This Article is From Aug 12, 2022

राष्ट्रगीत के भारत भाग्य विधाता कहां हैं?

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Priyadarshan

देशभक्ति इतनी आसान कभी नहीं रही. बस, एक तिरंगा फहराओ और देशभक्त बन जाओ. देश की आज़ादी के 75 साल पूरे होने के अवसर पर प्रधानमंत्री ने तीन दिन हर घर में तिरंगा फहराने का संकल्प दिया. अब यह संकल्प पूरा करने को हर कोई कटिबद्ध हो गया. रातों-रात झंडे का एक कुटीर उद्योग खड़ा हो गया है, स्कूलों से दफ़्तरों और राशन दुकानों तक कहीं चंदे, कहीं बिक्री और कहीं वेतन कटौती के ज़रिये झंडे का इंतज़ाम हो रहा है, हाउसिंग सोसाइटीज़ के आरडब्ल्यूए नए जोशो-खरोश से भर गए हैं और जगह-जगह तिरंगा लहराने भी लगा है.

देशभक्ति के इस खेल में BJP बाज़ी न मार जाए, इसलिए दूसरी सरकारें भी टूट पड़ी हैं. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल पूरे देश से 14 अगस्त को शाम 5 बजे हाथ में तिरंगा लेकर राष्ट्रगान गाने की अपील कर रहे हैं. दूसरी राज्य सरकारें भी ऐसे कार्यक्रम बना रही हैं.

15 अगस्त के बाद इन 20 करोड़ या इससे भी ज़्यादा बन चुके झंडों का क्या होगा, क्या वे किन्हीं छतों या अटारियों या खंभों पर लहराते फीके पड़ते और मौसम के हिसाब से फटते चले जाएंगे या फिर इन्हें सम्मान के साथ उतारकर संभालकर रखा जाएगा? या इनके लिए कोई और आयोजन होगा? आसान देशभक्ति के इस ज्वार में इस सवाल का जवाब कौन देगा?

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निश्चय ही प्रतीकों का एक महत्व होता है. तिरंगा हो या राष्ट्रगान - वे हमारे भीतर राष्ट्रीय गौरव का एक ज़रूरी अभिमान भरते हैं. लेकिन कोई भी प्रतीक इतना बड़ा नहीं होता कि उसके आगे मूल अर्थ व्यर्थ हो जाए. तिरंगा अगर देश के उल्लास और उसकी आज़ादी का प्रतीक है तो वह उसकी उदासी और मायूसी का भी संवहन कर सकता है. कभी धूमिल ने 'कल सुनना मुझे सुनना' में लिखा था, 'क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है? / जिन्हें एक पहिया ढोता है? / या इसका ख़ास मतलब होता है?' अगर आप इसे तिरंगे की अवमानना की तरह पढ़ेंगे तो यही कहना पड़ेगा कि न आपको तिरंगे का महत्व समझ में आया, न देश के होने का मतलब. देश एक भूगोल नहीं होता, वह लोगों से, उनकी स्मृतियों और उनके साझा स्वप्नों से बनता है. जब उसमें कोई सामाजिक टूटन पैदा करने की कोशिश करता है तो देश उदास होता है. जब उसमें बड़ी गहरी आर्थिक विषमता होती है तो देश उदास होता है. रघुवीर सहाय बिल्कुल देशभक्त ही थे, जब उन्होंने पूछा था कि 'राष्ट्रगीत में भला कौन यह भारत भाग्य विधाता है / फटा सुथन्ना पहने जिसके गुण हरचरना गाता है.' और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बिल्कुल ठीक कहा था - 'यदि तुम्हारे घर के / एक कमरे में आग लगी हो / तो क्या तुम / दूसरे कमरे में सो सकते हो? / यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में / लाशें सड़ रहीं हों / तो क्या तुम / दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो? / यदि हां / तो मुझे तुम से / कुछ नहीं कहना है. / देश कागज पर बना / नक्शा नहीं होता / कि एक हिस्से के फट जाने पर / बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें / और नदियां, पर्वत, शहर, गांव / वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें / अनमने रहें. / यदि तुम यह नहीं मानते / तो मुझे तुम्हारे साथ / नहीं रहना है.'

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लेकिन धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा है कि जिस कमरे में लाशें सड़ रही हैं, उसी कमरे में हम प्रार्थना करने को तैयार हैं. देशभक्ति का मतलब यह नहीं होता कि आप अपने देश की विसंगतियों पर सवाल न उठाएं. देशभक्ति का मतलब यह होता है कि आप उन विसंगतियों की पहचान करें और उन्हें दूर करने की कोशिश करें, ताकि देश ज़्यादा से ज़्यादा सभ्य, सुंदर और मानवीय हो सके. यह काम लेकिन आसान नहीं होता. इसके लिए मेहनत करनी होती है, त्याग करना पड़ता है, योजना बनानी पड़ती है. आलोचनाएं भी सुननी पड़ती हैं.

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मगर यह मुश्किल काम कौन करे? इसलिए नेता शॉर्टकट अपनाते हैं. वे देशभक्ति के कुछ आसान नुस्खे ईजाद करते हैं और उसे पैमाना बनाकर ख़ुद को देशभक्त साबित करते हैं.

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इस स्वाधीनता दिवस पर यही होने जा रहा है. जो सबसे ज़्यादा झंडे लगाएगा, वह सबसे बड़ा देशभक्त कहलाएगा. उसे बस वही चुनौती दे सकेगा, जो सबसे ऊंचा तिरंगा लगाएगा. उसे भी वही चुनौती दे सकेगा, जो तिरंगे के साथ-साथ राष्ट्रगान भी गाएगा. लेकिन इसका उल्टा भी हो सकता है और वह ज़्यादा ख़तरनाक हो सकता है. यानी जिसने किसी भी वजह से तिरंगा नहीं लगाया, उसके देशद्रोही कहलाने का ख़तरा है. उत्तराखंड BJP के प्रदेश अध्यक्ष ने यह कहा भी है कि जिसकी छत पर उस दिन झंडा नहीं दिखा, वह भरोसे के क़ाबिल नहीं होगा. यानी जिसने किसी भी वजह से तिरंगा लगाने की विराट परियोजना से असहमति जताई, वह गद्दार करार दिया जा सकता है. जिसे यह बात रास नहीं आती कि कोई तिरंगे को उसकी देशभक्ति का पैमाना बनाए और वह तिरंगा लगाने को तैयार नहीं होता तो वह भी गद्दार घोषित हो सकता है. एक तीसरी संभावना और उदास करने वाली है. बहुत सारे लोगों को यह साबित करने के लिए तिरंगा लगाना होगा कि वे देशभक्त हैं. फिर हमारे समाज में गोरक्षकों की तरह एक उत्पाती जमात बन चुकी है, जो शायद इस बात की भी निगरानी शुरू कर दे कि कौन तिरंगा नहीं लगा रहा है. अगर यह तिरंगा किसी अल्पसंख्यक, आदिवासी या दलित के घर नहीं दिखा, तब तो वह पक्का देशद्रोही माना जाएगा. चौथी बात यह है कि बहुत सारे चोर, बदमाश और भ्रष्ट लोग अभी से अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर तिरंगा लगाकर घूम रहे हैं - यह साबित करते हुए कि उनसे बड़ा देशभक्त कोई नहीं है.

ऐसी आसान देशभक्ति के कुछ और नुस्खे चले आ रहे हैं. आप पाकिस्तान को गाली दें, तब भी आप देशभक्त हैं. आप चीनी सामान के बहिष्कार की अपील करें - बिना यह जाने कि जिस मोबाइल से आप यह काम कर रहे हैं, उसमें भी चीनी उपकरण लगे हैं - तो आप देशभक्त हैं.

बल्कि धीरे-धीरे देशभक्ति का दायरा बड़ा होता जा रहा है. नक्सलवाद का विरोध भी देशभक्ति है. अल्पसंख्यकों पर संदेह करने वाले भी देशभक्त हैं. बल्कि ऐसे ही देशभक्त इस साल निगरानी कर लिस्ट बनाएंगे कि किन-किन लोगों ने अपने घर झंडा नहीं लगाया.

इस पूरी प्रक्रिया में तिरंगा फहराना एक सहज उल्लास का मामला नहीं रह गया है - वह कुछ लोगों के लिए वफ़ादारी का प्रदर्शन हो गया है तो कुछ के लिए एक मजबूरी. जिस तिरंगे पर हज़ारों नहीं, लाखों कविताएं लिखी गईं, जिस पर लिखे फिल्मी गीतों को सुनते हुए आंखें नम होती रहीं, वह अचानक राजनीतिक दबाव और प्रतिस्पर्द्धा का विषय हो जाए तो इससे उसके कुछ छोटा हो जाने का ख़तरा होता है. फिलहाल यही हो रहा है - कुछ लोगों के अतिरेकी रवैये से देश छोटा हो रहा है, देशभक्ति छोटी हो रही है और तिरंगा कारोबार से लेकर दिखावे और डर का सामान बन गया है. इन हालात में पूछने की इच्छा होती है कि राष्ट्रगीत में जिन्हें भारत भाग्य विधाता बताया गया है, वे अभी कहां हैं.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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