अतुल सुभाष सुसाइड केस : मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक संवेदनशीलता जैसे कई सवाल

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अतुल सुभाष सुसाइड केस ने पुरुषों के खिलाफ हिंसा और महिलाओं के अधिकारों के लिए बनाए गए कानूनों पर नई बहस छेड़ दी है. बिना कोर्ट का फैसला आए जिस तरह निकिता को दोषी मान लिया गया है, उससे भी हमारी सामाजिक संवेदनशीलता पर सवाल उठ खड़े हुए हैं.

बढ़ती आयु के साथ अधिक हिंसा का सामना करते पुरुष

अतुल सुभाष सुसाइड केस में रोज़ नए खुलासे हैं, आरोपी पत्नी निकिता के अपने पक्ष में कहे गए बयान भी सामने आने लगे हैं. इस सुसाइड के बाद से भारतीय समाज में पुरुषों के खिलाफ हिंसा और उस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता भी महसूस की जाने लगी है. आंकड़े भी पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मुद्दे पर नई बहस करने पर ज़ोर देते हैं.

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से साल 2023 में प्रकाशित रिसर्च आर्टिकल 'प्रिवेलेंस एंड रिस्क फैक्टर्स ऑफ फिजिकल वॉयलेंस अगेंस्ट हसबैंड्स: एविडेंस फ्रॉम इंडिया' के अनुसार साल 2015-2016 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-4) से प्राप्त आंकड़ों में नज़र डालें तो विवाहिता महिलाओं में से 29 प्रति 1000 महिलाएं अपने पति पर शारीरिक हमले के रूप में वैवाहिक हिंसा कर रही थीं, जब वह पहले से उन्हें पीटने या शारीरिक रूप से नुकसान पहुँचाने में संलिप्त नहीं थे. यह आंकड़ा NFHS-3 (2005-2006) में 7 प्रति 1000 था, जो NFHS-4 में बढ़कर 29 प्रति 1000 हो गया. रिसर्च आर्टिकल के अनुसार भारत में पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मुद्दे पर और अधिक शोध की आवश्यकता है ताकि मर्दानगी की परिभाषा को फिर से निर्धारित किया जा सके. महिलाओं पर होने वाली हिंसा के विपरीत, जो आयु के साथ घटती है, पुरुषों को आयु के साथ अधिक हिंसा का सामना करना पड़ता है. यह भारत में महिलाओं के अनुभवों से पूरी तरह विपरीत है.

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लड़कियां भी अब अपने अधिकारों का ग़लत फ़ायदा उठाती हैं. अभी तक जितनी जानकारी सामने आई है, उससे तो यही लगता है कि अतुल के मामले में भी वही हुआ है- सुरेंद्र कुमार आहलूवालिया, वकील

भागदौड़ भरी जिंदगी में सुकून के पल जरूरी हैं

पुरुषों के खिलाफ बढ़ती हिंसा और उनके मानसिक स्थिति पर हमने कानून और मनोविज्ञान के कुछ विशेषज्ञों से बातचीत की. दिल्ली में रहने वाली अंकिता जैन एक मनोचिकित्सक हैं और अपने क्षेत्र में उन्हें 14 साल का अनुभव हैं. अतुल सुभाष केस पर वह कहती हैं कि आजकल का युवा अंदर से बेहद कमजोर पड़ता जा रहा है, उसकी सहनशक्ति समाप्त हो रही है. इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जिसमें सबसे मुख्य कारण परिवारों का अलग थलग हो जाना है. पुराने परिवारों में एक ही घर के अंदर 15-20 या उससे भी अधिक लोग रहते थे और वह एक दूसरे के साथ अपनी समस्याओं को साझा करते थे. लेकिन आज कल की पीढ़ी सोशल मीडिया के दोस्तों के साथ ही उलझी हुई है, उनके सोशल मीडिया में हजारों की संख्या में दोस्त होते हैं पर साथ रहने वाला कोई नहीं होता. इस कारण युवाओं का यह अकेलापन धीरे धीरे डिप्रेशन में बदल जाता है और उसका स्तर इतना बढ़ जाता है कि वह आत्महत्या जैसा कठोर निर्णय ले लेते हैं. उन्हें अपने परिवार के साथ हमेशा सम्पर्क में रहना होगा. अपनी बात आगे बढ़ाते अंकिता कहती हैं कि आजकल युवाओं के पास एक पूरे दिन में पाँच मिनट भी अपने लिए नहीं है, जिसमें वो ख़ुद के बारे में भी सोच सकें. छोटी-छोटी बातों पर रिएक्ट करना या बिना सोचे समझे कोई भी एक्शन लेना, इसका नतीजा ही है. योग और एक्सरसाइज के जरिए इस भागदौड़ भरी जिंदगी में सुकून खोजा जा सकता है.

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'घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005' का दुरुपयोग

चन्दन कुमार मिश्रा सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं, अतुल के केस पर वह कहते हैं कि पिछले 15 सालों में पुरुषों से जुड़े पारिवारिक मामलों में बहुत बदलाव देखने को मिले हैं. साल 2006 में 'घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005' पारित हुआ. इस क़ानून के बाद महिलाएं अपने हक़ की लड़ाई लड़ने में सक्षम हैं लेकिन वह इसका दुरुपयोग भी करने लगी हैं. ऐसे कई मामले देखे जाते हैं जिनमें लड़का और लड़की पहले लव मैरिज करते हैं और फिर जब लड़की को लड़के के साथ नहीं रहना होता तो वह लड़के के परिवार पर घरेलू हिंसा का झूठा आरोप लगा देती है. 
चंदन कहते हैं कि इस अधिनियम के तहत, कई मामलों में जमानत मिलना मुश्किल होता है, जिससे पुरुषों को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ सकता है, भले ही वे दोषी साबित न हुए हों. इस कारण पुरुषों के पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर बुरा असर पड़ता है.

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बिना कोर्ट का फैसला आए निकिता को दोषी कह देना ठीक नही है

दिल्ली के ही सुरेंद्र कुमार आहलूवालिया आपराधिक वकील हैं और लगभग पचास वर्षों से इस पेशे में हैं. वह कहते हैं कि लड़कियां भी अब अपने अधिकारों का ग़लत फ़ायदा उठाती हैं. अभी तक जितनी जानकारी सामने आई है, उससे तो यही लगता है कि अतुल के मामले में भी वही हुआ है. सुरेंद्र यह भी कहते हैं कि कोर्ट में यह साबित होगा कि निकिता सही है या गलत, हमें मीडिया ट्रायल से बचना होगा और बिना कोर्ट का फैसला आए निकिता को दोषी कह देना ठीक नही है. सोशल मीडिया में इस केस से जुड़ी पोस्टों को देखकर तो ऐसा लग रहा है, जैसे बिना कोर्ट के फैसले के ही निकिता दोषी साबित हो गई हैं.

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पायल दिल्ली से हैं और जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता रिसर्च स्कॉलर हैं. वह कई समाचार पत्र- पत्रिकाओं से जुड़ी रही हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.