आजादी के 78 साल बाद किस हाल में है आम आदमी

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रमाशंकर सिंह

एक सभ्यता के रूप में भारत की प्राचीनता सहस्राब्दियों पुरानी है. एक आजाद देश के रूप में इसने अभी एक शताब्दी भी नहीं गुजारी है, इसलिए अभी भी इस देश के बारे में कोई अंतिम राय नहीं बनाई जा सकती है. 1947 में जब देश आजाद हुआ था तो देशवासियों में एक ही साथ संभावनाशील और समतावादी समाज के बड़े सपने थे तो मोहभंग की भी दशा उपज रही थी. यह मोहभंग कभी इतना ज्यादा नहीं रहा कि लोगों का उस लोकतंत्र से विश्वास उठ जाए जिसे दो शताब्दियों बाद भारतवासियों ने अर्जित किया था. आपातकाल के संक्षिप्त 'बाइपास' के बाद भारत एक लोकतांत्रिक समाज के रूप में कायम रहा है,यह एक बड़ी सफलता है.

गांधी, नेहरू और आंबेडकर का सपना

आमतौर पर 15 अगस्त के दिन थोड़ी सी आदर्शवादी बातें कहने का चलन रहा है, इसलिए मैं भी ऐसा कुछ कहना चाहूंगा. यह देश की आजादी की उपलब्धि है कि भारत की राष्ट्रपति महोदया आदिवासी समुदाय से आती हैं. लेकिन यह भी कहना आवश्यक है कि देश के आदिवासी अभी भी मुख्यधारा से बहुत दूर खड़े हैं. यही बात दलित समुदायों के साथ कही जा सकती है. उत्तर प्रदेश में मायावती चार-चार बार मुख्यमंत्री हुई हैं, लेकिन अभी भी दलित स्त्री-पुरुषों पर जब-तब अत्याचार की कहानियां सामने आती हैं.देश की आबादी की एक बड़ी संख्या घुमंतू एवं विमुक्त समुदायों की हैं. वे ओवरब्रिजों के नीचे या शहर की सबसे कम सुविधाविहीन जगहों पर रहने को अभिशप्त हैं. अल्पसंख्यक समुदायों के एक बड़े हिस्से को प्राय: 'देशभक्ति' सिद्ध करने को कहा जाता है. लेकिन कहानी यही भर नहीं है. इसी देश में तरक्की पसंद और समता की चाह रखने वाले नागरिक भी हैं, जो समय-समय पर सरकारों को रास्ते पर लाते रहते हैं. आप उनकी बातों को ध्यान से सुनें तो पाएंगे कि उनके तर्कों और आदर्शों का एक बड़ा हिस्सा वहां से आता है, जिसे हम भारत की आजादी की लड़ाई कहते हैं. 
प्राय: बहुत ही जल्दबाजी में यह कह दिया जाता है कि भारत के नागरिकों ने आजादी की लड़ाई के दौरान पैदा हुई देशप्रेम की भावना को खो जाने दिया है, उस संविधान के आदर्श को धूसरित कर दिया है,जिसे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और डॉक्टर बीआर आंबेडकर जैसे देशप्रेमियों ने धीमे-धीमे पोषित किया था. लेकिन बिल्कुल इसी देश में, वर्तमान कालखंड में यह तीनों नेता बार-बार पुनर्नवा होते रहते हैं.गांधी और आंबेडकर को तो सत्ता पक्ष और विपक्ष उपेक्षित करने की हिमाकत नहीं कर सकते हैं, जबकि नेहरू को 'कांग्रेसी' मानने के बावजूद अभी भी उनका आकर्षण बचा हुआ है.इसी के साथ इतिहास में उनकी भूमिकाओं का मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन भी होता रहता है.

आज के लोगों ने गांधी, नेहरू या डॉ. आंबेडकर की तरह पूरे देश की यात्रा नहीं की है. मैं भी उन्हीं लोगों में हूं लेकिन उत्तर प्रदेश के शहरों और सुदूर गांवों में जाकर मैंने उन लोगों से बात की है, जिनके बारे में नेहरू कहते थे कि वे चाहते हैं कि यह लोग खुदमुख्तार हो सकें, जिनके बारे में डॉक्टर आंबेडकर चाहते थे कि वे शिक्षित बनें, संगठित हों और संघर्ष करें. जिनके बारे में गांधी चाहते थे कि देश में जो कुछ भी हो, वह पंक्ति में खड़े सबसे अंतिम जन तक पहुंचे. यह पिछले 70-75 सालों में हुआ है कि लोगों तक यह सपना पहुंचा है. अत्याचार के खिलाफ दलित लामबंद हुए हैं, उनमें आत्मसम्मान और गरिमा की हसरत जगी है. यह आजादी का एक हासिल है. एक जमाने में डॉ. आंबेडकर ने भारत की संविधान सभा में कहा था कि भारत में लोकतंत्र जैसे ऊपर से गुजर गया है, लेकिन आज उन्हीं दायरों में उन लोगों के द्वारा संविधान की सबसे ज्यादा बात हो रही है जो कमजोर जगहों से ताल्लुक रखते हैं. महिलाएं- वह भी दलित आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों से आने वाली- लोकतंत्र को नए तरीके से संवार रही हैं. जब मैं यह लेख लिख रहा हूं तो भारत के चुनाव आयोग की सुप्रीम कोर्ट में एसआईआर को लेकर काफी खिंचाई हुई है. इन घटनाओं से पता चलता है लोग धीरे-धीरे ही सही लोकतंत्र के द्वारा सृजित 'पॉवर कॉरिडोर'में अपनी आवाज तलाश रहे हैं. कभी-कभी उन्हें अपनी आवाज को दूसरों तक पहुंचाने में सफलता मिल जाती है तो कभी-कभी वह किसी गहरे कुंए से जैसे वापस लौट आती है. इन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि गांधी नेहरू आंबेडकर के सपनों का भारत बन रहा है, पूरी तरह से न सही, आंशिक तौर पर ही भारतीय लोकतंत्र ने अपनी चमक और वादा बरकरार रखा है. 

असमानता की खाई

इसके साथ यह भी सच है कि असमानता भी बढ़ी है. किसी के पास बहुत ज्यादा है तो किसी के पास मुश्किल से पेट भरने का जुगाड़ हो पा रहा है. भारत की एक बड़ी जनसंख्या है, जिसमें अल्पसंख्यक, दलित, घुमंतू, अति पिछड़ी और दश्तकार समुदाय हैं, उनके पास पैर रखने भर की कृषि योग्य जमीन नहीं है. ऐसे में उनकी सरकारी निर्भरता अत्यधिक है. सरकारें उन्हें 'कुछ लाभ' देती हैं. उनसे वोट मांगती रहती हैं. आजाद भारत में इसे हम बहुत ज्यादा बदल नहीं पाए. इसे राष्ट्रीय कार्ययोजना में सबसे ऊपर होना चाहिए था. इसी प्रकार वेतन से जुड़ी असमानता है. चाहे कॉर्पोरेट हाउस हों, जिला कलेक्टर के कार्यालय हों अथवा कोई विश्वविद्यालय- वहां के सबसे नीचे वाले कर्मचारी, गार्ड, माली या सफाईकर्मी के वेतन और वहां के ऊपरी पदों पर काम करने वाले लोगों के वेतन में 100 गुना तक अंतर पाया जा रहा है. आप आज से करीब 95 साल पहले गांधी की एक बात को याद करें. दो मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से भारत के वायसराय लार्ड इरविन को उन्होंने एक खत लिखा और कहा ,''आपकी तनख्वाह 21,000 रुपये प्रति माह से अधिक है, इसके अलावा कई अन्य अप्रत्यक्ष लाभ भी आपको मिलते हैं. ब्रिटिश प्रधानमंत्री को प्रति वर्ष 5,000 पाउंड मिलते हैं, यानी वर्तमान विनिमय दर पर 5,400 रुपये प्रति माह. आप प्रतिदिन 700 रुपये से अधिक प्राप्त कर रहे हैं, जबकि भारत की औसत आय प्रतिदिन दो आने से भी कम है. प्रधानमंत्री को प्रतिदिन 180 रुपये मिलते हैं, जबकि ग्रेट ब्रिटेन की औसत आय प्रतिदिन लगभग 2 रुपये है. इस प्रकार, आप भारत की औसत आय से पांच हजार गुना अधिक प्राप्त कर रहे हैं. मुझे पता है कि आपको उस तनख्वाह की आवश्यकता नहीं है जो आपको मिलती है. लेकिन एक ऐसी व्यवस्था जो इस तरह के प्रावधान को बनाए रखती है, उसे तुरंत समाप्त कर देना चाहिए. वायसराय की तनख्वाह के बारे में जो बात सत्य है, वह सामान्य रूप से पूरे प्रशासन के लिए भी सत्य है.'' गांधी के देश में यह कहने का साहस भी अब लुप्त होता गया है.

पिछले सात-आठ दशकों में आम भारतीयों के बीच पहले से मौजूद जटिलताएं जैसे जाति, धर्म और क्षेत्र आधारित पहचान गहरी होती गई हैं. इसी के साथ साथी नागरिकों को उनके काम करने के तरीके और धन इकट्ठा करने के कौशल से नापा जाने लगा है. धन कमाना गुण है. इसकी प्रशंसा होनी चाहिए. लेकिन बिना पसीना बहाए और कोई पूंजी लगाए बिना लोग ज्यादा से ज्यादा धन कमाना चाह रहे हैं. इससे प्रति व्यक्ति जीडीपी तो बढ़ जाती है, लेकिन रोजगार और सबके हाथ में सम्मान से जीने लायक पैसा नहीं आ पाता है. आर्थिक मोर्चे पर कुछ किया जाना बाकी है, कम से कम उस स्तर पर जब लोग खुदमुख्तार हो सकें और अपने बच्चे को उसकी पसंद का गुब्बारा दिला सकें न कि सरकार सभी माता-पिताओं से इस आधार पर वोट मांगे कि हमें वोट दो क्योंकि हमने तुम्हारी संतान को गुब्बारा दिलाया है.

प्रकृति के प्रति कितने सचेत हैं हम

एक बात कहकर मैं इस लेख को खत्म करुंगा. 15 अगस्त को खासतौर पर और प्राय: प्रतिदिन हम रबींद्रनाथ ठाकुर की कविता 'जन गण मन अधिनायक' की बात करते हैं. यह कविता दुनिया के खूबसूरत राष्ट्रगानों में से एक है. जैसे पूरे देश की प्राकृतिक सुषमा को इसमें कवि ने पिरो दिया हो. इसके अतिरिक्त यह हमारा देश प्रेम है, देश के प्रति एक भावना है जिसके चलते हम राष्ट्रगान को बहुत ही सम्मान देते हैं. लेकिन एक क्षण के लिए रुककर सोचने की आवश्यकता है कि इसमें भारत की नदियों और पर्वतों की वंदना भी की गई है. आज उन पर संकट है. भारत की अधिकांश नदियां प्रदूषण और अतिक्रमण की शिकार हैं. पर्वत दरक रहे हैं. इससे आपदाओं की बारंबारता बढ़ गई है. एक प्राचीन सभ्यता का वारिस होने के नाते हमें अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करना होगा. नदियों और पर्वतों को लेकर हमें नवीन और संवेदनशील नीतियों की आवश्यकता है, क्योंकि यह देश के ह़र आम और खास नागरिक के जीवन को प्रभावित करती हैं, लेकिन जब प्राकृतिक आपदा आती है तो पंक्ति में खड़ा अंतिम जन सबसे भीषण तरीके से प्रभावित होता है. उस समय एक देश के रूप में हमारी परीक्षा होती है.यह भारत का सौभाग्य है कि लोग आगे बढ़कर अपने साथी नागरिकों की मदद करते हैं लेकिन उससे आगे बढ़कर देश को अपनी विकास की भूख के बारे में सोचना होगा. 

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अस्वीकरण: लेखक कानपुर के क्राइस्ट चर्च कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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