वामपंथी लाल आतंक के सफाए में क्यों लग गए 6 दशक

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Harish Chandra Burnwal

भारत की पौराणिक कथाओं में एक सत्य को कहानियों के माध्यम से अक्सर समझाया जाता है. वह ये है कि जनसामान्य पर आतंक और भय से प्रभाव स्थापित करने वाले असुरों का अंत तभी होता है, जब “शक्ति” के साथ साहस का समावेश होता है और वो शक्ति तेज गति से प्रहार करती है. जब तक “शक्ति” ऐसा नहीं करती है, तब तक आसुरी शक्तियों के आतंक से जनसामान्य पीड़ित रहता है. वर्तमान संदर्भ में नक्सलवाद से जुड़ी घटनाओं को लेकर ये बातें सटीक बैठती हैं. साल 2014 से पहले देश के 126 जिलों तक वामपंथी माओवादियों ने आतंक और भय से जनसामान्य पर अपना प्रभुत्व बना रखा था. देश के कई हिस्सों में इनका आतंक फैला हुआ था. लेकिन 2014 के बाद जब केन्द्र सरकार की शक्ति ने साहस और तेज गति से इन माओवादियों पर प्रहार करना शुरू किया तो ये 38 जिलों तक सिमटकर रह गए हैं. छत्तीसगढ़ में 31 नक्सलियों के सफाए के बाद अब फिर से इस मुद्दे पर चर्चा छिड़ गई है. मगर माओवादियों के खिलाफ सरकार की इसी प्रहार की रणनीति का कमाल है कि केन्द्र सरकार ने कुछ दिन पहले एलान कर दिया है कि साल 2026 तक माओवाद के लाल आतंक को पूरे देश से साफ कर दिया जाएगा. केंद्र सरकार ने 2026 तक उसी माओवाद के सफाए का संकल्प लिया है, जो साल 2014 से पहले इस देश से संविधान और सरकारों का सफाया करके अपना प्रभुत्व स्थापित करने का स्वप्न देखता था.

माओवाद का आतंक कैसे फैलता गया    

संविधान और सत्ता के खिलाफ गोली और बारूद के आतंक के बल पर सत्ता स्थापित करने की सोच चीन के नेता माओ त्से तुंग की थी, जिन्होंने अक्टूबर 1949 में चीन में क्रांति के जरिए साम्यवादी सत्ता की स्थापना की थी. माओ त्से तुंग की इस सोच का प्रयोग 57 साल पहले 1967 में पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी के नक्सलबाड़ी गांव में चारू मजूमदार ने शुरू किया. चारू मजूमदार और कानू सन्याल ने गांव के आदिवासी किसानों और मजदूरों को जमींदारों के खिलाफ हथियार उठाने के लिए लामबंद किया. नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ यह हथियारबंद विरोध अगले तीन-चार सालों में पूरे पश्चिम बंगाल में फैल गया. नक्सलबाड़ी गांव से शुरुआत होने के कारण इसे नक्सल आंदोलन कहा गया और इस विचारधारा पर चलने वालों को नक्सलवादी कहा जाता है. नक्सलबाड़ी गांव से उठा यह आंदोलन 70 के दशक तक पूरे देश में फैल गया. इस दौर में 1969 में चारू मजूमदार ने राजनीतिक पार्टी सीपीआई (एमएल) का गठन किया. माओ त्से तुंग की सोच को लेकर आगे चलने वाले चारू मजूमदार के नेतृत्व में इस विचारधारा का विस्तार देश के शहरों से लेकर आदिवासी और जंगल के क्षेत्रों में होने लगा. धीरे-धीरे इस आंदोलन की गिरफ्त में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य आ गए. 2014 तक इन राज्यों के 126 जिले माओवाद के प्रभाव में आ चुके थे. जिस तरह से माओवादी देश में अपना प्रभाव बढ़ाते जा रहे थे, उससे केन्द्र की सरकारों की भी चिंता बढ़नी स्वाभाविक थी. 04 नवंबर, 2004 को कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहा कि भारत में नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है.

भ्रम की रणनीति से नुकसान

मनमोहन सिंह के सार्वजनिक बयान ने यह साफ कर दिया था कि सरकार अब तक जिस आंदोलन को स्थानीय विरोध समझ रही थी, दरअसल उसके जरिए एक सोची-समझी रणनीति के तहत देश के संविधान और सरकार को उखाड़ फेंकने की चुनौती दी जा रही थी. लेकिन उस समय सत्ताधारी पार्टी के अंदर ही कुछ ऐसे नेता थे, जो इस आंदोलन के खिलाफ सुरक्षा बलों के ऑपरेशन का विरोध करने के साथ इसे खत्म करने के लिए विकास और सब्सिडी आधारित सरकारी योजनाओं की वकालत करते थे. इन माओवादियों से निपटने के लिए कौन सी रणनीति अपनाई जाए, यूपीए सरकार इसी ऊहापोह में फंसी रही, जबकि दूसरी तरफ माओवादी पुलिस थानों और सुरक्षाबलों पर अपने हमलों को तेज करते रहे. 06 अप्रैल, 2010 को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने सीआरपीएफ पर सबसे बड़ा हमला करते हुए 76 जवानों को शहीद कर दिया. लेकिन फिर भी सरकार ने इन नक्सलियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने के बजाय उनसे बातचीत करके रास्ता निकालने की नीति को ही सही माना. तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने दंतेवाड़ा के जघन्य हमले के बाद भी नक्सलियों की समस्या का 72 घंटों में समाधान करने का वादा करके बातचीत करने की पेशकश की, लेकिन नक्सलियों ने बातचीत की इस पेशकश को ठुकरा दिया. वामपंथी दलों के सहयोग से चलने वाली यूपीए सरकार की मजबूरी नक्सली खूब अच्छी तरह समझ रहे थे. इसलिए वे अपनी रणनीति को बदलने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हुए. सरकार के सामने नक्सली देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए उसी तरह की चुनौती बने हुए थे, जैसी कि 2004 में थी. यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती थी. उन्होंने 23 नवंबर, 2013 को दिल्ली के विज्ञान भवन में पुलिस अधिकारियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए अधिकरियों से कहा कि वो माओवाद के आतंक को जड़ से खत्म करने का काम करें. 

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2014 के बाद बदल गया इतिहास

साल 2014 में तीस सालों बाद देश में गैर कांग्रेसी दल की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी. राजनीतिक स्थिरता और साहसिक निर्णय लेने की क्षमता के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने देश की आंतरिक सुरक्षा को दुरुस्त करने के लिए कई निर्णय लिए. एक तरफ पड़ोसी देशों द्वारा निर्यात किए जा रहे आतंकवाद पर लगाम लगाना था, वहीं देश के अंदर माओवाद के रूप में पनप रहे लाल आतंक का सफाया करना था. माओवादियों के आतंक को खत्म करने के लिए सरकार ने माओवाद प्रभावित क्षेत्रों के विकास के साथ-साथ माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन को तेज कर दिया. माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन करने के लिए सुरक्षा बलों को हर तरह की सुविधाएं दी गईं. यहां तक कि हेलीकॉप्टर की हवाई ताकत इस्तेमाल करने की भी छूट दी. माओवादियों के गढ़ में सुरक्षा बलों ने सड़कों और मोबाइल टॉवर की सुविधा बहाल करके आम जन को विकास से जोड़ने का काम किया. केन्द्र और राज्य सरकारों ने माओवादियों के गढ़ में सामाजिक कल्याण की योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी भी सुरक्षा बलों के जवानों को दे दी. 

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माओवादियों का सफाया
प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने जहां एक तरफ माओवाद प्रभावित जिलों में विकास कार्यों को तेज किया, वहीं सुरक्षा बलों को माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने की पूरी छूट दे दी. सुरक्षा बलों को मिली इस ताकत का ही परिणाम है कि इस साल अब तक माओवादियों के 171 से अधिक कमांडरों और कैडरों का सफाया किया जा चुका है. 04 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में नक्सलियों के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा ऑपरेशन “प्रहार” किया गया. इसमें सुरक्षा बलों के 1500 जवानों ने 48 घंटों तक अबूझमाड़ के जंगलों में माओवादियों के गढ़ पर कार्रवाई की, जिसमें माओवादियों के 31 कैडर और कमांडर मारे गए. पिछले कुछ महीनों से लगातार माओवादियों के बचे गढ़ों का सफाया किया जा रहा है. अप्रैल महीने में जब देश में लोकसभा के चुनाव हो रहे थे, तब भी केन्द्र सरकार ने पूरी ताकत के साथ माओवादियों के खिलाफ ऑपरेशन को जारी रखा था, उसे ढीला नहीं पड़ने नहीं दिया. चुनाव के इस दौर में भी 29 नक्सलियों को मार गिराया गया. इस ऑपरेशन में नक्सलियों के सबसे प्रमुख कमाडंरों में से एक शंकर राव का भी सफाया किया गया, जिसके ऊपर 25 लाख रुपए का इनाम था.

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आज, जब सरकार यह एलान करती है कि 2026 तक इस देश से नक्सल आतंक का सफाया हो जाएगा तो इसके पीछे उस रणनीति का विश्वास है, जिस पर सरकार पिछले कुछ सालों से चल रही है. इस रणनीति में आदिवासी किसानों और मजदूरों के क्षेत्रों के विकास के साथ-साथ उनके जीवन में आतंक का जहर भरने वाले लाल आतंकियों का सफाया है. 2014 से पहले यूपीए सरकार इसी उलझन में फंसी रही थी कि माओवाद की समस्या के समाधान के लिए वह विकास का रास्ता अपनाए या माओवादियों के सफाए का. वहीं, वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने दोनों ही रास्तों को अपनी रणनीति में शामिल करके उस पर चौतरफा प्रयास किया है, जिसका परिणाम आज देश के सामने है.

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हरीश चंद्र बर्णवाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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