This Article is From Nov 21, 2023

‘रेवड़ी राजनीति’ की गिरफ्त में क्यों हैं वोटर, किस पार्टी का होगा बेड़ा पार?

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Dharmendra Singh

देश में रेवड़ी कल्चर को लेकर सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट, सियासत से लेकर चुनावी राज्यों तक में खूब चर्चा हो रही है. इस गलाकाट प्रतियोगिता में राजनीतिक पार्टी की कोशिश ये रहती है कि वो विरोधी पार्टी के खिलाफ आगे निकल जाए.

जाहिर है कि इस बार के विधानसभा चुनाव मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में वोटरों को लुभाने के लिए घोषणाओं की बरसात हो गई है. सारी पार्टी की घोषणाओं का लब्बोलुआब है, किसान की कर्ज माफी, धान और गेहूं की खरीदारी की कीमत बढ़ाना, सस्ता सिलेंडर, मुफ्त बिजली, किसान सम्मान निधि बढ़ाने, मुफ्त राशन बढ़ाने का है. घोषणाओं की लंबी फेहरिस्त में घर देने, बेरोजगारी भत्ता, लड़की के 21 साल पूरे होने पर 2 लाख रुपये देने, जातिगत गणना, रोजगार देने, बेरोजगार और बुजुर्ग पेंशन और पुरानी पेंशन योजना लागू करने जैसी बातें शामिल हैं.

रेवड़ी राजनीति को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बोल चुके हैं कि रेवड़ी राजनीति से थोड़ा सियासी फायदा है लेकिन देश को कीमत चुकानी होगी. वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने एक निजी याचिका पर मध्यप्रदेश और राजस्थान सरकार पर मुफ्त रेवड़ियां बांटने का आरोप लगाते हुए केन्द्र सरकार, चुनाव आयोग और आरबीआई से जवाब भी मांग लिया था लेकिन इसका फर्क पांच राज्यों के चुनाव में नहीं दिखा बल्कि पार्टियों ने दिल खोलकर घोषणाएं की हैं. सवाल है क्या चुनाव भावनात्मक मुद्दे, नेता और पार्टी से उठकर रेवड़ी राजनीति की तरफ मुड़ रहे हैं. खासकर विधानसभा चुनाव में यही प्रतीत हो रहा है क्योंकि बाकी सारे मुद्दे गौण होते जा रहे हैं.

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सवाल ये भी है कि रेवड़ी राजनीति की जरूरत क्यों पड़ी और क्यों वोटर मुफ्त राजनीति के दीवाने हो गये हैं. दरअसल, देश प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर दुनिया में 142वें नंबर पर है और फोर्ब्स वर्ल्ड की अरबपतियों की सूची 2023 दुनिया में अरबपतियों के मामले में भारत तीसरे नंबर पर है. इसी साल यूएनडीपी की रिपोर्ट के मुताबकि देश में गरीबी से 41.50 करोड़ लोगों को बाहर निकालने में भारत कामयाब हुआ है. हालांकि, 10 फीसदी लोगों के पास सबसे अधिक संपत्ति है. इस रिपोर्ट के मुताबिक 2005-2006 से 2019-2020 के बीच ये बदलाव देखा गया है जबकि नीति आयोग के मुताबिक वर्ष 2015-16 और 2019-21 के बीच गरीबी वाले व्यक्तियों की संख्या 24.85 प्रतिशत से गिरकर 14.96 प्रतिशत हो गई.

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रिपोर्ट के मुताबिक, गरीबी कम हुई है लेकिन जरूरतें पूरी नहीं हो रही है. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोरोना के समय से करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है और चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री ने इस योजना को 5 साल तक और बढ़ाने का ऐलान किया है और चुनाव के बीच ही केन्द्र सरकार ने किसान निधि सम्मान का पैसा भी वितरित कर दिया है. देश में रेवड़ी की राजनीति नई नहीं है लेकिन हाल के दिनों में इसका दायरा बढ़ता जा रहा है.

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सच्चाई यही है कि देश में बेहतरी ऊपर देखी जा रही है जबकि निचले स्तर पर इसकी धारा नहीं पहुंच रही है जबकि ट्रिकल डाउन थ्योरी कहती है कि अमीर वर्ग को ख्याल में रखने वाली नीतियां बनाने से अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी और इसका फायदा सबको होगा जिसमें गरीब भी है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. यही वजह है कि वोटर के एक बड़े वर्ग की आकांक्षा और जरूरत पूरी नहीं हो रही है, कृषि की जमीन घटती जा रही है और रोजगार नहीं मिल रहें हैं. यही वजह है कि वोटर मुफ्त की घोषणाओं की तरफ रूख कर रहें हैं.

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बदलते दौर में राजनीति बदल गई है, चुनावी घोषणा पत्र की जगह चटपटी रेवड़ी कल्चर हावी होती जा रही है. लिहाजा अरविंद केजरीवाल रेवड़ी की राजनीति के जरिए दिल्ली और पंजाब जीत चुके हैं. खासकर हाल के दिनों में मुफ्त बिजली और पानी इत्यादि चीजों का प्रचलन बढ़ा है.

कांग्रेस लगातार लोकसभा और विधानसभा चुनाव हार रही थी. कांग्रेस को बीजेपी के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीति की काट नहीं मिल रही थी तो कांग्रेस ने केजरीवाल के रेवड़ी मॉडल को अपनाने का फैसला किया. यही वजह रही है कि कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत मिली, मतलब इसी हथियार से आम आदमी पार्टी और बीजेपी को शिकस्त देने में वो कामयाब हुई और फिर इसी मॉडल को अभी हो रहे 5 विधानसभा चुनावों में अपनाने का फैसला किया. वहीं, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में करारी हार के बाद बीजेपी ने कांग्रेस को टक्कर देने के लिए मजबूरी में रेवड़ी राजनीति को ही विकल्प के तौर पर पेश करने का फैसला किया है.

गौर करने की बात है कि कई राज्यों में चुनाव के दौरान कर्ज लेने का सिलसिला जारी है. आरबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों पर उनके बजट का करीब 30 फीसदी कर्ज है. आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबकि राजस्थान पर 5,37, 013 करोड़ कर्ज हो चुका है. राजस्थान ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश पर भी 3 लाख 31 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है. वहीं छत्तीसगढ़ पर भी 89 हजार करोड़ का कर्ज है जबकि तेलंगाना पर करीब 3,66,607 लाख करोड़ का कर्ज है.

राज्य सरकार पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है लेकिन इसकी फिक्र किसी को नहीं है. जाहिर है पार्टी से लेकर वोटर तक रेवड़ी राजनीति में सराबोर है और संकेत यही मिल रहे हैं कि मुफ्त और वादे की राजनीति का सिलसिला अभी जारी रहेगा. अब देखना है कि किस पार्टी के चुनावी वादे वोटरों को लुभाते हैं और वे किस राज्य में किस पार्टी को हराते हैं और किसे जिताते हैं.

धर्मेन्द्र कुमार सिंह चुनाव और राजनीतिक विश्लेषक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.