अठारहवीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव को खत्म हुए अभी 100 दिन ही पूरे हुए हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के संकल्प को पूरा करते हुए कैबिनेट में रामनाथ कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है. रिपोर्ट को मंज़ूरी के बाद संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में संविधान संशोधन विधेयक लाए जाने का रास्ता साफ हो गया है. 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' को देश में अमली जामा पहनाने के लिए सरकार ने सितंबर, 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटी गठित की थी, जिसने मार्च, 2024 में अपनी रिपोर्ट को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपा. जिस समय यह रिपोर्ट आई थी, देश में लोकसभा चुनाव का माहौल था. रिपोर्ट में कमेटी ने देश में एक समयसीमा में लोकसभा, विधानसभा और पंचायतों के चुनाव कराने की सिफारिश की है. कैबिनेट में रामनाथ कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार किए जाने के बाद इससे जुड़े कई सवाल खड़े हो गए हैं.
'एक राष्ट्र, एक चुनाव' का संकल्प
इसी साल 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से जब प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित किया, तो उनके भाषण से ही स्पष्ट हो गया था कि सरकार जल्द ही 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' पर बड़ा फ़ैसला लेने वाली है. इस संबोधन में उन्होंने कहा था - "बार-बार चुनाव देश के विकास में गतिरोध पैदा कर रहे हैं... किसी भी योजना या पहल को चुनाव से जोड़ना आसान हो गया है... हर तीन से छह महीने में कहीं न कहीं चुनाव होते हैं... हर काम चुनाव से जोड़ दिया जाता है..." इस भाषण में उन्होंने आगे कहा - "वन नेशन, वन इलेक्शन के लिए देश को आगे आना होगा... मैं लाल किले से देश के राजनीतिक दलों से आग्रह करता हूं, देश के संविधान को समझने वाले लोगों से आग्रह करता हूं कि भारत की प्रगति के लिए, भारत के संसाधनों का सर्वाधिक उपयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से, 'वन नेशन, वन इलेक्शन' के सपने को साकार करने के लिए आगे आएं..." प्रधानमंत्री ने अपने इसी संकल्प को पूरा करते हुए कैबिनेट में रामनाथ कोविंद की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया. अब सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में संविधान संशोधन विधेयक पेश करने की तैयारी कर रही है.
वैसे तो देश में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' कराने का विचार 1983 में चुनाव आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सरकार के सामने रखा था. उसके बाद 1999 में लॉ कमीशन ने भी अपनी 170वीं रिपोर्ट में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' की बात कही थी. 2002 में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में बने राष्ट्रीय आयोग (NCRWC) ने भी अपनी रिपोर्ट में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' की ज़रूरत को सरकार के सामने रखा था. लेकिन लंबे समय तक किसी भी राजनीतिक दल की सरकार ने इन सुझावों पर गंभीरता से विचार नहीं किया. वहीं, भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने 2019 के लोकसभा चुनाव के संकल्प पत्र में इसे शामिल किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तीसरे टर्म की शुरुआत के 100 दिन के भीतर इसे लागू करने की दिशा में काम शुरू कर दिया है.
कैसे समस्या बन जाते हैं बार-बार चुनाव...?
देश में लोकसभा के चुनाव संपन्न हुए अभी 100 दिन ही पूरे हुए हैं कि हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. फिर अगले साल नवंबर तक चार राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार की विधानसभाओं के चुनाव होंगे. इसके बाद 2026 में असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और केरल विधानसभाओं के चुनाव का माहौल पूरे देश में होगा. यही नहीं, 2027 में इन सात राज्यों के चुनाव होंगे - गोवा, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और गुजरात.
देश ने पिछले एक दशक में जिस राजनीतिक स्थिरता के दौर को देखा है, उसका ही परिणाम है कि भारत व्यवस्थित आर्थिक नीति के साथ-साथ स्थिर विदेश नीति और सुरक्षा नीति को अपनाने में सफल हुआ है. नीतियों में आई इस स्थिरता का लाभ देश की 140 करोड़ आबादी को 'ईज़ ऑफ लिविंग' में सुधार से मिला है. यदि 'ईज़ ऑफ लिविंग' को 2047 तक विकसित देशों के समान बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो ज़रूरी है कि लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया से केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियां और उनका क्रियान्वयन प्रभावित न हो.
राजनीतिक दलों का रुख
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने कैबिनेट से रामनाथ कोविंद की रिपोर्ट को मंज़ूरी तो दे दी है, लेकिन कुछ विपक्षी दल 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के विरोध में हैं. रामनाथ कोविंद कमेटी ने देश के सभी राजनीतिक दलों से इस विषय पर राय मांगी थी, जिनमें 12 राजनीतिक दलों - शिरोमणि अकाली दल, तेलुगू देशम, सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, केरल कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा, जम्मू व कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस, इंडियन मुस्लिम लीग और भारत राष्ट्र समिति ने कमेटी के सामने अपनी कोई राय नहीं रखी.
इन 12 राजनीतिक दलों से अलग जिन 47 राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे पर कमेटी के सामने अपनी राय रखी, उनमें से कांग्रेस और AAP सहित सिर्फ 15 राजनीतिक दल इसके विरोध में हैं, जबकि 32 राजनीतिक दल इसके पक्ष में हैं. कमेटी के सामने राजनीतिक दलों के रुख से साफ हो जाता है कि देश में सियासी पार्टियों का एक बड़ा बहुमत 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के पक्ष में है. आज देश में राजनीतिक दलों के एक बड़े बहुमत के साथ-साथ कानूनी विशेषज्ञ, व्यापारिक संगठनों के अध्यक्ष और सामाजिक संगठन 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के पक्ष में हैं.
कैसे कटेगी कानून की फांस
'एक राष्ट्र, एक चुनाव' को हकीकत में बदलना भगीरथ प्रयास है, जिसका बीड़ा खुद प्रधानमंत्री ने उठाया है. उन्होंने लगातार इस पर विमर्श खड़ा करने की कोशिश की है. अब जब यह प्रक्रिया काफी आगे बढ़ चुकी है, तो इस विचार को हकीकत में बदलने के लिए संविधान के कई प्रावधानों में संशोधन करना पड़ेगा. इसमें लोकसभा और विधानसभाओं की समयसीमा को निर्धारित करने वाली संविधान की धाराओं 83, 85, 172, 175 और 356 में बदलाव करना होगा. इन बदलावों की शक्ति संसद को संविधान का आर्टिकल 368 देता है. इन संवैधानिक प्रावधानों के अलावा जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में भी बदलाव करने पड़ेंगे. इन सभी संवैधानिक बदलावों के लिए सरकार ने कमर कस ली है. संसद से इन संविधान संशोधनों को पारित कराने में सरकार को कोई भी दिक्कत नहीं पेश आने वाली है, क्योंकि लोकसभा में NDA का बहुमत तो है ही, राज्यसभा में भी NDA ने पिछले महीने ही बहुमत पा लिया है.
प्रधानमंत्री ने देशवासियों से किए गए 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के वादे को पूरा करने के लिए मज़बूती से कदम आगे बढ़ा दिया है. 5 अगस्त, 2019 को इस सरकार ने जिस तरह जम्मू एवं कश्मीर से एक ही झटके में आर्टिकल 370 को खत्म करने का काम किया था, उसे देखते हुए 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' का लागू होना असंभव नहीं दिखता है.
हरीश चंद्र बर्णवाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं...
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