This Article is From Oct 20, 2021

किसान आंदोलन - कोर्ट में सुनवाई, सरकार कहां गई?

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Ravish Kumar

जिस देश में आज़ादी की लड़ाई का आंदोलन 1857 से 1947 तक अलग अलग रूप में चला हो, उस देश के सुप्रीम कोर्ट में शाहीन बाग धरने के बाद किसानों के धरने को लेकर चल रही बहस में अजीब अजीब किस्म के सवाल उठ रहे हैं कि आंदोलन कब तक चलेगा, क्यों चल रहा है, अनंत काल के लिए सड़कें बंद नहीं हो सकती हैं. आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद के तमाम धरना प्रदर्शनों का इतिहास देखिए उनके साथ मैदानों के नाम अमर हो गए जो शहर के बीचों बीच हुआ करते थे. अब प्रदर्शन के मैदानों को सरकार और जनता की नज़र से दूर करने का काम पूरा हो चुका है. प्रदर्शन से पहले अनुमति मांगने की प्रक्रिया भी जटिल हो चुकी है और कई बार अनुमति भी नहीं मिलती. पिछले दो साल से सुप्रीम कोर्ट में प्रदर्शन करने के अधिकार, जगह औऱ समय को लेकर बहस हो रही है. नागरिक और वकील ही इस मसले को कोर्ट में लेकर गए हैं. हर बार कोर्ट ने प्रदर्शन करने के अधिकार को मान्यता दी है लेकिन इस दौरान जो टिप्पणियां आ रही हैं उनसे मिल रहे संकेतों को नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता है.

अंग्रेज़ी हुकूमत में भी ऐसा नहीं हुआ होगा जैसा इस जुलाई में मानसून सत्र के दौरान हुआ. पहचान पत्र के साथ 200 किसानों को जंतर मंतर पर आने की अनुमति मिली और उसके लिए समय तय हुआ 11 से लेकर 5 बजे तक का. उसके बाद उसी बस से वापस जाना पड़ता था. नाम तो इसका किसान संसद था मगर ये एक किस्म की खुली जेल ही थी. चुनावी रैलियों से लेकर कुंभ तक का आयोजन हुआ, आपदा प्रबंधन एक्ट की याद नहीं आई लेकिन जंतर मंतर पर इस कानून को आदर्श रूप में लागू किया गया. आपको लगेगा कि यह बेहतर व्यवस्था की तस्वीर है लेकिन यह तस्वीर व्यवस्था के नाम पर लोकतंत्र की क्रमिक समाप्ति की है. दिल्ली की सीमा पर गाड़ी गईं ये कीलें एलान है कि प्रदर्शन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. आज भी सिंघु बॉर्डर पर बेरिकेड के ऊपर कांटे नज़र आ रहे हैं. कील और कांटे अब प्रदर्शनों के खिलाफ बंदोबस्त के अभिन्न अंग बनते जा रहे हैं. 

जिस जिस को लगता है इसमें कुछ ग़लत नहीं है उन्हें 1000 की जगह 1500 का गैस सिलेंडर खरीदना चाहिए और 114 रुपये की जगह 150 रुपये पेट्रोल खरीदने में आनंद महसूस करना चाहिए. अगर आप अदालत में धरना प्रदर्शनों को लेकर कही जा रही बातों से सतर्क नहीं होंगे तो एक दिन कुछ नहीं बचेगा. मीडिया तो भारत में रहा नहीं, सड़क भी चली जाएगी तो एक दिन संसद आवारा हो जाएगी. लोहिया की इस टिप्पणी में संसद की जगह आप सरकार भी जोड़ सकते हैं. 1972 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने हिम्मत लाल केस में फैसला दिया था. राज्य कानून के नाम पर हर सड़क या सार्वजनिक स्थल पर लोगों के जमा होने के अधिकार पर अंकुश नहीं लगा सकता है. राज्य लोगों के जमा होने के अधिकार की गारंटी सुनिश्चित कराने में नियम बना सकता है और कानून व्यवस्था के नाम पर आंशिक प्रतिबंध लगा सकता है.

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मतलब कहीं जमा होकर प्रदर्शन करने के अधिकार का पालन औऱ जगह देने की ज़िम्मेदारी सरकार की है. दिसबंर 2020 में तत्कालीन चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने कहा था कि प्रदर्शन करने का अधिकार मौलिक अधिकार का हिस्सा है. जब तक यह अहिंसक है और जनहानि नहीं होती है, इस अधिकार पर रोक नहीं लग सकती. 

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24 नवंबर 2020 को किसान अहिंसक तरीके से ही दिल्ली की तरफ आ रहे थे लेकिन उस भीषण सर्दी में किसानों को रोकने के लिए राज्य की हिंसा की इन तस्वीरों को पहचानिए. किसान अभी मार्च ही कर रहे थे कि मीडिया इन्हें आतंकवादी कहने लगा और सरकार के मंत्री कहने लगे कि ये किसान ही नहीं हैं. आज भी कहते हैं कि ये किसान नहीं हैं. राजीव भार्गव ने अपने लेख में अब्राहम लिंकन के एक कथन का उल्लेख किया है. शांतिपूर्वक जमा होने का लोगों का अधिकार क्रांति का संवैधानिक विकल्प है. तत्कालीन चीफ जस्टिस बोबडे ने कहा था कि प्रदर्शन चल रहा है, जब तक यह जीवन और संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाता है तब तक संवैधानिक है और यह पूरी तरह से आदर्श प्रदर्शन है. लेकिन उनका मकसद पूरा नहीं होगा अगर वे बिना बात किए धरना पर बैठे रहेंगे. किसानों और सरकार के बीच बात भी हुई लेकिन जनवरी के बाद से सरकार ने कोई बातचीत नहीं की है. जबकि पीएम ने ख़ुद बयान दिया था कि वे एक फ़ोन कॉल दूर हैं. कोर्ट ने सरकार को ही सतर्क किया था कि हिंसा न उकसाए. लेकिन लखीमपुर खीरी में क्या हुआ. गृह राज्य मंत्री का भाषण भले प्रधानमंत्री मोदी के लिए कुछ भी न हो लेकिन अदालत की टिप्पणी के पैमाने पर देखिए तो पता चलेगा कि स्टेट की तरफ से मंत्री ने हिंसा को कैसे उकसाया था. छिपटुट घटनाओं को छोड़ दें तो आज तक इस आंदोलन का चरित्र अहिंसक ही है. रेलगाड़ियां रोकी गईं लेकिन रेल की संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया गया.

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राज्य के साथ खड़े लोगों की जीप ने किसानों को कुचल कर मार दिया. पहले किसानों को मरना पड़ा फिर मारने वालों की गिरफ्तारी को लेकर आंदोलन भी करना पड़ा. आज भी लखीमपुर खीरी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तार आरोपियों की आगे पुलिस हिरासत न लेने पर यूपी सरकार की आलोचना की है. सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ रहा है कि पीड़ितों का मजिस्ट्रेट के सामने 164 के तहत बयान कराए जाएं. गवाहों को सुरक्षा दी जाए. राज्य की तरफ से हिंसा उकसाने के बयान केवल गृह राज्य मंत्री के नहीं हैं.

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और ये पहली बार नहीं हैं. नागरिकता विरोधी आंदोलन के समय शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को गोली मारने के नारे लगाए गए और हिंसा उकसाने के लिए शाहीन बाग के सामने कई बार गोली चलाने के प्रयास भी हुए. ऐसा करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. हरियाणा के मुख्यमंत्री ने किसानों पर लठ चलाने की सीख देते पकड़े गए तो अपना बयान वापस ले लिया. लेकिन यही बात अगर किसानों ने कही होती तो बकायदा फाइल बनाकर सुप्रीम कोर्ट के सामने सरकार दलील दे रही होती कि किसान हिंसा करना चाहते हैं. उकसा रहे हैं. इन्हें प्रदर्शन की इजाज़त नहीं है.

धरना कब तक चलेगा और कहां चलेगा क्या यह सवाल कोर्ट में आना चाहिए या इस सवाल की चिन्ता सरकार को करनी चाहिए. इस पूरी बहस के ज़रिए प्रदर्शन करने की सोच को बदनाम किया जा रहा है. मान लीजिए सरकार पेट्रोल के दाम बढ़ाए जा रही है और आप खरीद नहीं सकते. आप प्रदर्शन करेंगे और सरकार कह दे कि दाम कम नहीं करेंगे तो क्या आप प्रदर्शन बंद कर देंगे. क्या इसे कोर्ट से तय किया जाए कि आप कब तक और कहां प्रदर्शन करेंगे? यहां तो फेसबुक पर कमेंट लिखने से जेल हो जा रही है.

जीवन का अधिकार मौलिक अधिकार है. क्या सरकार या अदालत तय कर सकती है कि कोई कब तक जीवित रहेगा. प्रदर्शन करना मौलिक अधिकार है. लोकतंत्र में जीवन का मतलब होता है बोलना, प्रदर्शन करना. क्या सरकार या अदालत तय कर सकती है कि कब तक प्रदर्शन करेगा। जब तक आततायी कानून होंगे, जनता को लगेगा कि उसका दम घुट रहा है वह प्रदर्शन करेगी. सुनने का काम सरकार का है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कृषि कानूनों के अध्ययन की कमेटी बनी, क्या कमेटी बनाने का काम कोर्ट का था? या इस तरह के काम सरकारें करती रही हैं. अब कमेटी ने अपनी रिपोर्ट कोर्ट को सौंप दी है तो कमेटी के सदस्य ही कोर्ट से कह रहे हैं कि रिपोर्ट सार्वजनिक हो.

किसान आंदोलन के दौरान चल रही बहस में कोर्ट से आवाज़ आई कि कानून लागू नहीं है और मामला अदालत में लंबित है तो फिर प्रदर्शन क्यों चल रहा है. अक्सर कोर्ट में भी सुनवाई लंबी चल जाती है और कई बार सुनवाई का इंतज़ार ही होता रहता है. तब कोई क्या करे. इलेक्टोरल बान्ड का किस्सा जानते हैं आप. किसी को पता नहीं कि कौन चंदा दे रहा है. एक ही पार्टी को हज़ारों करोड़ रुपये मिल रहे है. अंधेरे के इस खेल के खिलाफ 2017 में ADR (Association for Democratic Reforms) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. 2021 आ गया बल्कि अब तो जा रहा है.

इसी तरह से धारा 370 हटाए जाने की वैधानिकता को चुनौती देने के लिए दो दर्जन से अधिक याचिकाएं दायर हुई थीं. सुनवाई का इंतज़ार हो रहा है. यही स्थिति नागरिकता कानून और आधार कार्ड की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की है. क्या तब तक कोई प्रदर्शन करे. 

LGBTQ का एक प्रदर्शन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ही खिलाफ हुआ था. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी और कहा था कि यह संसद का काम है. 5 साल बीत गए संसद ने इस पर कदम नहीं उठाया. 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को पलटा. तत्लाकीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा का मशहूर कथन है "Take me as I am” मैं जैसा हूं वैसा ही स्वीकार करो. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से LGBTQ समुदाय में खुशी की लहर दौड़ गई थी. इसलिए प्रदर्शन करना धरना देना लोकतंत्र में जीना होता है. सिस्टम तो ऐसा होना चाहिए कि जिस छात्र ने अपने जीवन में कभी किसी प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया उसका यूपीएससी के इंटरव्यू में दस नंबर काट लेना चाहिए. हर मामले में पांच साल तक चुनाव का इंतज़ार नहीं हो सकत. लोहिया ने कहा था ज़िंदा क़ौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं.

सेक्शन 377 को अवैध ठहारने वाले फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि अगर मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा तब अदालत ऐसे कानूनों को खत्म करने के लिए बहुमतवादी सरकार (Majoritarian government) का इंतज़ार नहीं कर सकती. जब Majoritarian कहा जाता है तो इसका मतलब ही यही होता है कि बहुमत के घमंड में अहंकारी सरकार. इतने लंबे आंदोलन से सरकार टस से मस नहीं हुई, सवाल किसानों से पूछा जा रहा है कि आप क्यों नहीं हट रहे. अदालत की बातों में भी आशंकाओं की आहट झलक रही है इसलिए तमाम सवालों के साथ अदालत यह भी कहना नहीं भूलती कि प्रदर्शन करना मौलिक अधिकार है.

दंगों के नाम पर प्रदर्शनों को कुचलने के कई कानून बने हैं और बनने वाले हैं. भारत में भी और दुनिया भर में भी. जैसे ही कोई प्रदर्शन शुरू होता है गोदी मीडिया और सरकार से जुड़े लोग प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी से लेकर दंगाई कहना शुरू कर देते हैं. पहले भाषा में अतिक्रमण होता है फिर दंगाइयों के लिए बने कानून प्रदर्शनकारियों पर लागू कर दिए जाते हैं. इस बात की कोई जांच या सुनवाई नहीं कि किसी प्रदर्शन में हिंसा भड़काने का खेल सरकार भी तो रच सकती है.

शाहीन बाग के समय गोली चलाने की दो-दो घटनाएं हुईं. क्या ये उकसाना नहीं था. इसके बाद भी शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी संयमित रहे. इसी तरह एक भीड़ खड़ी तैयार कर दी गई है जो अब हर आंदोलनों के खिलाफ आंदोलन करने चली जाती है ताकि टकराव हो. यह भीड़ और उसके नेता ललकारने वाली भाषा का इस्तमाल करते हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती है.

हिंसा का सवाल हर बार प्रदर्शन के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है. हिंसा के नाम पर प्रदर्शन के सवालों को पुलिस और कोर्ट के हवाले कर दिया जाता है. अदालतें कभी हस्तक्षेप करती हैं और कभी नहीं करती हैं. हिंसा की बात आगे कर सरकार पर्दे के पीछे चली जाती है. सारा खेल कहां से संचालित होता है हर बात बताने की ज़रूरत नहीं है. वैसे भी आप 114 रुपया पेट्रोल भराने वाले नागरिक हैं. ज़्यादा समझाना भी ठीक नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने 43 किसान नेताओं को नोटिस भेजा है. किसानों ने फिर से दिल्ली चलो का नारा दिया है. हरियाणा और पंजाब से किसान सीमा पर पहुंचने लगे हैं. जितनी सुनवाई अदालत में हुई है अगर सरकार से बातचीत हुई होती तो कोई नतीजा निकल सकता था. सबकी चिन्ता है कि प्रदर्शन खत्म हो, इस सवाल को बहस से गायब किया जा रहा है कि प्रदर्शन किस लिए हो रहा है. 

हमारे सहयोगी सौरव सिंघु बॉर्डर गए थे. गाज़ीपुर बॉर्डर पर सड़क के एक हिस्से को बंद किया गया है लेकिन सिंघु बॉर्डर के किसान कह रहे हैं कि उन्होंने पूरी तरह से रास्ता बंद नहीं किया है. दिल्ली पुलिस के बैरिकेड के कारण रास्ता बंद हुआ है.

किसान कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं. आर्डेनेंस फैक्ट्री के कर्मचारी आंदोलन न कर सकें इसके लिए इसी देश में कानून लाया गया कि हड़ताल में शामिल पाए गए तो जेल होगी. क्या सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद की जा सकती है कि अगर प्रदर्शन मौलिक अधिकार है तो यह कानून उस अधिकार का अतिक्रमण है या गुलाब की माला.