This Article is From Apr 02, 2021

क्या भारतीय सियासत में नई इबारत लिख पाएंगे मुस्लिम दल और उनके नेता...?

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Amrish Kumar Trivedi

पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी के विधानसभा चुनाव को बीजेपी विरोधी दलों के गठबंधन की राजनीति का तो लिटमस टेस्ट माना ही जा रहा है, साथ ही यह देश में अलग राजनीतिक पहचान और रसूख पाने की जद्दोजहद में जुटे मुस्लिम दलों और मुस्लिम नेताओं के लिए भी बेहद अहम साबित होने वाला है. असम और पश्चिम बंगाल में ऐसे राज्य हैं, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं,

सवाल है कि क्या असम में एआईयूडीएफ और बंगाल में इंडियन सेकुलर फ्रंट किंग भले ही न सही, लेकिन किंगमेकर की भूमिका में आ सकेंगे? केरल में मुस्लिम लीग तो लंबे समय से कांग्रेस की अगुवाई वाले यूडीएफ का हिस्सा रही है. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम सोची समझी रणनीति के तहत केरल-असम की सियासत से दूरी बनाते हुए बंगाल और तमिलनाडु में भी अपनी पहचान कायम करने की कोशिश में हैं.

ये चुनाव इस बात का फैसला भी करेगा कि धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर तमाम आलोचनाओं की परवाह न करते हुए कांग्रेस ने जिस तरह विशेष धार्मिक पहचान वाले दलों एआईयूडीएफ या इंडियन सेकुलर फ्रंट से हाथ मिलाकर जो राजनीतिक दांव खेला है, वो आखिर कितना सफल रहता है? केरल, असम और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ऐसे गठबंधनों की अगुवाई कर रही है या उसमें शामिल सक्रिय दल है, जिनमें मुस्लिमों के बीच प्रभाव रखने वाली पार्टियां शामिल हैं.

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क्या कांग्रेस के लिए मददगार साबित हो पाएंगे ये दल?

असम में बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाला एआईयूडीएफ, बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन में शामिल अब्बास सिद्दीकी का इंडियन सेकुलर फ्रंट और केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ में इंडियन मुस्लिम लीग शामिल है. मुस्लिम लीग और एआईयूडीएफ के साथ कांग्रेस का पहले भी नाता रहा है, लेकिन प्रखर हिन्दुत्व के एजेंडे को लेकर आगे बढ़ रही बीजेपी की ध्रुवीकरण की राजनीति के कारण गठबंधन का यह दांव एक बड़ा सियासी जोखिम बन गया है.

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मुस्लिम नेताओं की सरपरस्ती में ये तीनों ही दलों (एआईयूडीएफ, आईयूएमएल और आईएसएफ) की फिलहाल कोई राष्ट्रीय महात्वाकांक्षा तो नहीं दिखती, लेकिन ये दल कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती या केंद्र की सत्ता में वापसी में कितने कारगर साबित होंगे, विधानसभा चुनावों से इन सवालों पर जमी असमंजस की परत काफी हद तक साफ हो सकती है. बंगाल में लेफ्ट-कांग्रेस और आईएसएफ का गठबंधन बहुमत तो भले ही हासिल न कर पाए लेकिन सवाल है कि क्या वो इतनी सीटें हासिल कर पाएगा कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में किंगमेकर की भूमिका निभा पाए?

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 केरल विधानसभा चुनाव में यूडीएफ और एलडीएफ के बीच हर बार सत्ता परिवर्तन देखने को मिलता है, मगर सर्वेक्षणों की बात करें तो इस बार संकेत कांग्रेस के लिए अच्छे नहीं हैं. हालांकि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, जो खुद केरल की वायनाड लोकसभा सीट से सांसद हैं, वो केरल में पूरा जोर लगा रहे हैं. लेकिन कांग्रेस को शायद सबसे ज्यादा उम्मीद असम से है, जहां 35 फीसदी मुस्लिम आबादी में गहरी पैठ रखने वाले बदरुद्दीन अजमल के अलावा बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट समेत कई दलों के महागठबंधन ने बीजेपी के सामने तगड़ी चुनौती पेश की है. 

बहरहाल, मुस्लिमों को केंद्र में रखकर दलितों- पिछड़ों को साथ लाने और राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प पेश करने की छटपटाहट एआईएमआईएम में साफ दिखती है. कभी हैदराबाद की पार्टी कही जाने एआईएमआईएम आज बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सियासी दायरा बढ़ा रही है. ओवैसी भारतीय राजनीति में मुस्लिमों के लिए अलग विकल्प पेश करने की कोशिश कर रहे हैं.असदुद्दीन ओवैसी एआईएमआईएम को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की मंशा भी साफ कर चुके हैं. उन्हें कांग्रेस, सपा-बसपा, राजद या किसी अन्य ऐसे दल की सरपरस्ती मंजूर नहीं है, जो बीजेपी के विकल्प का दावा पेश करने के साथ खुद की कथित सेकुलर इमेज को भुनाकर मुस्लिम वोटों को अभी तक अपने पाले में खींचते आए हैं. 'वोट कटुआ' या बीजेपी की बी टीम जैसे आरोपों की परवाह न करते हुए ओवैसी बिहार के बाद बंगाल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी चुनावी मैदान में ताल ठोंक रहे हैं. बिहार चुनाव में ओवैसी की पार्टी 5 सीटें जीतने से ओवैसी उत्साहित हैं.

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महागठबंधन के सत्ता दूर रह जाने की अहम वजह ओवैसी फैक्टर को ही माना गया. गुजरात नगर निकाय चुनाव में एआईएमआईएम ने मुस्लिम बहुल इलाकों में अच्छा प्रदर्शन किया. गोधरा, मोडासा समेत तीन नगर निकायों में उनकी पार्टी ने 17 सीटें जीतीं और आम आदमी पार्टी की तरह कांग्रेस को जबरदस्त चोट पहुंचाई. हालांकि मौजूदा विधानसभा चुनावों में खासकर बंगाल में ओवैसी को उम्मीदों को उस वक्त तगड़ा झटका लगा, जब फुरफुरा शरीफ के प्रभावशाली मौलाना अब्बास सिद्दीकी ऐन वक्त पर लेफ्ट-कांग्रेस के पाले में चले गए. लेकिन पूरे देश में विस्तार की उनकी सोच में फर्क नहीं आया है. गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में भी वो उतरने को तैयार हैं.तमिलनाडु में भी एआईएमआईएम की बात नहीं बनी. डीएमके ने गठबंधन के दो मुस्लिम सहयोगी दलों आईयूएमएल और मनिथनेया मक्कल काची (एमएमके) के कड़े ऐतराज के बाद पार्टी के अल्पसंख्यक सम्मेलन में ओवैसी को दिए गए निमंत्रण को ऐन वक्त पर वापस ले लिया था. एआईएमआईएम तमिलनाडु में शशिकला के भतीजे दिनाकरन की पार्टी एएमएमके के साथ मैदान में उतरी है. ओवैसी ने फिलहाल असम और केरल से दूरी बनाई है. असम में अजमल और केरल में सामाजिक समूह थंगल का मुस्लिमों के बीच दबदबा कायम है.

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि अगर एआईएमआईएम अब्बास सिद्दीकी के साथ बंगाल में उतरती तो मुस्लिम मतों का उनके गठबंधन, टीएमसी, लेफ्ट-कांग्रेस के बीच बड़े पैमाने पर बिखराव देखने को मिलता और बीजेपी को फायदा होता. मगर मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के साथ आईएसएफ का गठबंधन सिद्दीकी को बड़ी कामयाबी दिला सकता है. 35 साल के अब्बास सिद्दीकी 2019 से ही ममता बनर्जी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे. आईएसएफ से कई आदिवासी और दलित समूहों को भी जोड़कर उन्होंने तगड़ी चुनौती पेश की है. मुर्शिदाबाद की 22 में से 13 सीटों पर उम्मीदवार उतारने के ओवैसी के ऐलान के बाद कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन और टीएमसी और एआईएमआईएम के बीच अल्पसंख्यक वोटों का रुख किस ओर झुकेगा, ये देखना भी दिलचस्प होगा.

अजमल क्या बन पाएंगे किंगमेकर?

इत्र कारोबारी बदरुद्दीन अजमल ने अक्टूबर 2005 में असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) बनाई थी. ठीक अगले साल 2006 में हुए विधानसभा चुनाव में एआईयूडीएफ को 10 सीटें मिलीं. एआईयूडीएफ ने 2011 के चुनाव में 18 और 2016 के चुनाव में 13 सीटें जीती थीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को 3 सीटें मिली थीं. इस बार एआईयूडीएफ असम की 126 में से 21 सीटों पर मैदान में है. 71 साल के अजमल दारुल उलूम देवबंद से पढ़े हैं और असम की धुबरी सीट से तीन बार से लगातार सांसद हैं. 2014 के चुनाव में मोदी लहर में उनकी पार्टी ने 3 लोकसभा सीटें जीती थीं, लेकिन 2019 में वो सिर्फ अपनी सीट ही बचा पाए.

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ओवैसी की एआईएमआईएम पूरे देश में

कभी हैदराबाद की पार्टी कही जाने वाली एआईएमआईएम के पास 1984 से हैदराबाद लोकसभा सीट है. वर्ष 2014 के चुनाव में पार्टी ने तेलंगाना विधानसभा चुनाव में 7 सीटें जीत राज्य की पार्टी का दर्जा हासिल किया. लेकिन 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटें और 2019 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र से एक सीट जीत पार्टी ने अपने बढ़ते दायरे का संकेत दिया. बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीत पार्टी ने पार्टी का हौसला और बढ़ाया है. ओवैसी का परिवार लंबे समय से राजनीति में है. उनके दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी ने 1957 में पार्टी को ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन के नाम से लांच किया. असदुद्दीन के उनके पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी 1984 से 2004 तक हैदराबाद से सांसद रहे. वहीं पेशे से वकील ओवैसी ने लंदन के विख्यात लिंकन इन से पढ़ाई की है. लगातार चार बार से हैदराबाद लोकसभा सीट से सांसद हैं और दुनिया के 500 प्रभावशाली मुस्लिम शख्सियतों में भी उनका नाम है.

आईयूएमएल देश की सबसे पुरानी मुस्लिम पार्टियों में एक

इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग विभाजन के बाद से देश की सबसे पुरानी मुस्लिम पार्टी कहा जाए तो गलत नहीं होगा. मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में जिस मुस्लिम लीग के आंदोलन के बाद देश का विभाजन हुआ, उसके भारतीय संस्करण को इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग कहा जाता है. केरल और तमिलनाडु में पैठ जमाने वाली आईयूएमएल का केरल में कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन यूडीएफ में शामिल रही है. विधानसभा के साथ लोकसभा में भी उसका प्रतिनिधित्व रहा है.मौजूदा समय में तो उसके चार सांसद लोकसभा में हैं. केरल औऱ तमिलनाडु की विधानसभा में उसके 19 विधायक भी हैं. शुरुआती दौर में उसका दायरा यूपी, महाराष्ट्र, असम, बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्यों तक था. बंगाल में तो 1967 की संयुक्त मोर्चा सरकार में भी उसका मंत्री भी रहा. IUML इस बार केरल की 140 वाली विधानसभा सीटों में से 27 पर चुनाव लड़ रही है. पिछली बार यूडीएफ की हार के बावजूद आईयूएमएल ने 24 सीटों में 18 पर जीत हासिल की थी. IUML केरल के अलावा पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु में भी चुनाव लड़ रही है. तमिलनाडु के डीएमके-कांग्रेस गठबंधन में उसे 3 सीटें मिली हैं.

इंडियन सेकुलर फ्रंट सबसे नया नाम

मुस्लिम दलों की फेहरिस्त में सबसे नया नाम इंडियन सेकुलर फ्रंट का है. बंगाल में चुनावी उद्घोष के ठीक पहले जनवरी में हुगली जिले में फुरफुरा शरीफ के प्रभावशाली धर्मगुरु अब्बास सिद्दीकी ने इसका गठन किया. यह फ्रंट बंगाल में लेफ्ट और कांग्रेस के गठबंधन का हिस्सा है और 37 सीटों पर चुनाव मैदान में है. फ्रंट के उम्मीदवार राष्ट्रीय सेकुलर मजलिस पार्टी के टिकट पर मैदान में होंगे, क्योंकि पार्टी के पास अभी तक चुनाव आयोग की मंजूरी तक नहीं है. ये गठबंधन बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को कितनी चोट पहुंचाएगा, ये तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा. हालांकि 10 से ज्यादा हिंदू उम्मीदवार उतारकर फ्रंट ने यह जताने की कोशिश की है कि वह मुस्लिम पार्टी नहीं है. सिद्दीकी के छोटे भाई नौशाद भी चुनाव मैदान में हैं.
एक बात ध्यान देने योग्य है कि कांग्रेस या अन्य गैर बीजेपी दलों के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाले मुस्लिम दलों की जीत का दायरा 75 से 85 फीसदी तक रहा है. असम में एआईयूडीएफ और केरल में मुस्लिम लीग इसके उदाहरण हैं.

(अमरीश कुमार त्रिवेदी ndtv.in में चीफ सब-एडिटर हैं.)

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