घनघोर कुहासों से दिन और रात का परिवर्तन नहीं रुकता. जीवन में ठहरा हुआ कुछ नहीं होता. चीजें लगातार बदल रही होती हैं. ये बदलाव जरुरी नहीं कि अपेक्षित हों. इसलिए जितनी बार भी आप कहीं जायेंगे हर बार कुछ नया मिलेगा. अपने घर में भी अगर बार-बार टहलिए तो हर टहलन में कुछ नया महसूस होगा- कुछ नयी अनुभूति होगी. इस बार गया अपने एक तामिल मित्र के साथ अपने राज्य बिहार. जाने से पहले उन्होंने जब अपने दक्षिण भारतीय मित्रों को बिहार जाने की बात बताई तो सबने उन्हें सकुशल लौट आने की शुभकामनाएं दी. शुभकामनाओं में चिंता के भाव अधिक थे. उनकी शुभकामनाएं सार्थक सिद्ध हुई. वे अपने साथ शायद अच्छे अनुभव लेकर आये.वे सकुशल आये.
(लौरिया नंदनगढ़ के अवशेष)
हमने पहले वहां जाना तय किया जहां से गांधी ने अपनी राजनीतिक यात्रा प्रारंभ की थी. हम चंपारण की तरफ गए. मोतिहारी, बेतिया, बगहा आदि स्थानों पर. मेरे मित्र ने हमसे विचारा कि आखिर गांधी ने अपने आन्दोलन की शुरुआत चंपारण से ही क्यों प्रारंभ की! क्षेत्र से गुजड़ते हुए हमने देखा कि यह क्षेत्र शुरू से ही कृषि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा केंद्र रहा है. यहां की उपजाऊ भूमि ने ब्रिटिश सत्ता को भी आकर्षित किया कि वे इस उपजाऊ भूमि में खाद्यान के बदले नील की पैदावार करवाए. नील की खेती ने वहां के कृषकों को तबाह कर दिया. और यह सब खेती तीनकठिया जैसे क्रूर प्रावधानों के द्वारा करवाई जा रही थी.
इसपर ऑक्सफ़ोर्ड इतिहासकार शाहिद अमीन की ‘थंब-प्रिंटेड' नामक एक किताब कुछ ही समय पहले आई है. जिसमें इसका अच्छा चित्रण किया गया है. खैर! हमने वहां के खेतों में फसलों को देखा- पर्याप्त दिखे. लगा अकेले यह क्षेत्र ही बिहार को खिलाने के लिए पर्याप्त है. लेकिन, फिर भी भूख से बदहाल लोग लाखों में- निश्चय ही उत्पादन से अधिक वितरण की समस्या अधिक है. सैकड़ों ट्रकों पर गन्ने की लदाई की जा रही थी. चीनी उद्योग को फलते-फूलते देखा. लौरिया का चीनी मिल जो दशकों से बंद पड़ा था, वह भी पिछले कुछ सालों से चल रहा है. सोचने लगा मिठास उत्पादन करने वाले राज्य के लोगों के जीवन में इतना कड़वापन क्यों और कैसे आया!
ऐतिहासिक अवशेष महज खण्डहर नहीं होते. ये हमारे वर्तमान की बुनियाद हैं. हमने इसी क्षेत्र में लौरिया नंदनगढ़ के सैकड़ों साल पुराने टीलेनुमा अवशेष को देखा. यह मौर्य कालीन है. दुर्भाग्य से इतिहास के इस शेष बचे अवशेष को हमने इतिहास में ही धंसते हुए देखा. पुरातत्व विभाग के रखरखाव के बावजूद इसकी स्थिति दयनीय थी. इसके भीतर अनगिनत लोग बकरियां चरा रहें थे. बहुत सारे मवेशी घास चर रहे थे. कुछ लोग अपने पशुओं के लिए घास काट रहे थे. ऐसा लगा हम किसी चरागाह में हैं, न कि किसी भव्य इतिहास के अवशेष के ऊपर. इस अनमोल धरोहर की दीवारें ध्वस्त की जा रही थी. जिन दीवारों की एक-एक ईंट अनमोल हो उन ईंटों को टूटते और बिखड़ते देखा. स्थानीय लोग इसके लिए जिम्मेवार हैं, या फिर इसके प्रबंधन से जुड़े लोग, हमें नहीं मालूम.
इस मिटती हुई खूबसूरती के बीच हमने पनपता हुआ सौन्दर्य भी देखा. भाग्नावेशों के पीछे कुछ प्रेमी जोड़े प्रेम में मगन थे. उनके छुप-छुप कर मिलने के लिए ये जगह सही थी. प्रतिबंधों के बाद भी प्यार किया जा रहा था. जिसे वर्तमान नहीं स्वीकार सकता, उसे इतिहास के अवशेषों ने सहारा दे रखा था. निश्चय ही समाज और राजसत्ता के लिए हो या न हों, लेकिन इन जोड़ों के लिए ये अवशेष उनकी स्मृतियों की सुन्दर ईमारत हैं. वे अपने यौवन के बीत जाने पर यहां प्रणय के पलों को हमेशा याद रखेंगे. प्रेमियों को ‘प्राइवेसी' देते हुए हम थोड़े आगे बढ़ गए- निकट के अशोक स्तम्भ के पास. यह आज भी ऐसे ही खड़ा है जैसा इसे मैंने कुछ वर्ष
पहले देखा था- नितांत अकेला, सदियों पुरानी चुप्पी ओढ़े! बस ख़ामोशी से भरभराते और ढहते-भहते दुनिया को देख रहा है.
दो दिन बाद हम मिथिलांचल की तरफ गए. चंपारण की भोजपुरी संस्कृति से अलग यहां की मैथिलि संस्कृति इसे कई अर्थों में बिहार के एक बड़े हिस्से से अलग करती है- ‘पान-मखान अ मछली भात'. संयोग से मिथिला विश्विद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर बी. एन. मिश्र ने हम दोनों को एक ऐसे विवाह कार्यक्रम में साथ चलने को कहा जिसमें वे आमंत्रित थे, न कि हम दोनों. फिर भी हम दोनों वहां गए. हास्य, वाक्पटुता, ज्ञान, गाम्भीर्य यह सब एक साथ उनमे है- और यही मिथिला का भी चरित्र रहा है. वे मिथिला के श्रोत्रिक ब्राह्मण समुदाय से आते हैं. मिथिला में ही ब्राह्मणों की कई श्रेणियां हैं- पंजीकार, श्रोत्रिक, मैथिल और कुछ अन्य. पंजीकार मुख्यतः परिवार की वंशावली को संरक्षित रखने वाला समुदाय है.
इसी तरह श्रोत्रिक मन्त्रों और अन्य आनुष्ठानिक श्लोकों को संरक्षित रखने वाला. श्रोत्रिक अपनी पारम्परिकता से गहरे जुड़े समुदाय हैं. आधुनिक शिक्षा के सन्दर्भ में भी देखें तो यह बिहार के सबसे अधिक शिक्षित समुदायों में से एक है. इनकी संस्कृति में सामान्यतया हिंसक चरित्र का भी अभाव दिखता है. बिहार में जिस दौर में जातीय हिंसा में ‘सेनारी' और ‘बाथें' जैसे जातीय नरसंहार हो रहे थे उस समय भी कोई बड़ा संगठित संघर्ष वहां नहीं देखा गया. हमने इनके विवाह में वैसे तो कई अनूठी बातों को देखा, लेकिन उनमें से जो अहम् था, वह था इनके बीच दहेज़ व्यवस्था का नहीं होना. इस समुदाय में आज भी अगर कोई दहेज़ लेता है तो यह बात उसे छुपानी पड़ती है, अन्यथा सामाजिक प्रतिष्ठा का बड़ा नुकसान होता है. बारात में हमने किसी भी बाराती को किसी आधुनिक पहनावे में नहीं देखा. सबके सब धोती-कुर्ता पहने थे, और माथे पर ‘पाग' था. बस वहां मैं और मेरे तामिल मित्र उनसे भिन्न दिख रहे थे.
आधुनिक ‘डीजे' के बदले बिस्मिल्लाह खान की शहनाई धीमी धीमी बज रही थी. और पारंपरिक ढोलक जिसे यहां आमतौर पर एक जाति विशेष के द्वारा बजाया जाता है, बजाये जा रहे थे. इन वाद्य यंत्रों की थपक मुहूर्त के शुभ होने को और अधिक शुभ बना रही थी.
सबकुछ सुन्दर था- कोई अधिक दिखावा नहीं. अतिथियों का स्वागत इतना कि सारे बारातियों को भोजन से पूर्व पीतल के बर्तन से पैर धोने की सदियों पुरानी परंपरा आज भी जारी. लोगों ने हमारे पांव धोने का भी आग्रह किया, लेकिन हम इसमें सहज नहीं थे, तो हमने मना कर दिया. फिर भी उनकी पंगत में बैठकर उनके द्वारा दी गई मिठाइयाँ और पान लिया.
दुर्भाग्य से सांस्कृतिक और शैक्षिक रूप से मजबूत होने के बाद भी इस जाति को वहां की प्रत्यक्ष राजनीति में हमने निष्क्रिय पाया. कई कारण हो सकते हैं, उनमे से एक तो पलायन भी है. अधिकांश श्रोत्रिक या तो देश के अलग-अलग हिस्से में बसते जा रहें हैं, या फिर विदेशों में दशकों से रह रहें हैं. राज्य की राजनीति में हमें इस समुदाय से कोई बड़ा सामाजिक-राजनीतिक चेहरा नहीं दिखा. प्रोफ़ेसर मिश्र ने तो यहां तक कहा कि उनके समाज के अंतिम प्रतिनिधि के रूप में दरभंगा महाराजा कामेश्वर सिंह को ही देखा जाना चाहिए, जो एक शासक के साथ-साथ शिक्षा प्रेमी भी थे. मिथिला समेत भारत के कई शिक्षण संस्थानों में उनका योगदान जगजाहिर है.
भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर बिहार को कम से कम पांच भागों में बांटा जा सकता है- मिथिला, भोजपुर, वज्जिका, अंगिका, और मगही. हमने दो क्षेत्रों का भ्रमण किया- मिथिला और चंपारण, जो भोजपुरी क्षेत्र है. लौटने की बारी थी. इसी बीच प्रयागराज की महाकुम्भ त्रासदी का पता चला. मन विचलित हो गया. आते ही संगम की तरफ प्रस्थान किया. बिहार की यात्रा का सुख प्रयागराज आते ही संगम में डूब गया.
केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं... अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं... इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है...
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