This Article is From Mar 11, 2022

अलग-अलग नायकों के सहारे पंजाब में AAP और यूपी में BJP

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Ravish Kumar

ये ऐसा चुनाव रहा कि जो अक्सर ग़लत हो रहे थे, वो सही हो गए. उनके ग़लत होने का इतिहास इतना लंबा और हाल-फिलहाल का था, उनके सही होने पर उनका ख़ुश होना लाज़िमी है. मैं एग्ज़िट पोल वालों की बात कर रहा हूं. 12 एग्ज़िट पोल ने यूपी में बीजेपी की जीत की भविष्यवाणी कर दी थी. शायद यह पहली बार हुआ है कि सभी 12 सही हो गए हैं. नंबर के मामले में भले कोई आगे पीछे रह गया हो, लेकिन यूपी के मामले में जीत के आंकड़े को लेकर एक दर्जन एग्ज़िट पोल वाले जीत गए है. इस चुनाव में लगता है कि बीजेपी के साथ साथ एग्ज़िट पोल ने भी एंटी इंकम्बेंसी का मुकाबला किया है. इस बात की पूरी संभावना है कि अगले चुनाव में ग़लत होने तक इन्हें काफी गंभीरता से लिया जाएगा और अगर फिर सही हो गए तो उसके अगले चुनाव तक. बड़ी जीत के सामने मुद्दों के खत्म हो जाने की भविष्यवाणी से अभी बचिए क्योंकि मुद्दे ख़त्म नहीं होते. यूपी में योगी की इस एतिहासिक जीत के बाद 2024 में वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं या किसी के लिए चुनौती बन सकते हैं, ऐसी समीक्षाओं से कुछ समय के लिए बचिए. 

इससे ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी ने कहा हो कि वे 2024 का चुनाव नहीं लड़ेंगे. पन्ना भरने वाली समीक्षाओं से वक्त बर्बाद होता है. संभवनाएं कुछ भी हो सकती हैं, लेकिन कम से कम उसके लिए आज का दिन नहीं है. आप याद कीजिए 2021 में बंगाल में ममता बनर्जी ने बीजेपी को भारी शिकस्त दी तो समीक्षा चालू हो गई कि 2024 के लिए ममता ही चेहरा हैं. ममता के सामने बीजेपी ढेर हो गई थी तो ममता को भी लगा और उन्हें लेकर कहा भी जाने लगा कि कांग्रेस से कुछ नहीं होगा. ममता से होगा. मेघालय में कांग्रेस के 12 विधायक तृणमूल में चले गए. असम और गोवा से कांग्रेस के नेताओं को राज्यसभा भेज दिया गया. गोवा और मणिपुर विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस न बीजेपी को हरा सकी और न कांग्रेस का विकल्प बन सकी. कांग्रेस भी हार गई. 

आज यूपी और पंजाब के नतीजों के सामने बंगाल को भुला दिया गया है. हमने ममता की कहानी आज के दिन इसलिए याद दिलाई ताकि आप समीक्षाओं के बहाव में न बह जाएं. उस समय ममता के 2024 में चेहरा होने को लेकर कितने ही लेख लिखे गए, लेख वही हैं बस अब उनका नाम हटा कर केजरीवाल और योगी का नाम लिख कर लेखों की सप्लाई हो रही है. 2024 में चेहरा खोजने वाले इतना खोज रहे हैं कि न केवल विपक्ष में बल्कि बीजेपी में भी खोज रहे हैं. इस तरह के खोजकर्ताओं से दूर रहिए. वैसे पिछले महीने केजरीवाल ने कह दिया था कि वे 2024 का चेहरा नहीं हैं, लेकिन उनकी पार्टी ने पंजाब में भारी जीत के बाद की पहली प्रतिक्रियाओं में विपक्ष के स्पेस में पहले नंबर पर होने की दावेदारी की बात ज़रूर की, ठीक यही बात ममता बनर्जी कर रही थीं. आम आदमी पार्टी ने पंजाब में कमाल किया है, लेकिन उत्तराखंड और गोवा में उसके मुख्यमंत्री के उम्मीदवार भी हार गए. 

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राजनीतिक समीक्षाओं को अक्सर चेहरे के आस-पास रखने से काम आसान हो जाता है. इससे जिनका चेहरा होता है उनकी सेवा भी हो जाती है और चेहरा-चेहरा करने वालों का चेहरा भी चमक जाता है. आप उन चेहरों को नहीं जानते हैं जिन्होंने पंजाब में 92 साल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को हरा दिया. आप उस चेहरे को भी नहीं जानते हैं जिन्होंने उनके बेटे पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को हरा दिया. आप उस चेहरे को भी नहीं जानते हैं जिन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को हरा दिया. इसी तरह एक और पूर्व मुख्यमंत्री राजेंद्र कौर भट्टल चुनाव हार गई हैं. पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को हराने वाले लाभ सिंह उगोके 35 साल के हैं और 12 वीं पास हैं. उनके पिता ड्राइवर हैं और मां सरकारी स्कूल में सफाई कर्मी हैं. उगोके मोबाइल फोन रिपेयर करने की दुकान चलाते हैं. पंजाब में हेविवेट शब्द जिनके लिए रिज़र्व था वो आज की शाम लाइट-वेट होकर हवा में तैर रहे हैं. मेरठ की चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई करने वाली जीवन ज्योत कौर ने नवजोत सिद्धू और मजीठिया को हरा दिया है. 

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उत्तराखंड में मुख्यमंत्री और बीजेपी का चेहरा पुष्कर सिंह धामी चुनाव हार गए हैं और मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हरीश रावत भी हार गए हैं. इसलिए 2024 का चेहरा खोजने के बजाए 2022 में जो चेहरे गायब हो गए उन पर नज़र रखनी चाहिए ताकि राजनीति को कुछ उम्मीद से और कुछ हौसले से देखा जा सके. राजनीति संभावनाओं की सीढ़ी है. गिर कर भी उसी पर चढ़ना होता है औऱ चढ़ने के बाद भी उसी से फिसलने का चांस रहता है. पंजाब में राजनीतिक रिश्तेदारियां इतनी गहरी हो गई थीं कि समधी कांग्रेसी है और बेटा अकाली में. फर्क करना मुश्किल हो जाता था कि कौन सी बस किस पार्टी की है. पैसे से वोट खरीद लेने का हौसला रखने वाले कई नेताओं के पैसे डूब गए. 

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पंजाब में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस, अकाली दल, बीजेपी को नहीं हराया बल्कि इन दलों में वर्षों से दिग्गज बन कर बैठे कुबेरों को भी साफ कर दिया. क्या यह उम्मीद का दिन नहीं है कि अब भी कोई चाहे तो पैसे वाले को हरा सकता है. भले ही आम आदमी पार्टी की तरह के कई उम्मीदवार दूसरे राज्यों में हार गए हों. पंजाब के ही लोग कहते थे कि आप नज़र नहीं आती. मतलब पार्टी नहीं है. लोग नहीं हैं. कार्यकर्ता नहीं हैं. नेता नहीं हैं. यह बातें कुछ हद तक सही हो सकती हैं, लेकिन पार्टी अब मुख्यालय से नहीं जानी जाती है और न वहां से चलती है. मुख्यालय अब पार्टी का ठिकाना नहीं रहा. जिन दलों के मुख्यालय थे उन दलों का क्या हाल हुआ है सबने देखा. 42 प्रतिशत से अधिक वोट. 90 सीटें. आम आदमी पार्टी के सामने कोई नहीं टिका है. 

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पंजाब के नए मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने कहा है कि सरकारी दफ्तरों में मुख्यमंत्री की तस्वीर नहीं होगी. बाबा साहब अंबेडकर की होगी और शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की तस्वीर लगेगी. आप ने ट्वीट किया है कि बाबा साहब और शहीद भगत सिंह का सपना पूरा करेंगे. केजरीवाल के सामने जब जब धर्म का मुद्दा लाया गया है. केजरीवाल ने अपने हिसाब से उसका सामना किया है. 2020 में नागरिकता कानून के नाम पर केजरीवाल को हराने का जाल बुना गया, जो कानून आज तक लागू नहीं हुआ, लेकिन उससे माहौल में तपिश पैदा की गई, दिल्ली जल गई, केजरीवाल ने खुद को हनुमान भक्त बोल कर, जय बजरंगबली बोल कर बचा लिया. हनुमान चालीसा का पाठ पढ़कर सुना दिया. तब आम आदमी पार्टी के विधायक सौरव भारद्वाज ने ट्विट किया था कि हर महीने के मंगलवार को सुंदर कांड का पाठ अलग अलग इलाकों में होगा. इसके बारे में ताज़ा जानकारी नहीं है, लेकिन इस दिलचस्प प्रसंग का एक खास मतलब है. पंजाब की जीत के बाद मुख्यमंत्री केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया कनाट प्लेस के हनुमान मंदिर में गए और पूजा की. 

इस चुनाव में कमाल की बात यह हुई कि केजरीवाल को कहना नहीं पड़ा कि वे बजरंगबली के भक्त हैं जबकि अमित शाह यूपी में अखिलेश को बाहुबली और अपने पक्ष को बजरंगबली बता रहे थे. केजरीवाल ने अपनी मेट्रो के लिए एक नई पटरी बिछा दी जिसके बारे में बीजेपी को भी पता नहीं चला होगा और न कांग्रेस को. ऐसा नहीं है कि वे हनुमान चालीसा भूल गए बल्कि अयोध्या तक तीर्थयात्रा की ट्रेन चलवा दी. जिस वक्त लग रहा था कि केजरीवाल बीजेपी की किताब से पन्ने चुरा रहे हैं उसी वक्त केजरीवाल पंजाब में दो ऐसे नायकों को अपनी पार्टी के आदर्श नायक के रूप में स्थापित कर रहे थे जिसके बारे में न भाजपा सोच पाए और न बसपा. 

मुझे पता है कि इस वक्त यूपी में योगी की जीत को लेकर सारे विशेषज्ञ ज्ञान दे रहे होंगे कि मोदी की इस राजनीति का किसी के पास जवाब नहीं हैं. दिसंबर के महीने में काशी विश्वनाथ कोरिडोर का उद्घाटन का किया जाता है और यूपी चुनाव में इसे एक ऐसे काम के रूप में प्रचारित किया गया, जो केवल भाजपा ही कर सकती है. पूर्वांचल में मतदान से पहले काशी कोरिडोर में प्रधानमंत्री ने रोड शो भी किया. आज हर कोई कहेगा कि प्रधानमंत्री ने हिन्दुत्व और विकास का नया मॉडल पेश किया है, किसी भी लिहाज़ से यह नया मॉडल तो नहीं है, लेकिन सफल ज़रूर है. हर कोई हारे हुए दलों को कह रहा होगा कि उन्हें जीतना है तो मोदी की तरह धर्म की भाषा लानी होगी. 

ठीक इसी समय में पंजाब में केजरीवाल अपने लिए उन नायकों को चुन रहे थे जिनका संबंध धर्म को लेकर बिल्कुल अलग रहा है. प्रचार के दौरान भगवंत सिंह मान ने कहा कि बटन दबाने से पहले अपनी आंखें बंद करके शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और बाबा साहिब अम्बेडकर के बारे में ज़रूर सोचना कि अगर वो आज होते तो किसे वोट देते. पंजाब के सरकारी दफ्तरों में बाबा साहब अंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीर होगी, मुख्यमंत्री की नहीं. शपथ ग्रहण समारोह भगत सिंह के गांव खटकर कलां में होगा, राज भवन में नहीं. भगवंत मान ने कहा है. एक साथ दो दो नायकों को जगह देने की राजनीति को फार्मूले की निगाह से भी देखें तो यह नया फार्मूला है. जिस वक्त केजरीवाल को इस संदेह से देखा जा रहा है कि वे कहीं नरम हिन्दुत्व टाइप की राजनीति की राह तो नहीं पकड़ रहे. उसी वक्त वे बाबा साहब अंबेडकर और शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की बात कर रहे हैं. दोनों ही नायकों का संबंध इस बात से है कि धर्म के नाम पर दिमाग़ नहीं बंद कर देना चाहिए. भगत सिंह का तो लेख ही है कि मैं नास्तिक क्यों हूं. सरदार भगत सिंह ने लिखा है कि इंसानी इल्म की सीमाओं या कहें कि इंसानी कमज़ोरियों का नतीजा है धर्म. डॉ अंबेडकर का ही विचार है कि धर्म में भक्ति भले ही मुक्ति का मार्ग हो सकती है, लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक पूजा तानाशाही का रास्ता साफ कर देती है. 

जिस वक्त समीक्षक योगी आदित्यानाथ को आगे कर यह बता रहे होंगे कि आप धर्म के बिना राजनीति नहीं कर सकते उसी वक्त इसी देश में केजरीवाल दो ऐसे नायकों को आगे करते हैं जो धर्म को अलग नज़रिए से देखते हैं. 
भगत सिंह ने कहा था कि तरक्की के लिए खड़े हर व्यक्ति के लिए ज़रूरी है वह अपनी पुरानी आस्थाओं पर सवाल करे. '
जब तक हिन्दुस्तान रहेगा, बाबा साहब का नाम रहेगा.' अंबेडकरी राजनीति की धारा में भीम गीत की परंपरा है. भीम गीतों में संविधान को लेकर गीत गाए जाते हैं. मेरी जानकारी में दुनिया में शायद यह अकेली ऐसी परंपरा है जिसमें संविधान की किताब को लेकर गाने गाए जाते हैं. बसपा की राजनीति के ईर्द गिर्द ऐसे गीत खूब रहे हैं, लेकिन आज बसपा का पंजाब और यूपी में क्या हश्र हुआ है, चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन 2014 के बाद अंबेडकर को बीजेपी भी अपना आदर्श बनाती है. खूब कार्यक्रम होते हैं और अंबेडकर जयंती के मौके पर भीम एप तक लांच करती है. 2016 में अंबेडकर जयंती पर ग्रामीण विकास के लिए ग्राम उदय से भारत उदय मिशन लांच करती है. केजरीवाल इस चुनाव में बीजेपी की इस दावेदारी में हिस्सेदारी के लिए कदम बढ़ा देते हैं. कांग्रेस चन्नी को दलित चेहरा बनाती है, लेकिन तब तब देर हो चुकी होती है. कांशीराम के बाद डॉ अंबेडकर की विरासत पर नए तरीके से दावेदारी करने के बारे में किसी भी दल ने इस तरह से नहीं सोची और न सफलता पाई होगी. 

भारत की राजनीति में ये सभी स्थापित आदर्श और पूजनीय हैं, लेकिन केजरीवाल ने इन्हीं स्थापित आदर्शों के ज़रिए पंजाब में अपनी राजनीति को नया आधार दे दिया, इसे बदलाव के साथ साथ नए प्रयोग के रूप में देखा जाना चाहिए. अन्ना आंदोलन और लोकपाल के समय गांधी और सत्याग्रह का चेहरा बने तो पंजाब तक पहुंचते-पहुंचते डॉ अबेंडकर और भगत सिंह भी जुड़ गए. इसका मतलब है कि कोई भी आदर्श किसी भी दल की निजी विरासत नहीं है. यह बात हो सकती है आप ने बीजेपी से सीख ली हो. जब बीजेपी ने गांधी के सच्चे सेवक और नेहरू के मित्र, सहयोगी पटेल को अपना आदर्श बना लिया तो भगत सिंह और डॉ अंबेडकर केजरीवाल के क्यों नहीं हो सकते. आज भी पंजाब में जगह जगह शहीद-ए-आज़म की तस्वीर दिखती है. घरों के ऊपर उनकी मूर्ति बनी हुई है और कारों के पीछे स्ट्रिकर. 

बदलाव यूपी में भी बड़ा हुआ है. यहां बीजेपी ने केवल बाबा विश्वनाथ को अपना प्रतीक और आदर्श नहीं बनाया बल्कि  बुलडोज़र भी बीजेपी का प्रचारक बन कर एक ऐसी कानून व्यवस्था की स्थापना की बात कर रहा था जिससे बाहुबल की झलक ज्यादा मिलती है. बीजेपी ने जो चुना यूपी की जनता ने उसे चुना. 2014 के बाद से यूपी में यह चौथा चुनाव है, चारों चुनाव में बीजेपी ने साबित किया है कि यूपी भाजपा प्रदेश है. यूपी में भाजपा को टक्कर देने की ताकत किसी में नहीं. यह ज़रूर है कि अखिलेश यादव ने अपनी तमाम सीमाओं के बाद भी 127 सीटें हासिल की हैं. बीजेपी के सामने इतनी सीटें लाना आसान नहीं है, लेकिन सरकार नहीं बना पाना एक बड़ा झटका है. अखिलेश केजरीवाल की तरह नए प्रतीकों के साथ प्रयोग नहीं कर सके, लेकिन उनके मुद्दे भी वही थे जो पंजाब में केजरीवाल के थे. यूपी में रोज़गार, महंगाई और आरक्षण के साथ अन्याय के सवाल पर उन्हें वोट तो खूब मिला मगर सत्ता नहीं मिली. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जनता के साथ साथ प्रधानमंत्री के नेतृत्व के प्रति आभार प्रकट किया है. सपा कई जगहों पर कम अंतरों से हारी, लेकिन ऐसे आंकड़े समीक्षकों के काम आएंगे, सपा के नहीं. 

आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने भी माना कि आसान नहीं है यूपी में धर्म के बिना राजनीति करना. 2007 में जब मायावती को बहुमत मिला तब अखबारों और पत्रिकाओं में कवर स्टोरी छपती थी कि मायावती देश की प्रधानमंत्री हो सकती हैं. आयरन लेडी हैं. यूपी में जब कांशीराम का प्रयोग सफल हुआ तब पूछा जाता था कि यूपी की तरह पंजाब में क्यों नहीं. सफल हो रहा है वहां तो देशभर में सबसे अधिक दलित हैं, आज यूपी में बसपा ज़ीरो सी हो गई है. यूपी में डॉ अंबेडकर को नायक मानने वाली पार्टी खत्म हो गई है तो पंजाब में डॉ अंबेडकर को एक नई पार्टी मानने लगी है उसकी सरकार बन रही है. क्या आपको भारत की राजनीति की यह कहानी दिलचस्प नहीं लगती है. सात दिन पहले मायावती ने कहा था कि बसपा को पूर्ण बहुमत मिलेगा. उसकी कहानी यूपी में खत्म हो गई. यूपी में यह चौथा चुनाव है जब बसपा कांग्रेस की तरह चरमरा गई है. इसलिए समीक्षकों से सावधान रहने को कहा कि आज जो हुआ है उसके बहुत से किस्से हैं. आगे वैसा होगा ज़रूरी नहीं, लेकिन आज जो हुआ है उसे जान लेने में नुकसान नहीं है. 

लखीमपुर खीरी में जहां थार जीप ने किसानों को कुचल दिया उस इलाके में बीजेपी ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया. हाथरस और उन्नाव में भी जहां की बलात्कार की घटनाओं ने झकझोर दिया था. उन्नाव में बीजेपी को 50 प्रतिशत से अधिक मत मिले हैं तो हाथरस में 59 प्रतिशत से अधिक मत. चुनाव में बीजेपी को 44 प्रतिशत से अधिक मत मिलते नज़र आ रहे हैं. 2017 की तुलना में 5 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करना कोई सामान्य सफलता नहीं है. साफ है कि यूपी में बीजेपी की लहर थी. बेशक सपा और गठबंधन ने 36 फीसदी मत हासिल कर पहाड़ की चढ़ाई की है, लेकिन माउंट एवरेस्ट पर झंडा नहीं फहरा सके. सीटों की संख्या औऱ मतों के प्रतिशत में बदलाव होता रहेगा, लेकिन हम अभी के हिसाब से बता रहे हैं. जीत से उत्साहित बीजेपी ने कहा है कि होली से पहले सौगात मिलेगी. बीजेपी की राजनीति के लिए लाभार्थी एक नई श्रेणी तो नहीं है, लेकिन इस श्रेणी ने इस बार बीजेपी के लिए नई कहानी ज़रूर लिख दी है. हैरानी की बात है कि चुनाव के कई चरण समाप्त होने के बाद लोगों का ध्यान महिला वोटर की तरफ गया जबकि इसके बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने नवंबर 2020 में ही बता दिया था. तब बिहार का चुनाव हुआ था. साइलेंट वोटर की पहचान उन्होंने बता दी थी. तब भी उनके विरोधी बीजेपी के इस आधार को पकड़ने औऱ उससे संवाद करने में सफल नहीं हो सके. 

राजनीति पर नज़र रखनी है तो सिर्फ आज और आगे की नहीं, पीछे की कहानी भी याद रखा कीजिए, इसकी कहानी फिल्म की तरह हर सीन के साथ बदलती नज़र आएगी और साथ साथ चलती नज़र आएगी. इस वक्त तक नतीजे आ रहे हैं तो सीटों की संख्या में बदलाव हो सकता है. लखनऊ बीजेपी का दफ्तर आज नए उत्साह से भर गया है.  बीजेपी के लिए केवल यूपी से खबर नहीं है बल्कि गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में सरकार बना रही है. इन चारों जगहों पर बीजेपी एंटी इंकम्बेंसी को मात देकर सत्ता में दोबारा पहुंच रही है. आज की जीत बंगाल की हार की टीस से उबरने में मदद कर रही है, लेकिन आज एक साथ यूपी सहित चार-चार राज्यों में शानदार प्रदर्शन करने के जश्न को होली में बदल रहा है. यह जीत अगर मगर, इतना रह गया या उतना हो जाता से मुक्त जीत है. ज़ाहिर है सारा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाएगा और प्रधानमंत्री सारा श्रेय सभी कार्यकर्ताओं को देंगे.  2019 के नतीजे के बाद पोलटिकल ज्ञानियों ने कहा था 2019 का जीत का क्या है यह तो 2017 में तय हो गई थी. इस बार भी ज्ञानी जरूर कहने की कोशिश करेंगे कि 2022 की नतीजे ने 2024 की नतीजे तय कर दी है.

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