कभी हिंदी पत्रकारिता में रहे अमिष श्रीवास्तव इन दिनों अमेरिका के वर्जीनिया में रहते हैं. वहीं उन्होंने स्क्रीन प्ले की पढ़ाई की और फ़िल्मों का निर्देशन भी सीखा. उनकी बनाई एक शॉर्ट फिल्म ‘बिस्कुट' इन दिनों चर्चा में है. करीब पैंतीस मिनट की यह फिल्म अपनी कई विशेषताओं से प्रभावित करती है. फ़िल्म की कहानी के केंद्र में सरपंच का चुनाव है. पहली नज़र में लगता है कि यह गांव में दबंग जातियों की वर्चस्ववादी राजनीति और दलित जातियों के उत्पीड़न की जानी-पहचानी कहानी है. फ़िल्म शुरू होती है भूरा नाम के एक शख्स की पिटाई से. गांव का दबंग सरपंच नाराज़ है कि उसका ही यह गुर्गा गांव में घूम-घूम कर, लोगों से कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी लेते हुए चुनाव का एजेंडा बदल रहा है. भरपूर पिटाई के बाद उसे चाय-बिस्कुट दिया जाता है. यहां से कहानी बदल जाती है. फ़िल्म का पिटा हुआ नायक बिस्किट का स्वाद चखता है और चुपचाप एक नई कहानी शुरू कर देता है. यह कहानी बताना फ़िल्म का आनंद किरकिरा कर देना है, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं. वैसे फिल्म की असली ताकत इस कहानी में ही नहीं है, उन बेहद यथार्थवादी दृश्यों में है जो दर्शक को बांधे रखते हैं. फिल्म देखते हुए कई बार यह भ्रम हो सकता है कि हम कोई डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं.
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण माहौल की ऐसी विश्वसनीय तस्वीर सिनेमा में नई भले न हो, मगर इस फिल्म को अपनी तरह की प्रामाणिकता प्रदान करती है. यह समझ में आता है कि अमिष विश्व सिनेमा के यथार्थवादी दिग्गजों से कुछ प्रभावित रहे हैं. खुद वे मानते हैं कि मजीद मजीदी जैसे ईरानी फिल्मकारों और तारकोव्स्की जैसे रूसी फिल्मकारों से वे प्रभावित रहे हैं. शायद कुछ इस प्रभाव का भी स्पर्श है कि अमिष श्रीवास्तव दृश्यों को विस्तार और गहराई में रचने में भरोसा करते हैं. निश्चय ही इन दृश्यों के बीच कथा होती है और वह बस सहायक भूमिका में नहीं होती, लेकिन ये दृश्य कथा-तत्व को अपनी तरह की सूक्ष्मता प्रदान करते हैं. फ़िल्म में बिस्किट बनाने की प्रक्रिया बहुत दिलचस्प और विश्वसनीय ढंग से दिखाई गई है. गांव में चुनाव का माहौल भी बिल्कुल जीवंत हो उठा है. सबसे बड़ी बात- गांव बिल्कुल सजीव लगता है- अपनी बेबसी, अपनी बदहाली और अपनी नाउम्मीदी के बावजूद अपनी तरह से जीने के रास्ते खोजता हुआ.
निर्देशक ने इस यथार्थवाद को अर्जित करने के लिए और भी युक्तियां इस्तेमाल की हैं. कई वास्तविक गांववालों को फिल्म में उतार दिया गया है जिन्होंने फिल्मी कैमरे का सामना करना तो दूर, पहली बार ऐसा कैमरा देखा है. बेशक, फिल्म में कई मंजे कलाकार भी हैं. नेटफ्लिक्स की चर्चित वेब सीरीज़ 'सैक्रेड गेम्स' से अपनी अलग पहचान बनाने वाले चितरंजन त्रिपाठी यहां जमींदार की भूमिका में हैं. कई वेब सीरीज से पहचान बनाने वाले अमरजीत सिंह नायक ने भूरा की बहुत दिलचस्प भूमिका की है. कहने की ज़रूरत नहीं कि इन्होंने फिल्म के साथ पूरा न्याय किया है. अमिष श्रीवास्तव बताते हैं कि फिल्म में उन्होंने संवाद भी कम दिए, कलाकारों को बस दृश्य बता दिया और उन्हें आज़दी के साथ काम करने को छोड़ दिया.
बेशक फिल्म का अंत कुछ कम 'कन्विंसिंग' लग सकता है, लेकिन बड़ी बात यह नहीं है. बड़ी बात यह है कि फिल्म एक हल्की-फुल्की कहानी के बहाने अपने दर्शकों को इस दुनिया में ले जाती है जहां प्रजातंत्र अब भी सामंती जकड़बंदी का शिकार है, जहां सरकार की कल्याणकारी योजनाएं पहुंचने से पहले दम तोड़ देती हैं और जहां पेट भर भोजन और इज़्ज़त भर कपड़े जुटाना भी एक बड़ी चुनौती है. फिर ध्यान से देखें तो इस अंत का एक प्रतीकात्मक महत्व है. ऐसा लगता है जैसे लोकतंत्र के विराट दुर्ग पर दबंग जमातों के क़ब्ज़े के बीच एक शख़्स ने सेंधमारी कर ली है और ख़ुद को ताकतवर मानने वाले लोग ठगे से देखते रह गए हैं. पांच राज्यों में चल रही चुनावी हलचल के बीच यह फिल्म चुपचाप याद दिला जाती है कि चुनावी राजनीति का असली एजेंडा क्या होना चाहिए. एक 'कॉमिक रिलीफ़' के साथ खत्म होती यह फ़िल्म न सुलगते सवालों से बनी है और न ही सुहाने सपनों से- बस यह यथार्थ की ज़मीन पर चलती हुई बदलाव का एक रास्ता खोजने की कोशिश के बीच बनी है. अमिष श्रीवास्तव को इस फ़िल्म के लिए बधाई. फिल्म इसी सात फरवरी को गोरिल्ला शॉर्ट्स के यू ट्यूब चैनल पर रिलीज़ की गई है, हालांकि इसके पहले भी कई अंतरराष्ट्रीय समारोहों में फिल्म प्रशंसित-पुरस्कृत हो चुकी है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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