This Article is From Aug 23, 2022

नय्यरा नूर की याद और नूर की तलाश 

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Priyadarshan

नय्यरा नूर को पहली बार मैंने कब सुना था? शायद साल 1999 में, जब अग्रज पत्रकार और संपादक ओम थानवी ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों की एक सीडी मुझे भेंट की थी। उस सीडी में फ़ैज़ की अपनी आवाज़ मे नज़्मों के अलावा इक़बाल बानो, नूरजहां, मेहदी हसन, नय्यरा नूर जैसे कलाकारों की गाई ग़ज़लें और नज़्मे भी शामिल थीं। 

ये वे दिन थे जब यूट्यूब जैसी शै ने संगीत को बिल्कुल हमारे मोबाइल का खेल नहीं बना डाला था और एक-एक रिकॉर्ड खोजना और पाना फ़ख्र की बात माना जाता था। इस लिहाज से वह एक बेशक़ीमती गुलदस्ता था। बेशक, इस गुलदस्ते की सबसेआंच देती हुई चीज़ इक़बाल बानो की गाई नज़्म 'हम देखेंगे' थी। उस नज़्म कोपहली बार सुनना अपने भीतर एक कौंधती हुई बिजली को महसूस करने जैसाथा- उसे सुनते हुए लगता था कि इंकलाब बिल्कुल हो रहा है, होकर रहेगा, वाकई सब तख्त गिराए जाएंगे और सब ताज उछाले जाएंगे, इंकलाब जैसे इक़बाल बानो की आवाज़ कालिबास पहन कर हम सबके दिलों में उतर आता था। 

उसी संग्रह में मेहदी हसन और नूरजहां ने भी फ़ैज़ को गाया था। और उसी संग्रह में नय्यरा नूर की गाई ग़ज़ल- 'हम तो ठहरे अजनबी' भी थी। लेकिन इक़बाल बानो और नूरजहां को सुनने के बाद नय्यरा नूर की गायी इस ग़ज़ल ने कुछ मायूस किया था- वे बहुत ठहरी हुई सपाट आवाज़ में इसे गाती लगी थीं। मगर कुछ दिन बाद नय्यरा नूर की गायी दूसरी नज़्म सुनी- वह भी फ़ैज़ की ही- 'आज बाज़ार में पा बज़ौला चलो।' यह नय्यरा नूर से हमारी नई पहचान थी। नज़्म जिस दर्द का बयान कर रही थी, उसे बिल्कुल मूर्त कर देने वाली यह आवाज़ थी। तब समझ में आया कि अलग-अलग ग़ज़लों को अलग-अलग ढंग से सुना और समझा जाना चाहिए।  

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यह भी समझ में आया कि नय्यरा नूर की तासीर दूसरी थी- वह जैसे इंकलाब के पहले की तकलीफ़ थी- धीरे धीरे रगों में घुलती हुई। एक खलिश की तरह हमारे भीतर देर तक चुभती हुई। 'हम देखेंगे' के मुकाम और मंच तक पहुंचने से पहले लहूलुहान पांवों से अपना रास्ता बनाती हुई।  

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लेकिन यह टिप्पणी नय्यरा नूर या दूसरे पाक कलाकारों की गायकी का बखान करने के लिए नहीं लिखी जा रही। इसका मक़सद बस नए सिरे से यह याद करना है कि 75 साल पहले राजनीति की वजह से जो दो मुल्क बंट गए, वे साहित्य, कला और संस्कृति की ज़मीन पर अब भी एक हैं। कराची में कोई नय्यरा नूर गुज़रती है तो उसके जाने की हूक दिल्ली-मुंबई तक महसूस की जाती है। 

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नय्यरा नूर तो पैदा भी भारत में हुई थीं- वह भी सुदूर पूर्वोत्तर में- बचपन के सात साल उन्होंने गुवाहाटी में बिताए। फैशन डिज़ाइन में जाना चाहती थीं, किसी की सलाह पर रेडियो में गाने चली गईं। और फिर उनकी शोहरत ने जो बुलंदी हासिल की, उसकी छाया भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से पर पड़ती रही।  

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नय्यरा नूर अकेली नहीं हैं। पाकिस्तान में ऐसे ढेर सारे गायक और कलाकार हैं जो हमें बिल्कुल अजनबी या पराये नहीं लगते। मेहदी हसन, गुलाम अली, फ़रीदा ख़ानम, रेशमा, आबिदा परवीन, नुसरत फ़तेह अली ख़ान- ये सब जैसे बिल्कुल अपने हैं। ये गाते भी वही हैं जो हम गाते हैं- अमीर ख़ुसरो, कबीर, मीरा, सूर, तुलसी, रहीम, ग़ालिब, मीर, इक़बाल, फ़ैज़, कतील शिफ़ाई,नासिर काज़मी। विधाएं भी वही हैं- ग़ज़ल,भजन, कव्वाली, ख़याल, ठुमरी, कजरी, टप्पा आदि-आदि। शास्त्रीय राग भी जस के तस। यही स्थिति इस पार की है। बेगम अख़्तर के बिना ग़ज़ल की कोई चर्चा पूरी नहीं होती। इधर के शास्त्रीय दिग्गज उधर भी उसी निष्ठा  से सुने जाते हैं। 

लेकिन यह सिर्फ़ संगीत का साझा नहीं है जो दोनों मुल्कों को बांधता है। और यह सिर्फ़ दोनों मुल्कों के बीच एक समान चलने वाली गंगा-जमनी संस्कृति का हवाला भर भी नहीं है। ध्यान से देखें तो भारत से पश्चिम एशिया तक जाती पूरी पट्टी अपने जीवन, अपने विश्वासों, अपने रहन-सहन में काफ़ी कुछ एक है। उन्हें उनका मनोरंजन ही नहीं जोड़ता, उन्हें उनके दुख भी जोड़ते हैं, उन्हें उनकी पितृसत्तात्मक पारिवारिकता की जकड़नें भी जोड़ती हैं। कुर्तुलेन हैदर के 'आग का दरिया' का कांग्रेसी कमाल किस मजबूरी में मुस्लिम लीगी हो जाता है और किस मायूसी से अपनी बहन को एक दिल तोड़ने वाला ख़त लिखता है, यह भूला नहीं जा सकता। मंटो का टोबा टेक सिंह अपना मुल्क खोजता-खोजता अपने गांव का ही नाम हो जाता है। पाकिस्तान के लेखक मोहम्मद हनीफ़ का उपन्यास ‘अ केस ऑफ़ एक्सप्लोडिंग मैंगोज़' बताता है कि किस तरह तानाशाही मंसूबों वाला एक जनरल पूरे मुल्क का सांप्रदायिकीकरण कर डालता है, कैसे आधुनिकता की तरफ़ बढ़ते लोग कट्टर हो उठते हैं।अब दुनिया भर में मशहूर हो चुके ख़ालिद हुसैनी के उपन्यासों को पढ़िए तो लगेगा कि बिल्कुल भारतीय माहौल है- उन राजनीतिक त्रासदियों के अलावा जो वहां धर्म के नाम पर थोप दी गईं। ऐश्ने सेयरस्ताड नाम की नार्वे की एक पत्रकार ने काबुल में किताब बेचने वाले एक शख़्स के यहां छह महीने गुज़ार कर एक किताब लिखी- 'द बुकसेलर ऑफ़ काबुल।' सुल्तान नाम का यह किताब वाला बताता है कि उसकी किताबें रूसियों ने भी जलाईं, अमेरिकियों ने भी जलाईं और तालिबान ने भी जलाई। लेखिका यह भी बताती है कि जिस काबुल में धूप से चमड़ी झुलस जाती है, वहां सुल्तान की बहन लैला धूप की कमी से बीमार पड़ जाती है- क्योंकि उसे निकलने और बिना पूरा शरीर ढंके निकलने की इजज़त नहीं है।  

भारत-पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान ही नहीं, ईरान-इराक-तुर्की और मिस्र तक की कहानियां देखें, उनके उपन्यास पढ़ें, उनकी कविताओं से गुजरें तो पाएंगे कि यह पूरा इलाक़ा एक से सामाजिक तनाव से, एक जैसी पारिवारिक विडंबनाओं से, एक जैसे दोहरेपन से गुज़रता रहा है- एक जैसे संघर्ष से भी। तुर्की के लेखक ओरहान पामुक की 'स्नो' पढ़ें तो आज के भारत का तनाव दिखेगा। वहां एक प्रिंसिपल से बात करता एक शख़्स उसे गोली मार कर चल देता है। मिस्र के लेखक महफ़ूज़ नगीब के उपन्यास 'पैलेस वॉक' का अहमद देर शाम तक दोस्तों के साथ अड्डा लगाता है और घर लौटता है- उसके बेटे भी उसी की तरह घूम सकते हैं, लेकिन सारी पाबंदियां बेटियों पर और बीवी अमीना पर है। बीवी एक शाम उसे बिना बताए निकल जाती है तो वह उसे तलाक़ दे डालता है।  

दरअसल इस बहुत बिखरे हुए यथार्थ को याद करने का मकसद बस यह याद करना है कि जिस राजनीतिक सच्चाई को हम अंतिम मानते हैं, वह अंतिम नहीं होती। बेशक, वह राजनीति समाज को भी बदलती जाती है, लेकिन समाज की अपनी एक अंतर्धारा होती है जो सदियों तक बनी रहती है। वह अपने कवियों, गायकों की आवाज़ों से बंधी होती है। अगर हम इसे पहचानें तो पाएंगे कि धार्मिक भिन्नता के बावजूद एक समाज के रूप में हम बहुत अलग नहीं हैं। कम से कम जिस यूरोप और अमेरिका के करीब हम जाने की कोशिश कर रहे हैं, उसके मुक़ाबले ये देश और समाज हमारे बेहद पास हैं।  

संकट यह है कि इस सच्चाई को पहचानने के लिए हमें राजनीति का चश्मा उतारना होगा, धर्म का भी। सभ्यताएं काल के बहुत विराट सांचे में रची जाती हैं। उन्हें सौ-पचास बरसों की उथल-पुथल बदलती तो है, लेकिन उनकी बुनियादी गढ़न वही रह जाती है। अगर इस समूची टिप्पणी से छूटी हुई बौद्ध परंपरा का इतिहास इसमें जोड़ लें तो पाएंगे कि पूरा का पूरा एशिया- चीन, जापान, कोरिया आदि तक- लगभग एक ही ढंग से धड़कते हैं। हालांकि इस उदारता से देखने पर सारी दुनिया एक तरह से सांस लेती दिखेगी, लेकिन फिर ऐसे देखने में हर्ज भी क्या है? 

दरअसल एक तरफ़ अमीर खुसरो है तो दूसरी तरफ़ रूमी है, और बीच में कहीं मिलारेपा हैं। एक सिलसिला है जो राबिया से शुरू होता हुआ अक्का महादेवी, ललद्दद और मीरा तक चला आता है।  

यह सारा कुछ अगर आपको एक साथ पाना हो तो संगीत के समंदर में गोते लगाना होगा। ऐसा नहीं कि यह समंदर इतना गहरा है कि आप उतर ही न सकें, वह बस आपके चारों ओर है, आपको उस पानी की थाह लेनी है। थाह लेने निकलें तो गुवाहाटी में पैदा हुई और कराची में आख़िरी सांस लेने वाली एक गायिका भी आपको उस नूर से जोड़ सकती है।  

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