पापा से अंतिम बातचीत और अबतक के जीवन की सबसे कठिन यात्रा

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अरुण कुमार गोंड

घर से दूर रहने वाले व्यक्ति का सबसे बड़ा डर यही होता है कि किसी विपत्ति में वह अपने परिवार के पास कैसे पहुंचेगा. कल्पना करिए कि अचानक कोई दुखद खबर मिले, जिसे सुनकर आप कांप उठें, आखें डबडबा जाएं, मन अशांत हो जाए और दूरी और समय दोनों दुश्मन लगने लगें. इस स्थिति में की जाने वाली यात्रा के हर कदम पर इंसान की परीक्षा होती है. यह आपके जीवन की सबसे कठिन यात्रा हो सकती है. एक ऐसी ही यात्रा से गुजरने का अनुभव मुझे बीते महीने हुआ. 

बड़े भाई साहब की कॉल

दरअसल दो अगस्त की शाम मैंने अपने पिता से फोन पर लंबी बातचीत की थी. उस दिन उनसे बात करके बड़ा सुकून मिला. लेकिन इस बात का मुझे जरा भी एहसास नहीं था कि यह पिता से मेरी अंतिम बातचीत है. मुझे यह नहीं पता था कि अब मैं कभी भी उनसे बात नहीं कर पाऊंगा. रात को खाना खाने के बाद मैं सोने चला गया. लेकिन नींद जैसे आंखों से कोसों दूर थी. शरीर भारी लग रहा था. किसी अनहोनी की आशंका बार-बार दिल में उठ रही थी. अभी आँख लगी ही थी कि अचानक फोन की घंटी बजी. यह मेरे बड़े भाई की कॉल थी. नींद के कारण मैंने फोन नहीं उठाया. रात करीब साढ़े 12 बजे मेरी आंख खुली तो घबराहट में मैंने उन्हें कई बार कॉल किया.आखिरकार भाई ने फोन उठाया. उनकी आवाज गहरे दर्द में डूबी हुई लग रही थी. उन्होंने बहुत धीमे से कहा, ''बाबू… पापा बहुत सीरियस हैं. कोई ट्रेन या बस पकड़कर आ जाओ...'' यह सुनते ही मेरा शरीर कांप उठा. हाथ और दिल दोनों अस्थिर हो गए. किसी तरह बस स्टेशन पहुंचा. 

मेरा गांव मऊ जिले में है, जो प्रयागराज से करीब 250 किमी दूर है. बनारस जाने वाली बस मिली. उसका टिकट लेकर बस में बैठ गया. भाई ने बातचीत में केवल 'सीरियस' कहा था, पर भीतर ही भीतर कुछ टूटता महसूस हो रहा था. बस चली, तभी बाहर तेज बारिश होने लगी. खिड़की से पानी की बूंदें टकराती रहीं. रास्ते में कई जगह जाम मिला. इस बीच मेरी चिंता बढ़ती ही जा रही थी. बाहर का अंधेरा और मेरे भीतर का दर्द एक हो रहा था. दिल बैठा जा रहा था. आखें नम थीं. मन बस यही चाह रहा था कि जल्द से जल्द घर पहुंच जाऊं.

काम नहीं आई कोई सांत्वना

सुबह करीब सात बजे मैं बनारस पहुंचा. उस समय तक मेरी बेचैनी काफी बढ़ चुकी थी. वहां से मैं मऊ जाने वाली ट्रेन पर सवार हुआ. ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ी, लेकिन मेरी धड़कनें तेज होती जा रही थीं. बगल में बैठे मुसाफिर मेरी उदासी को भांप गए थे. कोई मुझे चुपचाप देखता रहा तो किसी ने मुझे समझाने की कोशिश की. लेकिन इन सब के बाद भी मेरी आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. वो लगातार बहे जा रहे थे.

ट्रेन से उतरकर मैं अपने गांव जाने वाली सड़क पर गया. दूर-दूर तक लोग मुझे देख रहे थे. उनकी नजरें जैसे बहुत कुछ कह रही थीं. सड़क से आगे घर जाने के लिए एक संकरी पगडंडी है. दोनों ओर धान के खेत फैले हैं. जिनमें बरसात का पानी भरा था. धीरे-धीरे जब मैं पगडंडी पर पहुंचा, तो दूर से ही अपने घर की झलक दिखी. घर गांव से थोड़ी दूर बागीचे के बीच में है, पेड़-पौधों से घिरा हुआ. यह दृश्य हमेशा मुझे सुकून देता था, पर उस दिन भारी दिल  से जैसे ही मैं आगे बढ़ा, अचानक भीड़ दिखाई दी. थोड़ी दूरी पर मेरे बड़े भैया खड़े थे. उनकी नजरें मुझ पर टिक गईं. उसी क्षण मुझे इस बात का आभास हो गया कि पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं.

पिता की शव यात्रा

यह सोचते ही मेरे पांव लड़खड़ा गए. मैं जोर से चिल्लाते हुए धान के खेत में गिर पड़ा. मुझे अपने सामान की फिक्र नहीं थी, जो मेरे ही साथ पानी में गिर गया था. मेरा पूरा शरीर कांप रहा था, होश उड़ गया था. मैं...पापा…पापा… पुकारे जा रहा था. मेरी हालत देखकर लोग दौड़कर मेरी तरफ आए. किसी ने मुझे उठाया, किसी ने सहारा दिया. मैं पूरी तरह टूट चुका था. मैं बिखर चुका था. होश में नहीं था. आज जब मैं अपना यह निजी अनुभव लिख रहा हूं, तो मेरी आंखें अब डबडबाई हुई हैं. हाथ कांप रहे हैं. हर वाक्य के साथ उस दिन की पीड़ा और संवेदनाएं एक बार फिर जिंदा हो उठी हैं.

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कुछ देर में मुझे पापा के पार्थिव शरीर के पास ले जाया गया. वहां चारों ओर लोग ही लोग थे, रिश्तेदार, पड़ोसी और गांव के बुजुर्ग और महिलाएं. मेरी बहनें और मां जोर-जोर से विलाप कर रही थीं. उनके चीखने और रोने की आवाजें से मन और भारी हो रहा था. बड़े भैया ने मुझे संभालने की कोशिश करते हुए कहा, ''बाबू, हम हैं… हिम्मत रखो.'' लेकिन मैं टूट चुका था. मैं पापा के पार्थिव शरीर के पास बैठ गया. उनके चेहरे को पकड़कर रोता रहा. आंसू रुक ही नहीं रहे थे. जब पापा के पार्थीव शरीर को अंतिम स्नान के लिए ले जाया जा रहा था, तब मैं मां का आंचल पकड़ कर बहुत रोया. जिनके लिए मैं पढ़ रहा था. जिनके सपने पूरा करना ही मेरा लक्ष्य था. वे एक पल में ही नहीं रहे.

पापा की शव यात्रा श्मशान के लिए शुरू हुई. रास्ते भर लोग 'राम नाम सत्य है' का उच्चारण करते रहे. लेकिन मेरे पांव तो उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे. मेरे पांव कांप रहे थे. श्मशान घाट तक की यात्रा बहुत दर्द भरी थी. वहां शव को उतारकर अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियां सजाई गईं. छोटे भाई ने मुखाग्नि दी. आग में पापा राख बन गए. अंतिम संस्कार के बाद घर लौटा. रात को नींद नहीं आई, बार-बार पापा का चेहरा आंखों के सामने आता रहा.  इस अनुभव ने मुझे अंदर से तोड़ दिया. पिता की कमी तो आजन्म बनी रहेगी. लेकिन उम्मीद है कि उनकी सीख, आशीर्वाद और सपने मेरी आगे की राह बनाते रहेंगे. जब भी मैं किताब या लैपटॉप देखता हूँ तो लगता है पापा कह रहे हैं, ''बेटा, गिरोगे तो संभलना, जिंदगी चलती रहती है.'' 

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डिस्क्लेमर: अरुण कुमार गोंड इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखकों के निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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