हिंदी की विडंबनाओं का हिमालय

दुनिया के करोड़ों हिंदीभाषियों के लिए हिंदी दिवस गर्व का नहीं, शर्म का विषय होना चाहिए. लेकिन हर साल यह बात दुहराते जाने के बावजूद हम इस शर्म को हर बार गर्व की तरह ओढ़ने को मजबूर होते हैं.

हिंदी की विडंबनाओं का हिमालय

दुनिया के करोड़ों हिंदीभाषियों के लिए हिंदी दिवस गर्व का नहीं, शर्म का विषय होना चाहिए. लेकिन हर साल यह बात दुहराते जाने के बावजूद हम इस शर्म को हर बार गर्व की तरह ओढ़ने को मजबूर होते हैं. आखिर वह कौन सी विडंबना है जो एक भाषाबहुल देश की सबसे बड़ी भाषा के तौर पर हिंदी की सहज स्वीकृति के आगे ऐसी प्रश्नवाचकता लगाती है कि हमें हिंदी दिवस और उसके कर्मकांड ज़रूरी लगने लगते हैं?

दरअसल हिंदी की विडंबनाएं बहुत सारी हैं. वह हिंदी प्रदेश में भी हिंदी की किसी की मातृभाषा नहीं रही. वह भोजपुरी, मैथिली, मगही, अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, बैंसवाड़ी जैसी बोलियां बोलने वालों के बीच पढ़ाई-लिखाई की भाषा के रूप में विकसित होती रही. लेकिन मध्यवर्गीय भारत में उसकी इस भूमिका पर पिछले दो-तीन दशकों में अंग्रेज़ी ने ग्रहण लगा दिया है. पढ़ाई का माध्यम हिंदी की जगह अंग्रेजी होती चली गई है. पहले उच्च शिक्षा पर ही उसका क़ब्ज़ा था, अब बिल्कुल नर्सरी से ही वह बच्चों की भाषा होती जा रही है. इस दौरान हिंदी घरों की बोली में बदल चुकी है. वहां अवधी, भोजपुरी, ब्रज, बुंदेलखंडी की जगह हिंदी बोली जा रही है.

तो आज की तारीख़ में हिंदी भारत की भाषा नहीं बोली है. वह बाज़ार, मनोरंजन और सिनेमा की भाषा है. इस भूमिका में उसका विपुल विस्तार हुआ है. वह दुनिया के कई देशों में बोली जा रही है. वह इंटरनेट पर है, स्मार्टफोन पर है, सोशल मीडिया पर है, ओटीटी प्लैटफॉर्म्स पर है, सिनेमाघरों में है, साहित्य की बची-खुची दुनिया में है, कई तरह के अनुवादों में है. वह करोड़ों की कमाई के उन आंकड़ों में है जो बताते हैं कि कोई फिल्म कितनी कामयाब रही. 

हिंदी का यह विस्तार कई लोगों को प्रमुदित करता है. उन्हें लगता है कि हिंदी पर ख़तरे की बात करने वाले लोग बेमतलब डरे हुए हैं. हिंदी न सिर्फ़ सुरक्षित है, बल्कि सेहतमंद भी है. बल्कि वह खा-पीकर मोटी हुई जा रही है. इसमें अब बहुत सारी नौकरियों के अवसर निकले हैं, फ्रीलांसिंग की गुंजाइश बढ़ी है और देश और दुनिया घूमने के मौक़े भी मिल रहे हैं.

मगर सच्चाई क्या है? स्कूलों से हिंदी बहिष्कृत होती जा रही है. कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में वह पहले भी कम थी और अब पूरी तरह विलोप के कगार पर है. दिल्ली विश्वविद्यालय में अगर अंग्रेज़ी में 99 फ़ीसदी में दाख़िला मिल पाता है और कई कट ऑफ़ के बाद 88-90 फीसदी पर एकाध लोगों को किन्हीं दूर-दराज के कॉलेजों में ऐडमिशन मिल जाता है, तो हिंदी में दाखिले के लिए 60 फ़ीसदी लाना काफ़ी होता है. यानी कोई हिंदी पढ़ना नहीं चाहता. इतिहास-भूगोल और विज्ञान की पढ़ाई तो अंग्रेज़ी में वैसे भी होती है. 

यह दिल्ली नहीं, पूरे हिंदुस्तान का सच है. दूसरा सच यह है कि हिंदी में पारिश्रमिक घटा है. पत्र-पत्रिकाओं में पहले लेखों के लिए जितने पैसे मिल जाते थे, अब मुद्रास्फीति के हिसाब से उसके आधे भी नहीं मिलते. हिंदी में लेखन की हालत यह है कि एक भी लेखक सिर्फ लिख कर गुज़ारा करने की कल्पना नहीं कर सकता.

हिंदी की दूसरी विडंबना यह है कि भारतीय भाषाओं में उसके प्रति एक शत्रुतापूर्ण भाव है. बांग्ला, तमिल और मराठी जैसी भाषाओं को लगता है कि हिंदी उनकी जगह घेर रही है. इन भाषाओं को नहीं मालूम कि हिंदी दरअसल उनकी गरीब बड़ी बहन है जो अंग्रेज़ी के साम्राज्यवादी वैभव के आगे कहीं टिकती नहीं. अंग्रेज़ी अगर अमीर भारत की संपर्क भाषा है जो धीरे-धीरे अमीर भारत की भाषा हुई जा रही है तो हिंदी ग़रीब भारत की भाषा है जो गरीबों की संपर्क भाषा के रूप में बदलती जा रही है.

हिंदी की तीसरी विडंबना उसके लोगों का भावुक और नकली हिंदी प्रेम है जिसकी परिणति दरअसल विश्वासघात में होती है. ये तथाकथित हिंदी प्रेमी शुद्ध हिंदी के नाम पर उर्दू और फ़ारसी शब्दों की छंटाई की बात करते हैं और ऐसी हास्यास्पद हिंदी बोलते दिखाई पड़ते हैं जिससे लगता है कि ऐसी हिंदी न बोलना ही बेहतर है. फिर ये हिंदी प्रेमी लोग ख़ुद मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू जैसी भाषाएं सीखते नहीं और उनकी अशुद्ध हिंदी का मज़ाक बनाते हैं. यही नहीं, अपने बच्चों की पढ़ाई और नौकरी के लिए वे बड़ी सहजता से अंग्रेज़ी का चुनाव कर लेते हैं. उनके घरों में हिंदी किताबें नहीं पढ़ी जातीं.

हिंदी की चौथी विडंबना सरकारी दफ़्तरों में उसके साथ होने वाली बेईमानी है. वहां हिंदी अफ़सरों के नाम पर ज़्यादातर अयोग्य लोग भरे हुए हैं जो अपने दफ़्तरों में हिंदी में कामकाज की संस्कृति को बढ़ावा देने की जगह साल में एक दिन एक कर्मकांड में लगे रहते हैं और बाक़ी दिन तमाम हिंदी समितियों को ख़ुश करने में. इनमें से कुछ कवि और लेखक होने की इच्छा रखने वाले लोग भी होते हैं जो या तो पत्रिकाएं निकालते हैं या हिंदी पत्रिकाओं को उपकृत कर उनमें छपने का रास्ता निकालते हैं.

ये सारी विडंबनाएं अलग-अलग हैं या इनका आपस में कोई रिश्ता है? ध्यान से देखें तो यह हिंदी की पीठ पर कुछ वह औपनिवेशिक बोझ है जो अंग्रेज़ी के दबाव से पैदा हुआ है और कुछ बहुभाषिकता की संस्कृति में आई गिरावट जिसकी वजह से हिंदी अपनों के बीच बेगानी ही नहीं, खलनायक की तरह देखी गई. दिलचस्प ये है कि कल तक जो लोग अंग्रेज़ों के साथ थे, वे अब अंग्रेज़ी के साथ हैं.

सवाल है, हिंदी के लिए रास्ता कहां से बनता है? इत्तिफ़ाक़ से हिंदी धीरे-धीरे उन ग़रीबों की, आदिवासियों और दलितों की भाषा बनती जा रही है जहां पहली पीढ़ियां स्कूल में पांव रख रही हैं. यह अनायास नहीं है कि इन दिनों हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में भी सबसे ज़्यादा जो साहित्य पढ़ा जा रहा है, वह दलित साहित्य है. हालांकि एक दौर था जब अंबेडकर कहा करते थे कि अंग्रेज़ी इस देश में बाघिन का दूध है- इसे पी लेने वाले को भारत में कोई छू नहीं सकता. इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेज़ी की यह हैसियत अब भी बाक़ी है, लेकिन अपनी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति की वजह से इसके प्रतिरोध की भाषा बनने की हैसियत हिंदी में ही है.

दुर्भाग्य से फिलहाल हिंदी अपनी इस ऐतिहासिक भूमिका के लिए भी तैयार नहीं है. वह अभी बर्बर सांप्रदायिक जमातों की भाषा बनी हुई है. वह सोशल मीडिया पर बहुत अशुद्ध और अशिष्ट ढंग से परोसे जा रहे अज्ञान और झूठे-कुत्सित समाचारों की भाषा बनी हुई है. वह सत्ता के अहंकार की भाषा बनी हुई है. वह किसी भाषिक चेतना और स्मृति से बिल्कुल वंचित और ख़राब अंग्रेज़ी छौंक से लैस अनपढ़ मीडिया की भाषा बनी हुई है.

बेशक, एक बहुत छोटा सा तबका है जो हिंदी की रचनात्मक संभावनाओं के प्रति संवेदनशील है और चाहता है कि वह अपनी सहजता में संप्रेषणीय और सम्माननीय हो. लेकिन ऐसी हिंदी को स्थापित करने का काम जिस समाज का है, उसके निर्माण की चुनौती बिल्कुल कई-कई हिमालय चढ़ने की चुनौती जैसी है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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