उत्तराखंड में मैदानी क्षेत्र के गांव मानक मजरा और पहाड़ी क्षेत्र के चनौला गांव में लोहार पीढ़ियों से किसानों के औजार बनाते आए हैं. आधुनिक मशीनों और बदलते बाजार ने उनकी आजीविका को संकट में डाल दिया है. अगली पीढ़ी की इस काम से दूरी और मांग में कमी से यह पुश्तैनी शिल्प विलुप्त होने की कगार पर है और इतिहास में दर्ज होने वाला है.
मुल्तान के लोहार हिंदुस्तान में कब बसे
जाहिद हसन और उनके भाई वाजिद हसन उत्तराखंड के मानक मजरा गांव में रहते हैं. यह रुड़की से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर है. जाहिद कहते हैं कि वे मिर्जा जाति से हैं और उनका परिवार पीढ़ियों से लोहार का काम करता आया है. उनके दादा का नाम मोहम्मद हसन था और वे अपने भाई रज्जाक के साथ 1947 के बंटवारे के दौरान मुल्तान से भारत आए थे. लाहौर से उनके रिश्तेदार कुछ सालों तक यहां आते रहते थे, लेकिन समय के साथ यह सिलसिला थम गया.
जाहिद कहते हैं, बंटवारे के दौर में मानक मजरा में लोहारों की कमी थी, जिसके चलते गांव के प्रधान चतरू ने उनके परिवार को घर के लिए ज़मीन के पट्टे देकर बसने में मदद की. जाहिद और उनके भाई वाजिद ने अपने पिता अब्दुल हमीद से लोहारी का हुनर सीखा है.
लोहारी का शिल्प और तकनीक
जाहिद और वाजिद का काम किसानों की ज़रूरतों के इर्द-गिर्द घूमता है.
जाहिद कहते हैं कि वे दरांती, खुरपा और पाटल जैसे औजार बनाते हैं, जो खेती और पेड़ काटने के काम आते हैं. इसके अलावा, वे पुराने लोहे के औजारों में धार लगाने का काम भी करते हैं, जो उनकी आय का मुख्य ज़रिया है.
जाहिद, दुकान के आगे बना गड्ढा दिखाते हुए कहते हैं कि इस गड्ढे में कोयला डाला जाता है. कोयले को जलाने के लिए वे हवा देने वाली मशीन का इस्तेमाल करते हैं. यह मशीन दो तरह की आती हैं, एक मशीन हाथ से चलती है और दूसरी बिजली से.
औजार के आकार के हिसाब से वे कबाड़ी से खास तरह का लोहा खरीदते हैं, जैसे पाटल के लिए चौड़ा और मज़बूत लोहे का टुकड़ा लिया जाता है.
कोयला वे लकड़ी की भट्टियों से 20 रुपये प्रति किलो की दर से खरीदते हैं और एक महीने में करीब 50 किलो कोयला खप जाता है.
भट्टी की आग में लोहा तपता है और हथौड़ों की ठक-ठक से वह औजार का रूप लेता है.
बदलता बाज़ार और आर्थिक चुनौतियां
पिछले दो दशकों में इस पेशे में बड़ा बदलाव आया है.जाहिद कहते हैं कि बीस साल पहले एक पाटल 200 रुपये में बिकता था, वह अब 250 रुपये का हो गया है. कोयले की कीमत भी 6-7 रुपये प्रति किलो से बढ़कर 20 रुपये हो गई है. 20 रुपये में बिकने वाली दरांती अब 50 रुपये में बिकती है.
कीमतों में इस बढ़ोतरी के बावजूद, सामान की मांग में भारी कमी आई है. इसका कारण बताते हुए जाहिद कहते हैं कि पहले खेती का सारा काम हाथ से होता था, जिसके कारण फसल कटाई के मौसम में 200-300 दरांतियां आसानी से बिक जाती थीं. अब मशीनों के आने से यह संख्या घटकर 100-150 रह गईं हैं.
खुरपे की स्थिति और भी खराब है. पहले 100-150 खुरपे महीने में बिकते थे, अब सिर्फ 20-30 ही बनते और बिकते हैं. केवल छोटे खेत वाले किसान ही अब ये औजार खरीदते हैं. घर का राशन खरीदने लायक आय का मुख्य हिस्सा औजारों की मरम्मत से आता है.
लोहारों का वजूद ही खत्म हो जाएगा
जाहिद को लगता है कि उनका यह पुश्तैनी पेशा अगले 10-20 साल में शायद खत्म हो जाएगा. वे कहते हैं, मशीनों ने खेती के तरीकों को बदल दिया है और पशुपालन में कमी के कारण घास काटने की ज़रूरत भी घट रही है. दरांती और खुरपे जैसे औजारों की मांग दिन-ब-दिन सिकुड़ती जा रही है. इस बदलते दौर में उनके बच्चे इस पेशे को अपनाने के इच्छुक नहीं हैं. उनका एक लड़का इलेक्ट्रिशियन है, तो एक अभी नौवीं कक्षा में पढ़ रहा है.
यात्रा में दिखाई दिया 'ऑफर'
पिछले साल अस्कोट-आराकोट यात्रा के अनुभव को और समृद्ध करने के लिए चंदन डांगी इस साल अपने कुछ साथियों के साथ 'स्त्रोत से संगम और संगम से स्त्रोत तक नदी अध्ययन यात्रा' पर निकले. इस यात्रा के दौरान उन्होंने चनौला गांव में लोहारों के कार्यस्थल को देखा, जिसे स्थानीय भाषा में 'ऑफर' कहा जाता है.
गांव के एक कोने में, एक बड़े पत्थर की ओट में स्थित यह पारंपरिक ऑफर (लोहार खाना) अपनी छत जैसी आकृति के बड़े पत्थर के कारण 'पाखा खरक' के नाम से भी जाना जाता है.
मैदान से अलग नहीं लोहारों के हालात
चंदन बताते हैं कि इसे देखकर उन्हें अपने गांव 'डांगीखोला मल्ला' के मोहन दा का ऑफर याद आ गया, जहां वे दरांती, हल के फाल, कुदाल, और बसूले पर धार लगवाने जाया करते थे. वहां उन्होंने चीड़ की छाल जलाने के लिए साइकिल के पहिए से हवा भी फेंकी थी.
चनौला के ऑफर के बारे में बात करते हुए स्थानीय व्यक्ति शंकर बिष्ट ने बताया कि आजकल गंगा राम गांव के एकमात्र शिल्पकार हैं, जो इस कला को जीवित रखे हुए हैं. यह शिल्प चनौला गांव के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने का अभिन्न अंग रहा है.
कोयले की दहकती भट्टी, उसे हवा देने वाली धौंकनी और पास में रखी भारी निहाई (फोर्ज), जिस पर गर्म लोहा आकार लेता है, इस ऑफर के आवश्यक उपकरण हैं.
कुछ साल पहले तक गांव के किसान अपने खेती के औजार, घर के दरवाजों के कब्जे, कुंडी, खूंटी, और रसोई के सामान तक सब कुछ इन्हीं कारीगरों से बनवाते थे. गांव के अन्य कारीगर, जैसे बढ़ई, कुम्हार, और राजमिस्त्री भी अपने औजारों के लिए लोहारों पर निर्भर थे.
चंदन कहते हैं कि उन्हें गंगा राम से मुलाकात तो नहीं हो सकी, लेकिन गांव के बुजुर्ग जीत सिंह ने बताया कि गंगा राम केवल कारीगर ही नहीं, बल्कि एक समाधानकर्ता हैं, जो अपनी कुशलता से ग्रामीण जीवन की हर जरूरत पूरा करता है.
लोहार का यह शिल्प अक्सर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है. पिता अपने पुत्रों को धातु के स्वभाव, सही तापमान और हथौड़े की सटीक चोट से आकार देने की कला सिखाते हैं.
गंगा राम के भाई और बच्चे पढ़-लिखकर पलायन कर चुके हैं. मशीनों के कारण अब औजारों की मांग न्यूनतम स्तर पर आ गई है.
इस परिश्रम के बदले सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार धन के बजाय अनाज, वस्त्र, और खेतों से प्राप्त फसल का एक हिस्सा भेंट करने का प्रचलन अभी भी है. जातिवाद के कारण शिल्पकारों को अपेक्षित मान-सम्मान भी नहीं मिलता.
(हिमांशु जोशी, साथ में चंदन डांगी)