ट्रिपल तलाक के मसले पर तेज होती आवाजें

ट्रिपल तलाक के मसले पर तेज होती आवाजें

फाइल फोटो

नरेंद्र मोदी सरकार में अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्‍लाह ने ट्रिपल तलाक के मसले पर अपना आपा खो दिया। मुस्लिम समाज में महिलाओं के एक तबके में कदम उठ रहे हैं जो इस रूढ़ि‍वादी रवायत को बदलना चाहते हैं। इस प्रथा के विरोध में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने 50,000 से ज्यादा महिलाओं के हस्ताक्षर इकट्ठा किए हैं। उनको पुरुषों का भी सहयोग मिल रहा है।

दुनिया भर के 21 देशों में ट्रिपल तलाक का तरीका प्रतिबंधित है। इनमें इराक, ईरान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, सऊदी अरब, इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम बहुल देशों के साथ अफ्रीका के कई मुल्‍क शामिल हैं। हमारे देश में ये बरकरार है लेकिन अब ट्रिपल तलाक और हलाला के खिलाफ आवाजें तेज हो रही हैं।

फोन, फेसबुक, चिठ्ठी से महज तीन बार तलाक-तलाक कहने से एक निकाह तोड़ दिया जाता है, जिसमें महिलाओं को तलाक ए बिद्दत का समय भी नही मिलता यानी कुछ सोचने विचारने के लिए समय। अहले हदीस में इसे मान्यता नहीं है लेकिन हनाफी मसलत में है। दरअसल मुस्लिम समाज में भी अलग अलग विचारधाराएं हैं।  

हलाला के तहत एक महिला को मजबूरन तलाक के बाद अगर वापस अपने शौहर से शादी करनी होती है तो दूसरे मर्द के साथ निकाह करना पड़ता है और साथ रहने के बाद ही पहले पति के पास वापसी जा सकती है। दरअसल कई बार गुस्से, नशे या फिर हल्के कारणों की वजह से तलाक, तलाक, तलाक कह दिया जाता है जोकि मुस्लिम समाज के मौलिक अधिकारों के खिलाफ जाता है। बहरहाल हमारे देश में दो मुस्लिम महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

सायरा बानो का किस्‍सा
एक उत्‍तराखंड की सायरा बानो हैं, जिन्‍हें चिट्ठी से तलाक मिला। वे अपने माता-पिता के यहां इलाज करा रहीं थीं। उनके पति इलाहाबाद में बच्‍चों के साथ रहते हैं। सायरा को बच्‍चों से मिलने भी नहीं दिया गया। तमाम कोशिशों के बाद जब उनके पति ने नहीं सुनी तो वे सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। अब सुप्रीम कोर्ट ने तमाम हलकों से राय मांगी है, जिस पर जल्द राय सामने आने वाली हैं।

मुस्लिम समाज की नजरें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हुई हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि मुस्लिम समाज में तलाक के मामले इतने नहीं जितने दूसरे समाजों में हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मुद्दे को मुसलमानों की पहचान से जोड़ रहा है। उनका कहना है कि ये उनकी आईडेंटिटी से जुड़ा है। किसी को उनके धर्म में दखल की इजाज़त नहीं है लेकिन सवाल ये भी है कि क्या उन्‍होंने कोई मॉडल निकाहनामा समाज के लिए सामने रख लागू करवाया? वे मानते हैं कि प्रशासनिक ढांचे की कमी आड़े आ रही है लेकिन अब बात हाथ से निकल गई है। तमाम वर्ग अब कोर्ट का रुख कर रहे हैं।

नजमा हेपतुल्‍लाह का गुस्सा वो हकीकत है जो राजनीतिक नफा-नुकसान पर टिका हुआ है। मुस्लिम समाज में शिक्षा पर जोर सही है लेकिन राजनीतिक मदद से मुंह चुराने से महिलाओं की कारगर मदद नहीं होने वाली। जब तक अल्पसंख्यक मंत्रालय जमीन पर उतर कर काम नहीं करेगा तब तक हमारे इन समाजों में विकास कोसों दूर रहेगा। इसमें अच्छी बात यह है कि समय भले लगे लेकिन समाज में खुद बदलाव के कदम उठने शुरू हो गए हैं।

(निधि कुलपति एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

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