जीवन से हार न मानने की कहानी : रस्किन बॉन्ड की ‘अपनी धुन में’

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Himanshu Joshi

किसी अपने का जाना कैसा होता है, अकेलापन क्या होता है? देहरादून में जब बर्फ गिरी थी, रस्किन अपनी मां को दिखाने के लिए बर्फ में ढके लीची के कुछ पत्ते ले गए थे. 'अपनी धुन में' किताब एक लेखक की भावुक कर देने वाली यात्रा है. इसके अनुवाद को भी भावुक कर देने वाली ऐसी लय में लिखा गया है, जिससे हर कोई इस किताब में खो जाएगा. किताब में फिल्मों के शौकीनों के लिए फिल्मों के नाम हैं, साहित्य के शौकीनों के लिए दुनियाभर के साहित्य की चर्चा है और जीवन में हार रहे लोगों के लिए रस्किन के हर बार हार कर फिर से उठ खड़े होने के किस्से. लेखक या बेहतरीन इंसान बनने की चाहत रखने वालों के लिए यह किताब एक खजाना है.

रस्किन बॉन्ड और उनकी आत्मकथा

'द रूम ऑन द रूफ', 'द ब्लू अम्ब्रेला' जैसी लोकप्रिय किताबें लिखने वाले पद्मश्री, साहित्य अकादमी फैलोशिप प्राप्त और इंग्लैंड से भारत लौटकर 'सांवले चेहरों की मुस्कुराहटें मेरी अपनी थीं' जैसी पंक्ति लिखने वाले मशहूर लेखक रस्किन बॉन्ड की आत्मकथा 'लोन फॉक्स डांसिंग' का हिंदी अनुवाद इसी साल राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया है और उसे नाम दिया गया है 'अपनी धुन में'. इसके अनुवादक प्रभात सिंह पत्रकार हैं और इससे पहले राजकमल प्रकाशन से आई 'धीमी वाली फास्ट पैसेंजर' किताब ने उन्हें साहित्य जगत में विशेष पहचान दिलाई थी.

अनुवादक की भूमिका और मूल भावना

किताब उसके मूल स्वरूप अंग्रेजी में मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन इसकी भूमिका में अनुवादक प्रभात सिंह ने जब लिखा, 'खुश होने के लिए मुझे कभी बहुत ज्यादा की दरकार नहीं रही. और बिना किसी पछतावे के मैं जिंदगी के इस पड़ाव तक आ पहुंचा हूं, जहां मैं एक बूढ़ा आदमी हूं, एक बूढ़ा लेखक.' तो किताब की उस मूल भावना से सीधा परिचय हो जाता है, जिसका स्वाद रस्किन बॉन्ड अपने पाठकों को देना चाहते हैं. यह भूमिका सिर्फ अनुवादक की नहीं, बल्कि एक लेखक की आत्मस्वीकृति जैसी लगती है.

मामूली आदमी की असाधारण कहानी

जैसा कि लेखक ने कहा है कि यह किताब एक मामूली आदमी, उसके दोस्तों और मामूली जगहों के बारे में उसके अनुभवों की दास्तान है, तो हम देखेंगे कि इसका हिंदी अनुवाद पाठकों तक यह दास्तान रोचक तरीके से पहुंचाता है या नहीं. लेखक इस किताब के माध्यम से बीते वक्त की तस्वीर हमारे सामने रखते हैं और सरल शब्दों के माध्यम से पाठकों के सामने वह तस्वीर बनती चली जाती है, 'हमारे घर में एक खूबसूरत ग्रामोफोन था, काला, चौकोर और अजूबे जैसा बॉक्स, जो मेरी आया के अलावा शायद मेरी जिंदगी का पहला प्यार था.' इस तरह यह किताब एक मामूली आदमी की असाधारण कहानी बन जाती है, जो हर पाठक को अपनी यात्रा का हिस्सा बना लेती है.

किस्सागोई और रिश्तों की गहराई

इसी तरह उन्हें किस्सागोई में महारथ हासिल दिखाई पड़ती है. अपने बचपन के किस्सों को लिखते वह पाठकों को किताब पढ़ने में मशगूल कर देते हैं 'सांप शायद ही कभी घर में दाखिल होते थे, क्योंकि घर में जाने के लिए उन्हें कई सीढ़ियां चढ़नी पड़तीं.' इस किस्सागोई के साथ लेखक अपने बालमन से रिश्तों की पहचान को भी लिखते हैं, जैसे वह अपनी आया के साथ अपने प्रेम भरे रिश्ते को विस्तार देते हैं, वहीं अपने माता पिता से दूरी को भी किताब में जगह देते हैं. साथ में अपने माता-पिता के आपसी रिश्तों पर भी उन्होंने लिखा है, 'मेरे मां-पिता अक्सर झगड़ते थे. इसकी एक वजह तो उम्र और स्वभाव का अंतर था, जो प्यार का तूफान गुजर जाने के बाद सामने आया.' रिश्तों की इस गर्माहट को अनुवादक ने पूरी तरह से बनाए रखा है. जैसे कि वह लिखते हैं, 'उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मेरे बाल सहलाए.'

देहरादून, दिल्ली और बदलता समय

किताब में कई जगह इतिहास से जुड़ी जरूरी बातें भी लिखी गई हैं, जिनकी तुलना वर्तमान से की जा सकती है. देहरादून के भूतकाल और वर्तमान को उन्होंने कुछ इस तरह लिखा है, 'भव्य और विशाल हिमालय के पहाड़ों के साये में आबाद बगीचों वाला सुंदर शहर देहरादून.'

देहरादून के साथ किताब में दिल्ली से उनका प्रेम भी दिखता है, जब सिनेमाघरों पर वह लिखते हैं, 'किसी दिन इसे ढहा दिया जाए तो मुझे कोई हैरानी नहीं होगी, पर अगर ऐसा होता है तो खुदा के लिए कोई मुझे न बताए.'

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शहर की पहचान को उन्होंने कुछ इस तरह लिखा, 'सेना, रेलवे और पुलिस से रिटायर होने वालों के लिए यह एक माकूल शहर था'. यह लिखते शायद उन्हें अंदाज हो गया होगा कि कई सालों तक देहरादून की यही पहचान रहने वाली है. 'गांव के ज्यादातर इलाकों में अब बिल्डरों की बादशाहत है' लिखते हुए वह बदले हुए देहरादून के बारे में भी लिखते हैं.

बचपन, पिता और आत्मीयता

किताब में लेखक ने अपने खत्म होते बचपन को जिस तरह लिखा है, उसे पढ़ते पाठकों को उनके साथ सहानुभूति होने लगती है. 'जामनगर वाली मेरी आया के गुदगुदे हाथों से नहाने के दिन बीत गए थे.'

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पिता-पुत्र के रिश्ते पर यह जीवनी बहुत कुछ सिखाती है. एक पिता के भेजे पोस्टकार्ड का बच्चे पर कितना असर पड़ता है, यह हम इस जीवनी में पढ़ते हैं. रस्किन बॉन्ड लिखते हैं, 'स्कूल में मेरी ऊब और बेचैनी के बीच मेरे पिता के भेजे हुए रंगीन पिक्चर पोस्टकार्ड बहुत राहत देते थे.'

अनुवाद की सहजता और भाषा का प्रवाह

अनुवादक ने बड़े ही बेहतरीन ढंग से रस्किन बॉन्ड के लेखन की सरलता को हिंदी में उतार लिया है. जानवरों, पक्षियों के साथ रस्किन बॉन्ड ने बहुत नजदीक से अपना रिश्ता लिखा है और अनुवाद में भी हमें यही करीबी रिश्ता पढ़ने के लिए मिलता है, 'आप सांपों, चूहों, छिपकलियों और चमगादड़ों से बचाव कर सकते हैं, मगर चींटियों का ज्यादा कुछ नहीं कर सकते.' अपनी बिल्ली 'सूजी' के बारे में लेखक ने बड़े ही शानदार ढंग से लिखा है, जिसके लिए वह लिखते भी हैं कि 'उसके बारे में थोड़ा ढंग से बताना जरूरी होगा.'

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जीवन की कठिनाइयां और संवेदनशीलता

सबसे कठिन दौर के संवेदनशील किस्से को भी अनुवादक ने उसी मर्म से पाठकों तक पहुंचाया है, जिस मर्म को रस्किन अंग्रेजी संस्करण में पाठकों तक पहुंचाना चाहते होंगे. 'डैडी की मृत्यु का कोई हकीकी, कोई अनुभूत्य साक्ष्य नहीं होने की वजह से मेरे लिए यह मृत्यु नहीं, उनका अलोप हो जाना था.'

किताब में हम पढ़ते हैं कि कैसे माता-पिता के अलगाव से प्रभावित हुआ एक बच्चा लेखक बन रहा है और अपने साथ होने वाली घटनाओं से प्रभावित होकर ही उसकी कहानियां उसके मन में जगह ले रही हैं. एक जगह वह लिखते हैं, 'एक बहिष्कृत और एक अर्ध अनाथ... यही अनुभव मेरी पहली कहानी का आधार बना.'

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समय, स्मृति और लेखकीय दृष्टि

किताब बच्चे से बुजुर्ग होते रस्किन की आत्मकथा है, जो शिमला, देहरादून, दिल्ली, मसूरी में बिताए जीवन के किस्सों को तो लिखती ही है, साथ में तब विश्व में घटित होने वाली घटनाओं से भी पाठकों को परिचित करवाती है. यह किस्सागोई काफी सरलता के साथ बयान की गई है. जैसे 'जापानी प्रतिरोध भयंकर था, उनके कमिकाजे (आत्मघाती) पायलट अमेरिकी विमानवाहक जहाजों के डेक पर अपने विमान क्रैश कर रहे थे.'

अपने पहाड़ प्रेम को वह इस तरह लिखते हैं, 'समुद्री हवाओं का मजा लेना मुझे चाहे जितना अच्छा लगता हो, पर देवदारों को छोड़ने के लिए मैं तैयार न था.'

किशोर मन, पश्चिमी जीवन और अनुभव

इंग्लैंड पहुंचकर वयस्क हो रहे रस्किन ने किशोरों की मनोस्थिति को हूबहू लिखा है, यह सब पढ़ने में हर किसी को अपनी कहानी जैसा ही लगेगा. 'फिर मैं किशोर उम्र वाले प्रेम की हद से आगे निकल आया था, इसलिए रूमानी या....'

लेखक ने किताब में पश्चिमी साहित्य की खूब बात भी की है. भारत में रहे ब्रिटिश जड़ों वाले लोगों के जीवन के बारे में भी हमें जानकारी मिलती है. पाठकों के लिए यह अनुभव कुछ अलग सा है, जिसमें वह पश्चिम की संस्कृति से भी रूबरू होंगे,'अंग्रेजी कौम अगर संकोची थी तो मैं महासंकोची था.'

प्रकृति और भाषा की सुंदरता

पहाड़ की खूबसूरती को भी इस अनुवाद में जीवंत अंदाज में लिखा गया है जैसे- 'चीड़ की पत्तियों की खुशबू, हिमालयी बुलबुलों की खुशनुमा आवाज, नंगे पांवों के नीचे घास की नर्मी का अहसास और झींगुरों का मद्धिम संगीत.'

किताब में कुछ स्थानों पर अर्द्धविराम के प्रयोग से जुड़ी त्रुटियां ध्यान खींचती हैं. इसके साथ पृष्ठ संख्या 129 पर 'होटल की तनख्वाह मामूली ही थी, जिसमें किसी तरह गुजारा हो सकता था, एलेन के लिए रॉयल एयरफोर्स से मिलनेवाले भत्ते के बावजूद था' वाक्य पढ़कर लगता है कि किताब में सही तरह से प्रूफरीडिंग की कमी रह गई है.

'वह उस सैलून में रियाज करती, जहां एक पियानो रखा हुआ था, जबकि बाहर पहलवानों का हुल्लड़ चल रहा होता' इस तरह बिल्कुल आंखों देखा हाल बताकर अनुवादक ने रस्किन की तरह ही पाठकों को किताब का हिस्सा बना दिया है.

जीवन से न हारने का हौसला

'उस खराब मौसम में कुदरत ने मुझे जो हौसला दिया, उसी के बूते मैंने उसी समय फैसला कर लिया...' एक लेखक के इस तरह के विचार पाठकों को जिंदगी से हार न मानने का हौसला देते हैं. रस्किन बॉन्ड की यह आत्मकथा सिर्फ यादों की किताब नहीं, बल्कि समय और संवेदना की एक गहरी यात्रा है, जिसे प्रभात सिंह ने 'अपनी धुन में' अनुवाद कर सचमुच जीवंत बना दिया है.

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