पंकज धीर चले गए, सबको महाभारत का कर्ण याद आया

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प्रियदर्शन

कुछ कलाकार किसी धूमकेतु की तरह उभरते हैं और फिर खो जाते हैं. उन पर कोई एक पहचान इस तरह हावी हो जाती है कि उनकी बाकी पहचानें गुम हो जाती हैं. पंकज धीर ऐसे ही कलाकार थे. आज जब उनके न रहने की खबर आई तो सबको 'महाभारत' सीरियल याद आया और वह कर्ण याद आया जो बहुत सारे लोगों की निगाह में 'महाभारत' का सबसे सशक्त चरित्र है. लेकिन पंकज धीर को जितना कर्ण की शख्सियत ने बनाया, उतना ही पंकज धीर ने भी कर्ण को गढ़ा था.

यह सच है कि कर्ण के चरित्र की जो विडंबनाएं हैं- जन्म के बाद से ही अस्वीकार दिए जाने की उसकी पीड़ा, जातिगत पहचान के आधार पर लगातार उपेक्षा और उपहाल झेलने का दंश, दुर्योधन की मैत्री, जिसमें कई अनचाहे फैसले करने पड़े, युद्धक्षेत्र में शल्य जैसा सारथी और अर्जुन जैसा प्रतिद्वंद्वी- इन सबने मिलकर उसे गढ़ा था. पंकज धीर कर्ण के इस व्यक्तित्व की जटिलता को इस तरह अपने अभिनय में समाहित करते चले गए कि वे बिल्कुल कर्ण ही हो गए.

कर्ण मतलब पंकज धीर

कर्ण का साहस, कर्ण का संयम, कर्ण का दान, कर्ण की बेचैनी- सब हमें बिल्कुल वास्तविक लगते और आने वाले वर्षों में लोगों ने जब भी कर्ण को याद किया तो पंकज धीर का चेहरा ही याद आया. बेशक, यह बात कुछ और कलाकारों के साथ भी घटित हुई, लेकिन पंकज शायद कर्ण के जटिल चरित्र का निर्वाह सबसे सहजता से करते रहे. आज जब पंकज धीर नहीं रहे तो सबको कर्ण याद आ रहा है. वैसे 'महाभारत' का यह किरदार साहित्य और संस्कृति की दुनिया को अरसे से लुभाता रहा है. मराठी उपन्यासकार शिवाजी सावंत का उपन्यास 'मृत्युंजय' कर्ण-कथा कह कर अमर हो गया. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मिरथी' जैसा खंडकाव्य लिखकर कर्ण के चरित्र को अतिरिक्त गरिमा और भव्यता दी. 

pankaj dheer
Photo Credit: महाभारत के एक सीन में कर्ण की भूमिका में पंकज धीर

कर्ण की करुण छवि

लेकिन कर्ण के व्यक्तित्व का जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, मुझे लगता है, उसी को गलत ढंग से पढ़ा जा रहा है. क्योंकि ऐसा लगता है, जैसे भारतीय मानस में कर्ण की स्मृति जातिवाद के विरुद्ध लड़ने वाले एक शख़्स की स्मृति है. 'रश्मिरथी' में जिस दृढ़ता से वह जातिवाद के विरुद्ध बोलता है, जाति की यंत्रणा को झेलता दिखाई पड़ता है. राजपुरुषों के बीच उपेक्षित सा पड़ा रहता है, वह कर्ण की एक करुण छवि बनाते हैं. उसे मां ने जन्म के साथ त्याग दिया, एक सारथी के घर में वह पला, उसे द्रोण ने शिक्षा से वंचित किया, उससे इंद्र ने कवच-कुंडल ले लिए, उसे परशुराम ने शाप दिया कि वह अपने अंत में अपनी विद्या ही भूल जाएगा, उसे शल्य ने निरुत्साहित किया, वह जब निहत्था था तब उस पर तीर चलाने के लिए कृष्ण ने अर्जुन को उकसाया. यह सब एक विडंबनामूलक किरदार गढ़ते हैं- वह किरदार जो जीवन भर अपने संकल्पों और अपनी शपथों के साथ खड़ा रहा, उसने अपने से श्रेष्ठ माने जाने वाले लोगों को पराजित किया और अंततः मैत्री नाम के एक बड़े मूल्य के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया.

पंकज धीर, पुनीत इस्सर और मुकेश खन्ना

सूत पुत्र कर्ण बनाम सूर्य पुत्र कर्ण  

लेकिन यहां एक लम्हे को रुक कर विचार करने की ज़रूरत है. क्या 'महाभारत' की कथा बिना कुछ कहे यह स्थापित नहीं करती कि कर्ण के भीतर जो भी गुण आए, वह उसके जन्म की वजह से आए हैं? क्या कथाकार कभी एक लम्हे को भी भूलने देता है कि कर्ण सूर्यपुत्र है और कुंती का बेटा है- यानी उसकी रगों में भी वही क्षत्रिय रक्त प्रवाहित होता है जो अर्जुन, भीम या दूसरे योद्धाओं में होता है? यानी जो सामाजिक अभिशाप कर्ण को झेलने पड़े, उनका सामना वह इसलिए कर पाया कि वह जन्मना क्षत्रिय है, उच्च कुल का है. इस तरह देखें तो 'महाभारत' की कथा अपने पाठकों के साथ एक तरह का छल करती है. वह जाति के पक्ष में खड़े एक चरित्र को जाति के विरुद्ध संग्राम में खड़ा दिखाती है.

ताउम्र कर्ण ही रहे पंकज धीर

यहां चाहें तो रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास 'गोरा' को याद कर सकते हैं. उपन्यास का नायक गोरा जीवन भर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के गुण गाता रहता है- यह मानता हुआ कि वह उच्च कुल में पैदा हुआ हिंदू है, लेकिन अंत में उसे पता चलता है कि वह तो ईसाई मां-पिता की संतान है. गोरा का भ्रम टूटता है, लेकिन कर्ण के भीतर ऐसा कोई भ्रम नहीं है. उसे मालूम है कि वह किनकी संतान है, उसके अधिकार कहां तक जाते हैं और इससे पैदा आत्मविश्वास भी उसका अस्त्र बनता है.

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'कर्ण' से जीत नहीं पाए पंकज

पंकज धीर पर लौटें. यह सच है कि कर्ण की छवि और स्मृति से पंकज कभी मुक्त नहीं हो सके. लेकिन इसमें शक नहीं कि उन्होंने अपनी छवि बार-बार तोड़ने की कोशिश की. 'महाभारत' के बाद 'चंद्रकांता' सीरियल में उन्होंने शिवदत्त की भूमिका की और उसे बहुत विश्वसनीयता प्रदान की. फिल्मों में भी टुकड़ा-टुकड़ा भूमिकाओं में आते रहे और अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाते रहे. लेकिन जिंदगी के महाभारत में वे कर्ण से जीत नहीं सके. कर्ण को उन्होंने एक ज़िंदगी दी थी, एक चेहरा दिया था. और जब पंकज नहीं रहे, तो सबको कर्ण याद आया. जीवन भर अपनी पहचान खोजने वाले कर्ण ने अंततः उनमें अपनी एक पहचान पा ली थी.