This Article is From Jan 31, 2024

जीने की कला सिखाती 'यादगार-ए-ग़ालिब'

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Himanshu Joshi

मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) पर अल्ताफ हुसैन हाली की लिखी उर्दू किताब 'यादगार-ए-ग़ालिब' का अनुवाद दीपक रूहानी द्वारा किया गया है और यह किताब रेख्ता पब्लिकेशन से प्रकाशित होकर आई है. हिन्दी पाठक मिर्जा गालिब की पूरी जीवन यात्रा से इस किताब के जरिए वाकिफ हो सकेंगे. शानदार अनुवाद की वजह से किताब के पाठक मिर्जा द्वारा रचनाओं को रचने के तरीकों को समझने में कामयाब रहे हैं और इस वजह से उनकी नजरों में मिर्जा के प्रति सम्मान बढ़ता ही जाएगा. पाठकों को किताब पढ़ने के बाद यह सीख भी मिलेगी कि मुश्किल परिस्थितियों के बीच कोई शख्स, साधारण से कैसे महान बनता जाता है.

आवरण चित्र से ही गालिब को जानने की जिज्ञासा बढ़ जाती है

यादगार-ए गालिब किताब अल्ताफ हुसैन हाली की लिखी है, जिसका अनुवाद दीपक रूहानी ने किया है. यह खजाना रेख्ता पब्लिकेशंस की तरफ से आया है. किताब का आवरण चित्र सुंदर है, जहां हम गालिब की छवि देखते हैं और पिछले आवरण में 'मिर्ज़ा गालिब की पहली जीवनी' शीर्षक लिखा है, इसके अंदर लिखी जानकारी किताब पढ़ने से पहले जाननी बहुत जरूरी है. ये अनुवाद और हाली एक परिचय, इनके साथ है किताब बनने की कहानी.

'ये अनुवाद' में अनुवादक ने किताब में किए गए अनुवाद के सफर को पूरी तरह से पाठकों के सामने रख दिया है, जिससे यह विश्वास हो उठता है कि हिन्दी पाठकों को इस किताब को समझने में कोई बड़ी मुश्किल पेश नहीं आएगी. इसके बाद 'हाली एक परिचय' को किताब के अनुवादक दीपक रूहानी ने बड़े खूबसूरती के साथ लिखा है, जैसे वह हाली के बारे में लिखते हैं कि हाली न तो अतीत के प्रशंसक हैं और न ही आधुनिकता के विरोधी.

भूमिका में छिपी किताब की गहराई

भूमिका में ग़ालिब के मान सम्मान के बारे में लिखी पंक्ति 'जमाने के ये तमाम मान सम्मान जियादा से जियादा उस बुढ़िया के जैसी कोशिश थी, जो एक सूत लच्छी लेकर यूसुफ को खरीदने मिस्र के बाजार में आई थी.' यह साबित कर देती है कि ग़ालिब को वह मान सम्मान कभी नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे और इस पंक्ति को पढ़कर यह भी महसूस हो जाता है की किताब में ग़ालिब के बारे में लगभग हर जानकारी पढ़ने को मिल जाएगी.

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शुरुआत से ही दमदार किताब

यादगार-ए-गालिब की शुरुआत गालिब की पैदाइश से होती है. लेखक ने मिर्जा से जुड़ी जानकारी जुटाने के लिए कई पुस्तकों की मदद ली है, जैसे पृष्ठ संख्या 24 में 'दुरूफश ए कावियानी' किताब का हवाला दिया गया है. किताब पढ़ते हिंदी पाठक भी ग़ालिब के शेर अनुवाद के जरिए समझ जाते हैं, इससे ग़ालिब को शायद अब ज्यादा लोग समझने लगें. जैसे पृष्ठ 28 में मिर्जा के फ़ारसी शेर का भावानुवाद कुछ इस तरह लिखा है ' जो कुछ कुदरत के खजाने में मौजूद है. ये सब मेरा है. फूल यद्यपि अभी शाखा से जुदा नहीं हुआ है, लेकिन मैं उसे भी अपने दामन में आया हुआ समझता हूं.'

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जीवन में उस्ताद का होना जरूरी है, दाम्पत्य जीवन पर भटकी किताब

लेखक ने गालिब के जीवन के लगभग हर पहलू को छुआ है और उसमें एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्होंने किसी के जीवन में उस्ताद की भूमिका का महत्व बताया है. मुल्ला अब्दुस्समद और ग़ालिब के रिश्ते पर किताब में लगभग तीन पन्ने लिखे गए हैं, जो एक शिष्य के जीवन में उस्ताद का महत्व समझाने के लिए काफी हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब का दांपत्य जीवन वह हिस्सा है, जिस पर किताब में विस्तार से लिखे जाने की आवश्यकता महसूस होती है और दांपत्य जीवन पर लिखा हुआ किताब में बिखरा सा महसूस होता है,लेकिन इससे जुड़ा हर लतीफा कमाल है.

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किताब वाली सीख और मिर्जा की यात्रा से उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश

किताब में मिर्जा के बारे में रोचक तथ्य बताया गया है कि वह किराए पर किताब मंगवाते थे. आज के दौर में जब किताब पढ़ना बहुत कम हो गया है, तब मिर्जा का किराए में लेकर भी किताब पढ़ना एक बहुत बड़ी सीख दे जाता है.
लेखक ने 'कलकत्ता वालों से वाद विवाद और लखनऊ का प्रवास' से मिर्जा के व्यक्तित्व पर भी रोशनी डाली है. जैसे पृष्ठ 36 में लिखा है 'यद्यपि मिर्जा के तरफदार भी कलकत्ता में बहुत थे, मगर चूंकि मिर्जा ऐतराज़ और मुखालिफत से बहुत विचलित हो जाते थे.' इसी तरह 'सरकारी नौकरी से इंकार' जैसा किस्सा भी मिर्जा का व्यक्तित्व हमारे सामने लेकर आ जाता है.

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वाह मिर्जा के साथ मिर्जा का दर्द भरा जीवन

पृष्ठ 42 में मुस्तफा खां के बारे में मिर्जा के लिखे का फारसी से भावानुवाद किताब में चार चांद लगा देता है. 'इस वाकिए में मुस्तफा खां ने जिस तरह मेरा साथ दिया, उसे देख कर मुझे मौत का डर नहीं रहा. मैं मर जाऊं तो क्या परवाह? रोने वालों में मुस्तफा खां मौजूद है. किताब में मिर्जा के परिवार के बारे में लिखा है कि कैसे वह बच्चों को लेकर हमेशा ही दुखी रहे. पृष्ठ 49 में ग़दर के हालात और इसके आगे के पृष्ठ में भाई को लेकर लिखी दर्दभरी शेर, मिर्जा के दिल में दफन दुख को हमारे सामने ले आती है.

समीक्षकों के लिए उदाहरण और लेखक की दूरदर्शिता

मिर्जा ने 'बुरहान' किताब में जिस तरह त्रुटियां खोजी और एक नई किताब लिख डाली, वह नए लेखकों और समीक्षकों के लिए एक प्रेरणा है. पृष्ठ 55 में आज हमारे देश और समाज के हालात पर एक महत्वपूर्ण पंक्ति लिखी है. इसे पढ़कर ऐसा लगता है, मानों लेखक आज के समाज पर ही लिख रहे थे, विरोध की वजह जाहिर है. देखा-देखी कोई काम करना, न सिर्फ धार्मिक मामलों में बल्कि हर चीज, हर काम, हर इल्म और हर फन में ऐसा देखा जाता है कि खोजबीन का ख्याल न खुद किसी के दिल में आता है और न किसी दूसरे को इस काबिल समझा जाता है कि बुजुर्गों- पूर्वजों के खिलाफ कोई बात ज़ुबान पर लाए.'

पृष्ठ 68 में मिर्जा के आत्मसम्मान से जुड़ी उनकी खुद की लिखी पंक्ति 'समझ में नहीं आता के आपने किताब की कीमत क्यूं पूछी है? मैं निर्धन हूं, मगर कमीना नहीं हूं'  किताब को प्रभावी बनाती है, वहीं इसके साथ लेखक ने भी किताब में अपने कुछ ऐसे वाक्य लिखे हैं जो मिर्जा गालिब की इस जीवनी को पाठकों के जेहन में हमेशा जिंदा रखेंगे, जैसे किताब में एक जगह लेखक ने लिखा है 'स्वभाव में सरलता और तेज दिमाग होना एक साथ बहुत दुर्लभ होता है.'

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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