This Article is From Aug 10, 2022

क्या नीतीश कुमार फिर सेक्युलर हो गए हैं? 

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Priyadarshan

जो लोग सेक्युलर राजनीति के समर्थक हैं, उन्हें अगले कई दिनों तक इस ताने का जवाब देना होगा- बीजेपी से अलग होकर और आरजेडी के साथ जुड़ कर सरकार बनाते ही क्या नीतीश कुमार सेक्युलर हो गए हैं? भारतीय राजनीति में यह असमंजस बार-बार उभरता रहा है। राष्ट्रीय राजनीति में गठजोड़ युग आरंभ होते ही धर्मनिरपेक्षता वह फुटबॉल हो गई है जिसे हर दल अपनी सुविधा के हिसाब से खेलता है। बेशक, इसके कुछ अपवाद भी हैं। 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी अपनी पहली सरकार के लिए बहुमत जुटाने निकले थे और उनके सिपहसालार प्रमोद महाजन कह रहे थे कि प्रमोद और पेप्सी अपने राज़ नहीं बताते, तब सेक्युलर राजनीति ने सत्ता के लोभ से दूर रहने का बड़प्पन दिखाया था। यही नहीं, केंद्र में संयुक्त मोर्चा के उस पहले प्रयोग ने टूटने की क़ीमत पर भी अपनी एकता बनाए रखी थी। यह अलग बात है कि दो साल के भीतर बीजेपी ने संयुक्त मोर्चे  के भीतर पर्याप्त सेंधमारी कर सेक्युलर राजनीति के धुर्रे उड़ा दिए । 

उसके बाद से यह आम चलन सा बन गया है कि जो दल विकास के नाम पर बीजेपी के साथ जाता है, वह सांप्रदायिकता के सवाल पर बाहर आ जाता है और जो दल सांप्रदायिकता के सवाल पर बीजेपी का विरोध करता है, वह कभी विकास के नाम पर बीजेपी के साथ चला जाता है। बीजेपी आज की तारीख़ में केंद्रीय सत्ता राजनीति की कुछ वैसी ही धुरी हो चुकी है, जैसी कभी कांग्रेस हुआ करती थी और तब गैरकांग्रेसवाद का नारा देने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया कहते थे कि वे कांग्रेस को हराने के लिए शैतान से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। 

जाहिर है, अब शैतानों की पहचान भी बदल चुकी है और भारत की चुनावी राजनीति भी पहले से चालाक हो चुकी है। राजनीतिक दलों को सत्ता चाहिए- चाहे उसकी जो भी क़ीमत चुकानी पड़े। बेशक, इस नई रफ़्तार में एक मूल्य के रूप में धर्मनिरपेक्षता सबसे ज़्यादा कुचली गई है। एक दौर था जब आडवाणी 'छद्म धर्मनिरपेक्ष' शब्द का इस्तेमाल करते थे, लेकिन धीरे-धीरे जैसे धर्मनिरपेक्षता ही जैसे छद्म शब्द हो चुकी है। भारतीय राजनीति में ही नहीं, भारतीय बौद्धिक संसार में भी अब ऐसे लोग बढ़ रहे हैं जो हिंदुत्व की राजनीतिक परियोजना की तारीफ़ करते हुए सेक्युलर राजनीति को लगभग हास्यास्पद और दिशाहीन करार दे रहे हैं।  

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लेकिन अगर एक राजनीतिक मूल्य के रूप में धर्मनिरपेक्षता लगभग अप्रासंगिक हो गई है, जब वह बस ज़रूरत के हिसाब से पहना जाने वाला एक परिधान हो गई है, लगाया जाने वाला एक मुखौटा रह गई है- तो क्या इसलिए कि उसकी ज़रूरत नहीं बची है? और धर्मनिरपेक्षता से हमारी मुराद क्या-क्या है? धर्मनिरपेक्षता का पहला और मूल अर्थ तो यही है कि राज्य के लिए सभी धर्म बिल्कुल समान हैं। राज्य को सभी धर्मों के प्रति निरपेक्ष रहना है। इसका दूसरा अर्थ सांप्रदायिक सद्भाव और सहनशीलता है। अगर इन दोनों अर्थों को देखें तो धर्मनिरपेक्षता निश्चय ही ख़तरे में है। रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आता है कि अयोध्या में मंदिर बने और दूसरी जगह मस्जिद बने। मगर अदालत ने कहीं नहीं कहा कि सरकार यह राम मंदिर बनवाए। लेकिन राम मंदिर के उद्घाटन के लिए प्रधानमंत्री भी पहुंच गए और राज्य के मुख्यमंत्री भी। बेशक, इसमें कोई बात ग़ैरक़ानूनी नहीं है, लेकिन अगर वे वाकई सभी धर्मों के प्रति निरपेक्ष होते तो प्रधानमंत्री अदालत के आदेश पर बनने वाली मस्जिद की भी बुनियाद रखने जाते। मंदिर तो सारे देश का हो गया, मस्जिद बस एक समुदाय की रह गई। 

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अगर राज्य के इस रुख़ पर कोई सवाल नहीं उठ रहा है तो इसलिए कि समाज का वह ताना-बाना कमज़ोर पड़ा है जिसे धार्मिक सहिष्णुता या धर्मनिरपेक्षता कहते हैं।  

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यह भी एक वजह है कि समाज की नब्ज के हिसाब से चलने वाली राजनीति ने धर्मनिरपेक्षता को मौक़ापरस्त राजनीति का औज़ार बना लिया है। उसे मालूम है कि उसे धर्मनिरपेक्षता के साथ खिलवाड़ की कोई सज़ा नहीं मिलेगी।  

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लेकिन इस सरलीकरण को अंतिम सच मान लेंगे तो गठबंधन राजनीति के भीतर सक्रिय उन सूक्ष्म प्रक्रियाओं की अनदेखी की चूक करेंगे  जिनका वास्ता भारतीय मनोविज्ञान से है। यह ठीक है कि धर्मनिरपेक्षता की कोई परवाह नहीं करता, लेकिन यह एहसास सबको है कि इतने बड़े मुल्के में सदियों से साथ बसी आबादी को अलगाव का शिकार नहीं बनाया जा सकता। यह ठीक वैसा ही है जैसे इस देश में भ्रष्टाचार बिल्कुल आम है लेकिन हर कोई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ है। 2014 में मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ जो सबसे बड़ा असंतोष था, वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही था। इसके पहले 2010 में अण्णा हज़ारे के आंदोलन में वे सब भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में उतर आए जिन्हें जीवन में भ्रष्ट तौर-तरीक़ों से कभी एतराज़ नहीं रहा। 

यही हाल धर्मनिरपेक्षता का है। सत्ता के लिए शिवसेना भी धर्मनिरपेक्ष हो जाती है और नीतीश कुमार भी। लेकिन यह हमारी संवैधानिक प्रतिज्ञा का हिस्सा है और इससे कोई भी दल मुंह मोड़ नहीं सकता। प्रधानमंत्री भले इस संविधान की शपथ लेते हों और संसद भवन में सिर नवाते हों, लेकिन उनकी पार्टी के बहुत सारे लोगों को न यह संविधान रास आता है और न ही धर्मनिरपेक्षता की यह संवैधानिक प्रतिज्ञा। इसीलिए वे धर्मनिरपेक्षता, पंथनिरपेक्षता, सेक्युलरिज़्म जैसे शब्दों को अलग-अलग बताते हुए इस पूरे मुद्दे को उलझाने की कोशिश करते हैं। लेकिन भारतीय संदर्भ में इन तमाम शब्दों के जो न्यूनतम बुनियादी अर्थ हैं, वह यही कि भारतीय राष्ट्र राज्य तमाम आस्थाओं से तटस्थ रहेगा और सभी आस्थाओं को बराबरी के आधार पर जीने का अधिकार होगा।  

नीतीश और तेजस्वी यादव की सरकार पर लौटें। इसमें संदेह नहीं कि मौजूदा माहौल में जो भी गैरबीजेपी सरकार आती है, वह धर्मनिरपेक्ष विश्वासों वाले जमातों को कुछ सुकून और शांति देती है। शिवसेना भी बीजेपी से अलग होकर इन दिनों नखदंतविहीन लगती है और पीडीपी भी जब बीजेपी के करीब जाती है तो वह सांप्रदायिक मालूम होने लगती है। जाहिर है, बीजेपी की राजनीतिक कमाई यही है कि उसने खुद को हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद का प्रतिनिधि साबित किया है और यह बताया है कि हुकूमत करने के लिए उसे अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े समुदायों की फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है। दिलचस्प यह है कि बीजेपी के विचलन भी उसके समर्थकों की निगाह में बस रणनीति हैं। यानी अगर वह सत्ता के लिए समझौते करे तो यह चालाकी है लोकतंत्र से खिलवाड़ नहीं, उसके अध्यक्ष अगर कैमरे पर रुपये लेते और डॉलर मांगते पकड़े जाएं तो यह भ्रष्टाचार नहीं राजनीतिक स्टिंग है, अगर वे पीडीपी से लेकर नीतीश तक से समझौते करें तो यह जनादेश का उल्लंघन नहीं, लोकतंत्र के साथ प्रयोग है। लेकिन यही काम नीतीश या दूसरे करें तो वे भ्रष्ट, अलोकतांत्रिक और बेईमान हैं।  

जाहिर है, बीजेपी के विस्तार के साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों का भी क्षरण हुआ है और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का भी। निस्संदेह यह प्रक्रिया पहले से चलती रही है और इसमें कांग्रेस सहित दूसरे दलों का भी योगदान है। लेकिन आज की तारीख़ में बीजेपी इस क्षरण की सबसे बड़ी ज़िम्मेदार पार्टी नजर आती है। यही नहीं, पहले जो प्रक्रिया सिर्फ़ राजनीतिक सौदेबाज़ियों तक सीमित थी, वह सबसे बुरे ढंग से सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने का काम कर रही है- बल्कि भारत के विराट अगड़े मध्यवर्ग में उसने परिवारों को बांट दिया है- यहां जो पढ़े-लिखे, तर्क और विवेक को आधार बनाने वाले लोग हैं, वे खुद को अकेला पा रहे हैं।  

ऐसी स्थिति में लगातार कद्दावर होती जा रही बीजेपी से अगर नीतीश अलग होने का साहस दिखाते हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए। बेशक, इससे धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदारों को कुछ दिन तथाकथित सिद्धांतवादियों के ताने झेलने होंगे, लेकिन इसके अलावा कोई और उपाय नहीं है।  

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