भारतीय आस्तिक दर्शन में परमब्रह्म के पाँच स्वरूपों को मान्यता दी गई है, विष्णु, शिव, गणेश, दुर्गा और सूर्य. इन पाँच स्वरूपों में रहकर एक ही भगवान अपनी लीलाएं रचते हैं. इन पंच स्वरूपों के अर्चन-पूजन और कृपा प्राप्ति के लिए पाँच संप्रदायों की परंपरा अनादि काल से चली आ रही है. प्रत्येक संप्रदाय अपने इष्ट स्वरूप को सर्वोपरि मानता है. विष्णु भक्त वैष्णव, शिव भक्त शैव, देवी भक्त शाक्त, सूर्य भक्त सौर और गणेश के भक्त गाणपत्य संप्रदाय की रीति नीति के अनुसार अपनी साधना करते आए हैं. इन सभी संप्रदायों के अपने ग्रंथ, पूजा पद्धति, और तीर्थ हैं. यद्यपि आज वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाय खूब फल-फूल रहा है, किन्तु शेष भारत की अपेक्षा महाराष्ट्र में ही अनेक स्थानों में भगवान गणेश से संबंधित संप्रदाय के केंद्र और भक्त बचे हुए हैं. यूं तो सम्पूर्ण भारत में हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों में गणेश उपासना किसी ना किसी रूप में प्रचलित है, विशेषकर सभी प्रकार के पूजा पद्धतियों में उन्हें प्रथम पूज्य और विघ्नों का नाश करने वाला माना गया है. किन्तु महाराष्ट्र में आज भी गाणपत्य संप्रदाय अपनी मौलिकता के साथ जीवित है.
गणेश जी की अराधना
भगवान गणेश केवल लोकपूज्य देवता ही नहीं, बल्कि दार्शनिक दृष्टि से अत्यन्त गहन प्रतीकात्मक स्वरूप वाले देवता हैं. संस्कृत ग्रन्थों—उपनिषद्, पुराण और स्तुतियों में उनके रूप का वर्णन प्रतीकात्मक व्याख्या के साथ मिलता है. एकदन्त (एक दाँत) गणेश का एक ही दाँत शेष है. यह एकाग्रता और सत्य की अखण्डता का प्रतीक है. गणपत्युपनिषद् 11, गणेश जी की स्तुति करते हुए कहते हैं, ''एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम्. अभयं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्॥”
इस मंत्र में, एकदन्त, चतुर्भुज, पाश और अंकुश धारण करने वाले, वरद मुद्रा में विराजमान, मूषकवाहन गणेश की स्तुति की जाती है. एकदन्त सत्य पर अटल रहने और असत्य को त्याग देने का संकेत है. गणेश का हाथीमुख ज्ञान, बुद्धि और शक्ति का प्रतीक है. हाथी स्मृति-सम्पन्न और धैर्यशील होता है— ये ही गुण साधक के लिए आवश्यक हैं. गणपति अथर्वशीर्ष, 4 का मंत्र है, ''त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोsसि'' गणपति! आप ही ज्ञान और विज्ञान स्वरूप हैं. गजमुख ज्ञान के विराट स्वरूप का प्रतीक है. गणेश की चार भुजाएं—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का द्योतक हैं. पाश, आसक्ति और बन्धन को दर्शाता है. अंकुश, मन को संयमित करने का साधन. मोदक – आत्मानन्द का प्रतीक, मोद् शब्द ही आनंद के संदर्भ में है. वरद मुद्रा – कृपा और आश्रय का संकेत. गणेश का वाहन है मूषक. मूषक—छोटा किंतु सर्वत्र प्रवेश करने वाला जीव है. यह इन्द्रियों की चंचलता और अहंकार की तुच्छता को दर्शाता है. गणेश जब मूषक पर आरूढ़ होते हैं, तो इसका तात्पर्य है कि बुद्धि इन्द्रियों पर शासन करे, न कि इन्द्रियाँ बुद्धि पर. गणेश का उदर विशाल है. यह सहनशीलता और सृष्टि की सम्पूर्णता को धारण करने की क्षमता का प्रतीक है. गणपति उपनिषद् 6 में कहा गया है, ''त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्.”-- आप मूलाधार चक्र में सदा स्थित रहते हैं. पेट का विशाल रूप मूलाधार चक्र और सम्पूर्ण जगत को धारण करने का संकेत है. गणेश का त्रिनेत्र और अर्धचन्द्र, क्रमश ज्ञान क्रिया और इच्छा-शक्ति का प्रतीक है. अर्धचन्द्र चित्त की शीतलता और प्रसन्नता का द्योतक है.
महाराष्ट्र के आठ पवित्र स्थानों पर स्थित मंदिर गणेश भक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं.
महाराष्ट्र में गणेश तीर्थ
भगवान गणेश की आराधना का चरम रूप है—अष्टविनायक तीर्थयात्रा. महाराष्ट्र के आठ पवित्र स्थानों पर स्थित ये मंदिर गणेश भक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं. गाणपत्य संप्रदाय में मान्य मुद्गल पुराण और गणेश पुराण में इन स्थानों से संबंधित कथाएं दी गई हैं. ये आठ स्थान है:
- प्रथम, मोरेश्वर (मोरगांव, पुणे) – मोरों से बसा यह स्थान गणेश के प्राचीन स्वरूप का केंद्र है.
- द्वितीय, चिंतामणि (थेऊर, पुणे) – यहाँ ब्रह्मा ने गणेश की आराधना कर मानसिक स्थिरता पाई.
- तृतीय, गिरिजात्मज (लेन्याद्री, जुन्नार) – पार्वती ने यहाँ तप कर गणेश को पुत्र रूप में पाया.
- चतुर्थ, विघ्नेश्वर (ओजार, पुणे) – यहाँ गणेश ने विघ्नासुर राक्षस का वध किया.
- पंचम, महागणपति (रांजणगांव, पुणे) – शिव ने यहां त्रिपुरासुर के वध हेतु गणेश का आशीर्वाद प्राप्त किया.
- षष्ठ, सिद्धिविनायक (सिद्धटेक, नगर) – विष्णु ने गणेश की कृपा से मधु-कैटभ राक्षसों का संहार किया.
- सप्तम, वरदविनायक (महाड, कोलाबा) – ऋषि गृत्समद द्वारा स्थापित यह गणेश मंदिर वैदिक परंपरा से जुड़ा है.
- अष्टम, बल्लालेश्वर (पाली, कोलाबा) – भक्त बल्लाल की भक्ति से प्रसन्न होकर गणेश यहां सदा-सर्वदा विराजमान रहे.
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी मध्याह्न के समय भगवान गणेश का आविर्भाव हुआ. उनमें पौराणिक और लौकिक देवसत्ताओं का अद्भुत मिलन है. उनका गज-मुख शिव पार्वती की कथा से जुड़ा है, जो अत्यंत लोकप्रिय है. इस गज-मुख की पौराणिक कथा के अलावे अगर इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो आदिम काल से ही गज, शक्ति और पौरुष का प्रतीक रहा है. मानव सभ्यता के विकास के आरंभिक समय में विभिन्न मानव समुदायों में 'टोटम' का प्रचलन था. ये 'टोटम' उन समुदायों के लिए पवित्र माने जाते थे. उनकी पवित्रता उनके नैसर्गिक शक्ति और वीरता पर निर्भर करता था. ज्यादातर किसी शक्तिशाली पशु को 'टोटम' के रूप में देखा जाता था. इनमे एक था गज. गज के प्रति भारतीय जनमानस में शुरुआती समय से ही एक विशेष लगाव रहा है. इन 'टोटम' के अतिरिक्त हमें सिंधु-सरस्वती सभ्यता में जो मुहर मिलें हैं, उनमें बाघ और बैल के अतिरिक्त हाथी भी दिखते हैं. हो ना हो ये पशु उस सभ्यता के लिए पवित्र रहे होंगे. मोहनजोदड़ो की एक प्रसिद्ध मुहर पर योगासन में बैठे त्रिशीर्ष देवता के चारों ओर चार जानवर अंकित हैं—जिनमें एक हाथी भी है. इस देवता को आद्य शिव माना जाता है. इसका अर्थ है कि हाथी प्राचीन काल से ही शिव-परिवार का अंग समझा गया.
गणेश चतुर्थी के अवसर पर राजस्थान के बीकानेर में मिठाई की एक दुकान पर मोदक सजाती एक कर्मचारी.
हाथी और गणेश
पौराणिक कथा कहती है, देवताओं और दैत्यों ने जब अमृत पाने हेतु क्षीरसागर का मंथन किया, तो उससे अनेक दिव्य वस्तुएं प्रकट हुईं. उन्हीं में से एक था श्वेत, भव्य और राजसी हाथी—जिसका नाम रखा गया ऐरावत. यह दिव्य हस्ती इंद्र को प्राप्त हुआ और वह उनके वाहन के रूप में प्रसिद्ध हुआ. महाराष्ट्र के भाजे बौद्ध विहार के तोरणद्वार पर आज भी ऐरावत पर आरूढ़ इंद्र की मूर्ति देखी जा सकती है. धन-समृद्धि की देवी लक्ष्मी की प्रतिमा विज्ञान में हाथी अनिवार्य है. उन्हें कमल पर आसीन दिखाया जाता है और उनके दोनों ओर दो या चार हाथी अपनी सूंड से जल की धार बनाकर उनका अभिषेक करते हैं. ये हाथी केवल पशु नहीं, बल्कि दिव्यता के प्रतीक दिग्गज हैं—जो चारों दिशाओं में ब्रह्मांड को थामे हुए बताए गए हैं. बौद्ध धर्म में हाथी का महत्व अत्यंत गहरा है. बुद्ध की माता रानी मायादेवी ने स्वप्न में देखा था कि स्वर्ग से उतरा एक सफेद हाथी उनकी कोख में प्रविष्ट हुआ. यही स्वप्न बुद्ध के अवतरण का संकेत माना गया. जातक कथाओं में भी हाथियों का विशेष स्थान है. छद्दंत जातक में बुद्ध के एक अवतार का वर्णन मिलता है, जब वे छह दांतों वाले दिव्य श्वेत हाथी के रूप में जन्मे. सांची स्तूप और अजंता गुफाएं इस कथा को मूर्त रूप में संजोए हुए हैं. प्राचीन काल में हत्थी मंगल नामक उत्सव मनाया जाता था, जिसमें दिव्य हाथी मंगलहस्ती की पूजा होती थी. माना जाता था कि यह युद्ध में विजय दिलाने वाला देवता हैं. तिब्बती वज्रयान धर्म में गणेश का विशेष स्थान है, उन्हें वहाँ विघ्नों का अधिपति माना गया है. तिब्बती थनका कला में उन्हें लाल या नीले रंग में क्रोधित और सौम्य दोनों रूपों में दिखाया जाता है. जैन संस्कृति में भी व्यापारी वर्ग गणेश की पूजा करते हैं, हालांकि जैन ग्रंथों में उनका कोई विशेष स्थान नहीं है, वह एक लोकदेवता हैं. 'टोटम' से वैदिक सिंधु-सरस्वती और पौराणिक कथाओं और लोक परंपराओं के सम्मिश्रण से मंगलमूर्ति की भावना की गई है. गणेश लोक की शक्ति के प्रतीक हैं, समस्त गणों के ईश हैं. गणों की सम्मिलित चेतना ही गणेश है. भारतीय मनिषियों ने इस चेतना को मंगलकारी माना है. इस मंगलकारी चेतना को पहचानते हुए प्रखर राष्ट्रवादी लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को शोषणकारी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हथियार बना दिया था. यह लोकोपकारी चेतना सदा जाग्रत रहे और मंगलकारी रहे, यही गणेश उत्सव का संदेश है.
डिस्केलमर: डॉक्टर संदीप चटर्जी, दिल्ली विश्विद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.