है। ताकि लगे कि कुछ नया हो रहा है। यह एक झांसा है, इसे समझाने की कोशिश मत कीजिए वर्ना आपकी पूरी ज़िंदगी इसी काम में निकल जाएगी। हम बात कर रहे हैं साबरमती रिवर फ्रंट की। 15 अगस्त 2012 का एक भाषण है, तत्कालीन मुख्यमंत्री और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का। उस साल भी गुजरात में विधानसभा चुनाव होने वाले थे। अपने भाषण में वे साबरमती रिवर फ्रंट की तस्वीरों को फेसबुक पर साझा करने के लिए कहते हैं, जैसे कुछ दिन पहले घर घर झंडे की सेल्फी अपलोड करने के लिए कहा गया था। उस भाषण में बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि फेसबुक से फोटो लेकर बेस्ट फोटो आफ द मंथ और बेस्ट फोटो आफ दि ईयर का चुनाव होगा। 

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सोशल मीडिया पर अगर किसी एक प्रोजेक्ट की बात होती है तो वह है साबरमती रिवर फ्रंट प्रोजेक्ट। मैंने अधिकारियों से कहा है कि फेसबुक पर रिवरफ्रंट की जो सबसे अच्छी तस्वीर होगी, उसे प्रदर्शनी में शामिल किया जाए। फोटो आफ द मंथ का चुनाव किया जाए। उसके बाद बेस्ट फोटो आफ दि ईयर का चुनाव हो। जिस युवा का फोटो बेस्ट फोटो आफ दि ईयर के लिए चुना जाएगा उसे साढ़े छह लाख रुपये की कार दी जाएगी। मोबाइल से फोटो खींचें और ईमेल कर दें। प्रिंट आउट लेने की ज़रूरत नहीं है। हम जानते हैं कि चारों तरफ फेसबुक छाया हुआ है। मुझे यकीन है कि रिवर फ्रंट पोजेक्ट दुनिया का सबसे प्रसिद्ध प्रोजेक्ट बन जाएगा। 

साबरमती रिवर फ्रंट का इस्तेमाल छवि बनाने में हुआ। इस लक्ष्य को हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं था, शहर के बीचों बीच नदी के दोनों किनारे चमका कर इसे देश भर में पहुंचाया गया। यही काम अब कई राज्यों के मुख्यमंत्री करने लगे हैं। एक दो प्रोजेक्ट चुन लेते हैं, उसमें खूब अच्छा काम कर लेते हैं और उसी के सहारे राजनीति करते रहते हैं। नरेंद्र मोदी की बात सही साबित हुई, साबरमती रिवर फ्रंट दुनिया में प्रसिद्ध हुआ या नहीं, लेकिन भारत की राजनीति में खूब प्रसिद्ध हो गया। 

साबरमती रिवरफ्रंट राजनीति का स्टंट बन गया। कई राज्यों ने इस रिवर फ्रंट का अध्ययन कराया है। अगर आप अलग अलग राज्यों की खबरों को खंगालेंगे तो तमाम नदियों पर रिवर फ्रंट बनाने की वादे मिलेंगे। 22 जनवरी 2016 के हिन्दुस्तान टाइम्स में खबर छपी है कि नोएडा प्रशासन के सात सदस्य साबरमती रिवर फ्रंट का अध्ययन करने गए थे। इसमें उप-मुख्य कार्यकारी अधिकारी सौम्या श्रीवास्तव का नाम है। खबर में लिखा है कि नोएडा अथारिटी ने तय किया है कि उसके हिस्से में हिंडन नदी का 27 किलोमीटर आता है, इसका विकास साबरमती रिवर फ्रंट की तर्ज पर होगा। छह साल बाद इस योजना का क्या हाल है, पता कर सकते हैं। इसी तरह 2 December  2020 के दैनिक जागरण में देहरादून से एक खबर छपी है। खबर में लिखा गया है कि सपना रह गया साबरमती की तर्ज पर रिवर फ्रंट डेवलपमेंट। रिस्पना और बिंदाल नदी गंदी ही ढोती जा रही हैं। खबर में लिखा है कि 2010 में तत्कालीन महापौर विनोद चमोली ने मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) के कुछ अधिकारियों के साथ अहमदाबाद का दौरा कर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। इसके कुछ समय बाद साबरमती रिवर फ्रंट डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एसआरएफडीसीएल) की टीम ने उस समय की रमेश पोखरियाल निशंक की सरकार को अपना प्रस्तुतीकरण भी दिया। हिंडन, रिस्पना और बिंदाल नदी साबरमती रिवर फ्रंट बनकर डेवलप हो पाई या नहीं, इतने संसाधान नहीं हैं कि हर नदी के किनारे से संवाददाता की रिपोर्ट मंगा सकूं। 

फ्लाईओवर की तरह रिवर फ्रंट बनाने का वादा अब राजनीति का फुलटाइम और पासटाइम वादा बन चुका है। लेकिन हम बात कर रहे हैं साबरमती रिवर फ्रंट की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति के केंद्र में यह नदी आज भी महत्वपूर्ण बनी हुई है। वे इस नदी को कभी नहीं भूले, समय समय पर इसके किनारे लौटते ही रहते हैं। 

17 सितंबर 2014 में इसी के किनारे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को झूला झुलाया गया, आज कल विदेश मंत्री का बयान रोज़ ही आता है कि सीमा विवाद से ही तय होगा कि चीन और भारत के संबंधों का भविष्य क्या होगा। तब पूर्वी लद्दाख में सीमा विवाद नहीं हुआ था, झूला विवाद ज़रूर हो गया था कि बहुत ज़्यादा मेला जैसा हो रहा है। 13 सितंबर 2017 को जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे यहां आए थे, जिनकी हाल ही में हत्या कर दी गई। जनवरी 2018 में इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू भी इसके किनारे आए थे। 2020 में ट्रंप भी आए थे। साबरमती आश्रम और साबरमती के किनारे आने का सिलसिला जारी रहा और इसके तरह तरह से विश्लेषण किए गए। 

इस साल चुनाव होने जा रहे हैं तो अटल पुल बन गया है लेकिन पांच साल पहले 2017 में भी जब विधान सभा चुनाव होने जा रहे थे तब यहां पानी में उतरने वाला हवाई जहाज़ आ गया। 2014 में जब गंगा की सफाई का नारा उछला तब लोगों को यकीन दिलाने के लिए प्रचार वीडियो बनाया गया था। 

इस प्रचार वीडियो में गंगा के किनारे की गंदगी दिखा कर दावा किया गया कि इनकी सफाई हो जाएगी क्योंकि नरेंद्र मोदी ने साबरमती को इस तरह चमका दिया है। इसमें जो नावें चलती दिखाई दे रही हैं, किसी सपने से कम नहीं लगतीं, जिस राज्य में पानी का संकट इतना गहरा हो, उस राज्य में नदी के एक हिस्से में पानी पर मोटर बोट से मस्ती हो रही है। यही तो सपना सबको चाहिए। स्कूल और अस्पताल को लेकर ऐसा सपना कौन देखता है, देखता तो है मगर राजनीति को पता है कि एक फ्लाईओवर बना दो, रिवर फ्रंट बना दो और पुल बना दो जनता की आंखों पर जादू हो जाएगा। 

हम कोई एक्सपर्ट तो नहीं है लेकिन अटल पुल के बनने से साबरमती नदी में हवाई जहाज़ के उतरने पर क्या असर पड़ेगा? इस सवाल के आस-पास नज़र घूम रही है।2017 के विधानसभा चुनाव में भी यह नदी आकर्षण के केंद्र में आ गई थी जब हेडलाइन छपने लगी थी कि साबरमती में उतरेगा विमान। 

लेकिन यह लम्हा भी बुलबुल के पंख के सहारे उड़ान भरने के जैसा ही था, उस समय गोदी मीडिया ने कैमरे मिसाइल की तरह तान दिए थे और पूरे देश में विकास की यह शानदार तस्वीर घर घर पहुंच गई थी। दिसंबर का महीना था और साल था 2017।प्रधानमंत्री मोदी सिंगल इंजन के विमान में कैसे उड़ गए, इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला, नियमों हैं कि प्रधानमंत्री सिंगल इंजन विमान में नहीं उड़ सकते हैं। लेकिन चुनाव था और कैमरों का जलवा तो सबके सामने प्रधानमंत्री का यह विमान साबरमती नदी से धारोई बांध के लिए उड़ गया। इस दिन गुजरात पुलिस ने अहमदाबाद में प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी के रोड शो पर रोक लगा दी थी। इस उड़ान को देखने के लिए भी लोग आए थे या लाए गए थे लेकिन उनके हाथ में बीजेपी के झंडे थे और वे काफी खुश थे। प्रधानमंत्री ने भी उनका हाथ हिला हिलाकर अभिवादन किया था। और विमान में बैठने के बाद भी कैमरा फोकस करता रहा कि कहां बैठे हैं, कैसे बैठे हैं।इस विमान के उड़ने के पहले गुजरात का चुनाव गरीबी, बेरोज़गारी और जीएसटी से मार खाए उद्योग धंधों के मुद्दे से बोझिल हो गया था, इस उड़ान ने चुनावी जोश में बुलबुल के पंख लगा दिए और फिर जो हुआ आप जानते हैं।परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इसे ऐतिहासिक दिन बताया था और कहा था कि भारत में क्रांति आने वाली है। 2017 से 2021 बीत गया। 2022 भी आधा निकल गया है। क्या ऐसी कोई क्रांति भारत में हुई लेकिन उस समय हेडलाइन छपी होगी और आपको लगा होगा कि कुछ हो रहा है।ऐसी हेडलाइन आज भी छपा करती है। 

31 अक्तूबर 2020 को सरदार पटेल की जयंती पर साबरमती रिवर फ्रंट से केवडिया तक के लिए सी-प्लेन की सेवा शुरू की गई। लेकिन 30 नवंबर 2021 को राज्य सभा में जहाजरानी मंत्री सरबनानंद सोनवाल ने एक जवाब में कहा है कि इस विमान का आपरेशन अप्रैल 2021 से बंद है। इसी जवाब में जहाजरानी मंत्री ने कहा था कि 14 अलग अलग जगहों में पानी में उतरने वाले विमान सेवा शुरू करने की पहचान की गई है।

इसी तरह 2012 के चुनाव के पहले भी प्रधानमंत्री इस नदी में उतरे थे। स्पीड बोट से सवारी की थी। यह वीडियो बता रहा है कि जब भी चुनाव आता है साबरमती में कुछ जुड़ जाता है, कुछ होता है जिसके उदघाटन के लिए नरेंद्र मोदी आते हैं। एक ही नदी में न जाने कितने चुनावों तक उदघाटन होते रहेंगे। 

साबरमती नदी चुनावी नदी है।नदी की सजावट दिखाकर अस्पतालों की हालत छिपाने की राजनीति को समझनेकी ज़रूरत है।काश किसी शहर के किसी अस्पताल या सरकारी स्कूल को लेकर इतनी गंभीरता होती। हर चुनाव के समय उसमें नए वार्ड जुड़ जाते, नया क्लास रुम बन जाता लेकिन इस नदी के किनारे कभी पुल बन जाता है तो कभी स्पीड बोट आ जाते हैं तो कभी पानी पर ही हवाई जहाज़ दौड़ने लगा है।रिवर फ्रंट के कारण कई हज़ार लोग विस्थापित हुए, उनके जीवन में कैसा विकास आया है, यह कभी नहीं दिखाया जाता है, न कभी दिखाया जाएगा। वे गरीब लोग थे और गरीब लोगों के वोट के लिए गोदी मीडिया से लेकर तमाम दूसरे तरीके जो हैं।   

यह पुल देखने में खूबसूरत है, यह खूबसूरत दिखे इसी हिसाब से तो बनाया गया है ताकि रात की तस्वीरें हों या दिन की, इसके सहारे लोग अपने शहर की तुलना यूरोप के शहर से कर सकें, और इसकी चमक में खो जाएं।चुनावी राजनीति में यह नदी सर्कस का मैदान बन कर रह गई है। ऐसा नहीं है कि इसके किनारे घूमने के लिए जगह कोई खराब बनी है, अच्छी है, फिर भी कभी स्पीड बोट तो कभी हवाई जहाज़ तो कभी पुल। अगले चुनाव में पता नहीं इस पर क्या बनेगा? एक ही जगह दुनिया कितनी बार तमाशा देखेगी। क्या लोगों के पास समझने की क्षमता बची है कि इमारतों और मनोरंजन के भव्य केंद्रों पर हज़ारों करोड़ रुपये लुटा कर विकास नहीं आता है, विकास आता है लोगों के जीवन के बदलाव से। लेकिन इसकी जगह जनता को भव्य इमारतें दिखा कर भारत को विश्व गुरु बताया जाने लगा है, और जब भूख लगती है तो जेब में मुफ्त अनाज दिया जाता है वह भी कुछ दिनों बाद बंद कर दिया जाता है। क्या यह पुल शहर की ज़रूरत का नतीजा है या शहर के लोगों में पुल की ज़रूरत पैदा की जा रही है? अहमदाबाद में रात के वक्त बाहर सोने वाले बेघर लोगों को इस पैसे से घर मिल सकता था, ऐसे सवाल अब कविता में भी नहीं लिखे जाते हैं। गुजराती भाषा के कवि ही बेहतर बता सकते हैं। 

इस देश में मुश्किल से चंद लोग हैं जो 25000 महीना कमा पाते हैं।  लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा है, बच्चों की लंबाई छोटी हो रही है क्योंकि कैलरी नहीं मिल रही है। नेता समझ गए हैं कि कुछ बना दो, पुरानी इमारत को तोड़ कर नई इमारत बना दो और जब तक न टूटे, उस पर रंग रोगन करवा दो ताकि लोगों को दिखे और लोग रुक कर सेल्फी खींचा लें। 

इसी प्रदेश के केवडिया में 3000 करोड़ की लागत से सरदार पटेल की प्रतिमा बनी है। बकायदा यह छपा हुआ है और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का यह बयान है कि स्टेच्यू आफ यूनिटी एक लाख करोड़ का इकोसिस्टम बना देगा। गुजरात का बजट करीब सवा दो लाख करोड़ का है।  यहां केवल स्टेच्यू आफ यूनिटी से एक लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का इकोसिस्टम बनेगा, ऐसा दावा किया जा रहा है।पीयूष गोयल ने यह बयान 2020 में दिया था, इकोनमिक टाइम्स में छपा भी हुआ है। आप देख सकते हैं। इस साल मई में हिन्दुस्तान टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी थी कि कोविड के पहले यहां हर दिन 10 हज़ार से अधिक लोग आया करते थे। कोविड के बाद इसकी संख्या काफी बढ़ गई है। कई लोगों ने कहा कि यह जगह पर्यटन केंद्र के रुप में विकसित हो चुका है लेकिन क्या यहां पर एक लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का इको सिस्टम बना है जिसका दावा 2020 में पीयूष गोयल ने किया था?

राजनीति में अब यह फार्मूला चल पड़ा है। ईंट सीमेंट की इमारत बनाने का फार्मूला। भले बाढ़ में बह जाए, कोई बात नहीं, बारिश में धंस जाए कुछ बात नहीं, लेकिन चुनाव है कम से कम चुनाव के दौरान सड़क पर विमान उतर कर लोगों की आंखों में चमक पैदा कर जैसे गोदी मीडिया खबरों के नाम पर बकवास चीज़ों से चमक पैदा कर देता है। 

एक मिनट यहां रुकने का किराया 1 रुपया होगा। आधा घंटा रुकेंगे तो 30 रुपया देना होगा। गुजरात समाचार ने लिखा है कि 35 रुपये का टिकट लेकर आप अहमदाबाद म्यूनिसिपल ट्रांसपोर्ट सर्विस की बस में दिन भर सफर कर सकते हैं। लेकिन इस पुल पर आधे घंटे के लिए 30 रुपये देने होंगे। जल्दी ही इसकी नकल में दूसरे शहरों में जनता का पैसा फूंका जाने लगेगा। जनता गरीबी में आत्महत्या करती रहेगी लेकिन शहर में रंगीन पुल बनाए जाएंगे ताकि कुछ लोग फोटो खींच कर इंस्टाग्राम पर अपडेट कर सकें। विकास की यही तस्वीर है जो लोगों के ज़हन में घुस गई है। 

हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम एक निम्न मध्यमवर्गीय देश हैं।प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार सिमिति ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार भारत इस समय निम्न मध्यमवर्गीय देश है। लोअर मिडिल क्लास कंट्री। अगर भारत को 2047 तक अपर-मिडिल क्लास देश बनना है तो हर साल 7 से 7.5 प्रतिशत की विकास दर को हासिल करना होगा।तब जाकर प्रति व्यक्ति आय 10,000 डॉलर तक पहुंचेगी। यह बयान प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों की समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय का है। उनके अनुसार निम्न मध्यमवर्गीय आय से भारत को उच्च मध्यम वर्ग आय वाले देश तक ले जाने में 25 साल लग जाएंगे। जब से ये 25 साल से लेकर 100 साल का टारगेट आने लगा है, लक्ष्यों का हिसाब रखना और उन्हें समझना सबके बस की बात नहीं है।

प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार की समिति और प्रतिस्पर्धा संस्थान ने मिलकर एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2047 तक 20 ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा। अगर 7 या 7.5 प्रतिशत की दर से भारत ने हर साल विकास किया तब। लेकिन जब वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहना शुरू किया कि 2052 तक भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 30 ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा। तब उन्होंने किसकी रिपोर्ट के आधार पर यह एलान कर दिया? अब बताइये कि 2047 से 2052 के बीच 5 साल का फासला है, क्या इन पांच वर्षों में 10 ट्रिलियन डॉलर का आकार और जुड़ जाएगा? आखिर पीयूष गोयल कहां से ये हिसाब निकाल कर ला रहे हैं और बिबेक राय कहां से निकाल कर ला रहे हैं, पहले दोनों ही आपस में बात कर बता दें तब फिर हम और आप सवाल करें। नहीं तो बुलबुल के पंख पर उड़ने की तैयारी कर लीजिए। ऐसे ही उड़ाए जाते रहेंगे। 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर के आकार की अर्थव्यवस्था वाला वादा तो भुला ही दिया गया है। 

उप्र सरकार अब गरीबों को मुफ्त अनाज नहीं देगी। कोरोना काल में मुफ्त दिया जाने वाले राशन को बंद करके गेंहू 2 रुपए किलो और चावल 3 रुपए किलो मिलेगा। हालांकि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त राशन सितंबर तक मिलता रहेगा। 

झारखंड के दुमका का शाहरुख और मध्यप्रदेश के खंडवा का बब्लू। इनके जैसे अनगिनत लड़कों के दिमाग़ में कहां से यह बात आती है कि जिससे प्यार हो गया, उसके जीवन पर उनका अधिकार हो गया। प्यार हो या न हो, मंज़ूर हो या न मंज़ूर हो, किसी को जला देने या मार देने का ख्याल कहां से आता है।ऐसे लोगों को बीमार घोषित कर छुटकारा नहीं पाया जा सकता है। यह बीमारी केवल शाहरुख और बबलू में नहीं है बल्कि अलग अलग रुप में न जाने कितने लोगों में हैं। किसी को जला देना और किसी पर चाकुओं से हमला कर देना। ऐसी सोच वाला कभी प्रेमी था न कभी होगा। ऐसे लोग प्रेम के संबंधों में शुरू से ही अपराधी बन कर आते हैं और अपराध कर जाते हैं। पुलिस की कार्रवाई और सज़ा एक पहलू है लेकिन ऐसी सोच लिए लड़कों का इलाज कानून के अलावा भी कुछ होना चाहिए। इनकी करतूतों की वजह से न केवल परिवार जीवन भर के लिए भोगता है बल्कि शहर या इलाके की राजनीति में आग लग जाती है।राजनीति को एक आसान सा मुद्दा मिल जाता है।जो राजनीति बिलकिस बानों के बलात्कारियों पर चुप थी, वह अंकिता के हत्यारे के इंसाफ के नाम पर धर्म रक्षक बन गई है। मूल बात यह है कि जहां भी मर्दवादी मानसिकता होती है, वहीं पर हिंसा की दूसरी मानसिकताएं भी होती हैं। इसलिए झारखंड और मध्यप्रदेश की घटनाओं के बीच समानता की बात का महत्व नहीं हैं क्योंकि दोनों के परिणाम एक ही है, हिंसा और हत्या। दुमका में भी और खंडवा में भी। 

कर्नाटक के पर्यटन मंत्री आनंद सिंह के खिलाफ FIR हुई है। उन पर एक परिवार को धमकाने का आरोप है, जो धमकी से तंग आकर आग लगाने जा रहे थे। आग लगाने से पहले ही उन्हें रोक लिया है। अनुसूचित जाति और जनजाति एक्ट के तहत मंत्री आनंद और तीन अन्य के खिलाफ मामला दर्ज हुआ है। विवाद एक ज़मीन को लेकर था। 

गांव के ही अनुसूचित जाति के लोगों ने समाधान निकालने के लिए मंत्री से गुज़ारिश की थी। जिस व्यक्ति ने FIR कराई है उसका कहना है कि मंत्री ने पूरे परिवार को जला देने की धमकीदी थी। इसके बाद परिवार के सभी पांच सदस्य थाने गए और आत्मदाह का प्रयास किया लेकिन रोक लिया गया। मंत्री आनंद सिंह का कहना है कि उन्होंने धमकी नहीं दी, उन्हें तो सोशल मीडिया से पता चला है। इस तरह के मामले अगर आप देखेंगे तो हर राज्य में मिलेंगे, ज़मीन के विवाद का मामला इतना उलझा होता है कि कई बार गरीब लोग इस तरह का रास्ता चुन लेते हैं। पिछले साल हमने प्राइम टाइम किया था कि यूपी में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जिसमें न्याय न मिलने के कारण लोग खुद को जला लेते हैं। 

उत्तराखंड में सरकारी भर्ती का भयंकर घोटाला हुआ है। मंत्रियों की दलील संतोषजनक नहीं है। सवाल है कि क्या वहाँ ED की टीम जाएगी? CBI की टीम जाएगी ? मंत्रियों के इस्तीफ़े होंगे ? केवल इस्तीफ़ा होगा या मामले की सही जाँच भी होगी? इन सवालों के जवाब माँगते रहिए और ब्रेक ले लीजिए ।